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Sutradhar Mini Tales (हिन्दी)

U • Fiction • Kids & Family • Religion & Spirituality

नमस्कार दोस्तों, सूत्रधर मिनी टेल्स पॉडकास्ट में आप सब का स्वागत है । मैं हूँ आपका मेज़बान निष्कर्ष बाजपई और हम आपके लिए लेकर आये हैं, सूत्रधार की तरफ से मिनी टेल्स पॉडकास्ट। एक ऐसा पॉडकास्ट जहा पर आप प्रतिदिन सुनेंगे हमारे शास्त्रों से अच्छी तरह से शोध की गई लघु कथाएं और छोटी छोटी पौराणिक कहानियां जिनको शायद आपने पहले कभी ना सुना हो। दोस्तों अपनी पसंद की और भी पौराणिक कहानियों और कथाओं को सुनने के लिए ...आप हमारे सूत्रधार ऐप को प्ले स्टोर से भी डाउनलोड कर सकते हैं।https://play.google.com/store/apps/detailsidcom.sutradhar

  • Trailer

  • राज - वंश मिथिला के संस्थापक (Rajkul mithila ke sansthapak)
    2 min 27 sec

    इक्ष्वाकु के पुत्र थे निमि। निमि अपनी प्रजा के भले के लिए एक महान यज्ञ का आयोजन करना चाहते थे जो कई वर्षों तक चलता। उस यज्ञ के पुरोहित बनने के लिए निमि गुरु वशिष्ठ के पास गए। गुरु वशिष्ठ ने पहले ही इन्द्र के यज्ञ का पुरोहित बनना स्वीकार कर लिया था और उन्होंने निमि को यह बात बता दी। वशिष्ठ ऋषि ने सोचा कि वह इन्द्र का यज्ञ कराने के बाद निमि का यज्ञ भी करा देंगे। उधर निमि ने सोचा कि इतना महान यज्ञ टालना ठीक नहीं है और उन्होंने गौतम ऋषि को पुरोहित बनाकर यज्ञ शुरू करवा दिया। जब वशिष्ठ ऋषि इन्द्र का यज्ञ संपन्न कराकर वापस लौटे और देखा कि निमि ने किसी और को पुरोहित नियुक्त कर दिया है तो उनको अत्यंत क्रोध आया और उन्होंने निमि को देह रहित हो जाने का शाप दे दिया। जब निमि का यज्ञ संपन्न हुआ तो प्रजा ने देवताओं से विनती की कि उनके प्रिय राजा वापस उनके पास आ जाएँ। अपनी प्रजा की इस प्रकार विनती को सुनकर निमि के उनकी पलकों में रहना स्वीकार किया। कहा जाता है तब से निमि हमारी आँखों की पलकों में रहते हैं, इसीलिए पलक झपकने में जो समय लगता है उसे निमिष भी कहते हैं।

  • वाली-सुग्रीव शत्रुता (Vali- Sugreev Shatruta)
    2 min 20 sec

    जब यह बात दुंदुभि के बड़े भाई मायावी को पता चली तो उसने अपने भाई की मृत्यु का प्रतिशोद लेने के लिए वाली से लड़ने की सोची, लेकिन वाली के असीम पराक्रम के सामने उसकी एक ना चली तो वो भागकर एक गुफा में छुप गया। वाली उसके पीछेपीछे गुफा के अंदर चला गया और उसने सुग्रीव से गुफा के बाहर रुकने को कहा। दोनों कई दिनों तक गुफा के अंदर थे। कई दिनों बाद सुग्रीव को गुफा के अंदर से रक्त बहता दिखाई दिया तो उसको लगा कि मायावी ने किसी तरह वाली का वध कर दिया। सुग्रीव गुफा का दरवाजा एक बड़े से पत्थर से बंद कर किष्किंधा वापस आ गया और वहाँ का राजा बन गया। जब वाली गुफा से बहार निकला और उसे सुग्रीव के राज्याभिषेक का पता चला तो उसे बड़ा क्रोध आया और सुग्रीव को मारने के लिए दौड़ा। सुग्रीव अपनी जान बचाकर ऋष्यमूक पर्वत पर रहने लगा। जब वाली और दुंदुभि का द्वंद्व हो रहा था तो वाली ने दुंदुभि को उठाकर फ़ेंक दिया जिससे उसके रक्त की बूंदे ऋष्यमूक पर्वत पर तपस्या करते हुए मतंग ऋषि पर पड़ीं और उन्होंने शाप दे दिया कि जिसने भी यह किया है उसने अगर ऋष्यमूक पर्वत पर कदम रखा तो उसका सर फट जायेगा। इसीलिए सुग्रीव ऋष्यमूक पर्वत पर रहने लगा क्योंकि मतंग ऋषि के शाप के कारण वाली वहाँ नहीं जा सकता था।

  • परशुराम कुंड
    1 min 14 sec

    परशुराम कुंड जब भगवान परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा मानकर अपनी माता रेणुका का सर काट दिया तो उनको बहुत ग्लानि हुई। यद्यपि उन्होंने अपने पिता से वरदान पाकर अपनी माता को जीवित कर दिया, परंतु उनके मन का दुःख कम नहीं हुआ। उन्होंने अपने फरसे पर लगे अपने माँ के रक्त को धोने का बड़ा प्रयास किया परंतु किसी भी नदी, तालाब, झरने का जल उस रक्त को धोने में असफल रहा। अंत में उन्होंने आजकल जहाँ अरुणाचल प्रदेश है, वहाँ स्थित लोहित नदी के जल में अपने फरसे को धोया, जिससे उनके फरसे के रक्त साफ हुआ और उनके मन को शान्ति मिली। जिस स्थान पर भगवान परशुराम ने अपने फरसे से रक्त साफ किया था थे उस स्थान को परशुराम कुंड के नाम से जानते हैं और वहाँ प्रतिवर्ष देशविदेश से तीर्थयात्री आकर मकर संक्रांति के दिन पावन जल में डुबकी लगाते हैं। सूचना: भारत देश में और भी तीर्थस्थल हैं जो इस कहानी में वर्णित कुंड हो सकते हैं। हम भविष्य में उनके विषय में भी आपको बताएंगे।  

  • अगस्त्य ऋषि और लोपामुद्रा
    1 min 1 sec

     अगस्त्य ऋषि देवयुगल मित्रवरुण और अप्सरा उर्वशी के पुत्र थे। एक बार उन्होंने विवाह कर घर बसाने की सोची और विवाह के उद्देश्य से कान्यकुब्ज के राजा से उनकी पुत्री का हाथ माँगा। राजा ऋषि की दैवी शक्तियों से परिचित थे, इसलिए उन्होंने ऋषि को मना नहीं किया और उनका विवाह अपनी पुत्री लोपामुद्रा से करा दिया। जब ऋषि अगस्त्य ने अपनी पत्नी के साथ संबन्ध बनाने की सोची तो लोपामुद्रा ने उन्हें रोक दिया। उन्होंने कहा की मैं एक राजकुमारी हूँ। पहले आप मुझे एक राजकुमारी के समान वैभवशाली जीवन दें उसके बाद ही मैं पूर्ण रूप से आपकी पत्नी बन सकूँगी। 

  • इल्वल और वातापी
    1 min 27 sec

    इल्वल और वातापी दो दैत्य भाई थे जो मृतसंजीवनी विद्या जानते थे। वो अपनी इस विद्या का प्रयोग धनवान राहगीरों को मारकर उनकी संपत्ति लूटने के लिए करते थे। वातापी एक बकरे का रूप धारण कर लेता जिसे इल्वल अपने अतिथियों को खिला देता। जब सब भोजन कर लेते तो इल्वल, वातापी को आवाज लगता और वो लोगों का पेट फाड़कर बाहर आ जाता। ऋषि अगस्त्य अपने संपत्ति एकत्र करने के उद्देश्य से दोनों भाइयों के पास गए। उन दोनों ने ऋषि अगस्त्य के साथ भी वही युक्ति लगाई और वातापी को उन्हे खिला दिया। ऋषि अगस्त्य ने अपने योगबल से उनकी युक्ति जान ली और भोजन समाप्त करते ही अपने पेट पर हाथ फेरते हुए कहा, “वातापी जीर्णम”। उनके ऐसा कहते थी वातापी उनके पेट में पच गया। जब इल्वल ने अपने भाई को आवाज लगाई तो ऋषि अगस्त्य में मुँह से केवल डकार आई। इल्वल ने क्रोध में आकर ऋषि की मारना चाहा पर उन्होंने अपने योगबल से उसे भस्म कर दिया। इल्वल और वातापी की संपत्ति से ऋषि ने अपनी पत्नी को राजकुमारी के योग्य सुखसुविधाएं प्रदान की।  

  • माँ ब्रह्मचारिणी

    नवरात्र पर्व के दूसरे दिन माँ ब्रह्मचारिणी की पूजाअर्चना की जाती है। साधक इस दिन अपने मन को माँ के चरणों में लगाते हैं। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वालीं। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वालीं।देवी के इस रूप ने भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इस देवी को तपश्चारिणी अर्थात्‌ ब्रह्मचारिणी नाम से जाना गया।कहते है माँ ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्वसिद्धि प्राप्त होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन देवी के इसी स्वरूप की उपासना की जाती है। इस देवी की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए।मंत्र:दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू ।देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥इस श्लोक में अनुत्तमा का अर्थ जिनसे अधिक उत्तम कोई नहीं ऐसे होता है । और अक्षमालाकमण्डलू शब्द में दो वस्तु होने के कारण कमण्डलु शब्द के द्विवचन का प्रयोग है। 

  • कुम्भ-निकुम्भ वध
    2 min 55 sec

    श्रीराम और लक्ष्मण के सचेत होने के बाद सुग्रीव ने वानर सेना को लंका नगरी में आग लगाने की आज्ञा दी। सुग्रीव की आज्ञा पाकर वानर सेना ने अपने हाथों में मशालें लेकर लंका नगरी में आग लगाना शुरू कर दिया। सभी नगर वासी राक्षसों में हाहाकार मच गया। तब रावण ने कुंभकर्ण के पुत्रों कुम्भ और निकुंभ के नेतृत्व में राक्षस सेना को वानर सेना से युद्ध करने भेजा।युद्ध प्रारम्भ होते ही महाबली अंगद ने कंपन नामक राक्षस को एक चट्टान के प्रहार से मार गिराया। यह देखकर कुम्भ ने अपने बाणों से वानर सेना पर आक्रमण कर दिया। कुम्भ के बाण लगने से द्विविदा आहत होकर गिर गया। अपने भाई को इस प्रकार आहत देखकर मैंदा ने कुम्भ पर आक्रमण किया, परंतु वह भी कुम्भ के बाणों से घायल होकर मूर्छित हो गया।अपने मामाओं को इस प्रकार पराजित होता देखकर महाबली अंगद ने कुम्भ को ललकारा। अंगद और कुम्भ के बीच घमासान युद्ध हुआ और अंततः अंगद कुम्भ के बाणों के प्रहार से आहत होकर मूर्छित हो गए। जब श्रीराम को अंगद के मूर्छित होने का समाचार मिला तो उन्होंने महाबली जांबवान के नेतृत्व में वानर सेना को कुम्भ का सामना करने के लिए भेजा।जांबवान, सुषेण और वेगदर्शी ने कुम्भ पर चट्टानों और वृक्षों से आक्रमण किया परंतु कुम्भ ने अपने तीरों से उनके प्रहारों को निष्फल कर दिया। तब वानरराज सुग्रीव ने अनेक वृक्षों को कुम्भ की ओर फेंका, जिन्हे कुम्भ ने अपने तीरों से नष्ट कर दिया। सुग्रीव ने क्रोध में आकर कुम्भ का धनुष तोड़ दिया। धनुष टूट जाने पर कुम्भ सुग्रीव की ओर लपका और अपनी मुष्टिका से कई बार सुग्रीव की छाती पर प्रहार किये। सुग्रीव ने भी कुम्भ की छाती पर अनेक बार मुष्टिका से प्रहार किये। कुम्भ एक भीषण गर्जना के साथ भूमि पर गिर गया और उसके प्राण निकल गए।अपने भाई को धराशायी होते देखकर निकुम्भ क्रोध से भरकर एक विशाल मुग्दर लेकर वानर सेना पर टूट पड़ा। पवनपुत्र हनुमान को अपने सामने देखकर उसने अपने मुग्दर से उनके वक्ष पर प्रहार किया। बजरंगबली के वक्ष से टकराकर मुग्दर सौ टुकड़ों में टूटकर बिखर गया। दोनों महाबालशाली योद्धाओं में बीच मल्लयुद्ध छिड़ गया। अंततः बजरंगबली ने निकुम्भ की गर्दन तोड़कर उसे यमलोक भेज दिया।    

  • महाराज कौशिक | King Kaushik
    1 min 11 sec

    महाराज गाधि के पुत्र कौशिक एक बार शिकार खेलते समय अपने सैनिकों के साथ ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के आश्रम पहुँच गए। ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने महाराज कौशिक का यथोचित सत्कार किया और उनको तथा उनके सैनिकों को विधिवत भोजन कराया।जब महाराज कौशिक को पता चला कि ऋषि वशिष्ठ के पास इच्छापूर्ति करने वाली नंदिनी गाय है जिसके कारण ये सब संभव हो सका, तो उन्होंने अपने सैनिकों से बलपूर्वक उस गाय को अपने साथ ले जाने को कहा। परन्तु नंदिनी की दैवी शक्तियों के सामने कौशिक और उनके सैनिक कुछ नहीं कर सके और उन्हें हार मानकर वहाँ से जाना पड़ा। इस घटना के बाद महाराज कौशिक ने निश्चय किया कि वो किसी भी प्रकार से ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को पराजित करके ही रहेंगे। इस प्रकार प्रारंभ हुआ एक ऐसी प्रतिस्पर्धा का जिसके फलस्वरूप अंततः महाराज कौशिक ब्रह्मर्षि विश्वामित्र बने। King KaushikKaushik, son of Maharaja Gandhi once reached the ashram of Brahmarshi Vasistha along with his soldiers while hunting. Brahmarshi Vasistha gave proper hospitality to Maharaj Kaushik and duly fed him and his soldiers.When Maharaja Kaushik came to know that Sage Vashistha had a wishing Nandini cow, which made all this possible, he asked his soldiers to take that cow with them by force.But Kaushik and his soldiers could not do anything in front of the divine powers of Nandini and they had to give up from there.After this incident, Maharaj Kaushik decided that he would live by defeating Brahmarshi Vasistha in any way. Thus began a competition that eventually resulted in Maharaja Kaushik becoming Brahmarshi Vishwamitra. 

  • राजर्षि कौशिक
    1 min 15 sec

    नंदिनी गाय के हाथों अपने सैनिकों की पराजय देखकर महाराज कौशिक समझ गए कि ऋषि वशिष्ठ को हराने के लिए मानवीय शक्तियाँ सक्षम नहीं होंगी और उन्होंने दैवी अस्त्रशस्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए भगवान शंकर की शरण में जाने का निश्चय किया। अनेक वर्षों तक शिवजी की तपस्या के उपरांत शिवजी ने कौशिक को दैवी अस्त्रशस्त्रों का ज्ञान दिया। इस ज्ञान को पाते ही, ऋषि कौशिक पुनः वशिष्ठ ऋषि के आश्रम पहुंचे और अपने दैवी अस्त्रों से आश्रम पर आक्रमण कर दिया। शान्त स्वभाव के गुरु वसिष्ठ ने अपने ब्रह्मदंड से कौशिक के सभी अस्त्रों को निष्फल कर दिया और कौशिक को एक बार फिर गुरु वसिष्ठ के सामने पराजय का सामना करना पड़ा। इस घटना के बाद राजर्षि कौशिक को समझ में आया की ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को पराजित करने का एक ही रास्ता है, उनके समान ब्रह्मर्षि बनकर और वो फिर से घोर तपस्या मे लीन हो गए।   Rajarshi KaushikSeeing the defeat of his soldiers at the hands of Nandini cow, Maharaja Kaushik understood that human powers would not be able to defeat Rishi Vasishtha and he decided to go to Bhagwaan Shankars refuge to gain knowledge of divine weapons.After the penance of Shivji for many years, Shivji gave knowledge of divine weapons to Kaushik.On receiving this knowledge, sage Kaushik again reached the ashram of Vasishtha Rishi and attacked the ashram with his divine weapons.A calmminded Guru Vasistha defeated all of Kaushiks weapons with his Brahmadand and Kaushik once again suffered defeat at the hands of Guru Vasishtha.After this incident, Rajarshi Kaushik understood that there is only one way to defeat Brahmarshi Vashishta, by becoming a Brahmarshi like him and he again got absorbed in severe austerity.

  • राजा हरिश्चन्द्र | Raja Harishchandra
    1 min 21 sec

    त्रिशंकु के बाद उनके पुत्र हरिश्चन्द्र राजा हुए। हरिश्चन्द्र अपने दानपुण्य के लिए विख्यात अत्यंत धर्मपरायण राजा थे।एक बार उनकी परीक्षा लेने के लिए ऋषि विश्वामित्र ने उनसे उनका समस्त राज्य दान में मांग लिया, जिसे हरिश्चन्द्र ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। सारा राज्य दान कर देने के बाद हरिश्चन्द्र के पास ऋषि को दक्षिणा में देने के लिए कुछ नहीं बचा, तो उन्होंने अपनी पत्नी और पुत्र को बेचकर ऋषि को दक्षिणा दी और एक श्मशान में चांडाल का काम करने लगे। कुछ समय बाद उनके पुत्र की मृत्यु हो जाने पर उनकी पत्नी उसके शव के साथ उसी श्मशान पर आई, परंतु उनके पास अंतिम क्रिया के लिए देने को कुछ भी नहीं था। हरिश्चन्द्र ने अपनी पत्नी और मृत पुत्र को पहचान लिया, परंतु बिना कर लिए अंतिम क्रिया करने से मना कर दिया। ऋषि विश्वामित्र समझ गए कि हरिश्चन्द्र को सत्य और धर्म के मार्ग से डिगाना असंभव है और उन्होंने हरिश्चन्द्र को आशीर्वाद देते हुए उनका राज्य उनको वापस कर दिया तथा उनके पुत्र को भी पुनः जीवित कर दिया।   King HarishchandraHarishchandra was the son of Trishanku and became king after him. He was a kindhearted, truthful and honest king. Once in order to test him, rishi Vishwamitra asked him for his entire kingdom in donation, to which Harishchandra agreed. When the rishi demanded his dakshina, Harishchandra had nothing, for everything he owned was now donated to the rishi.In order to fulfil his promise Harishchandra sold his wife and son to a rich merchant and himself to a chandal to pay dakshina to rishi Vishwamitra. Some time later his son died and his wife reached the cremation ground where Harishchandra worked, but he refused to proceed with the cremation of his son, since his wife could not afford to pay for it.  In the end rishi Vishwamitra realised that it was impossible to deter Harishchandra from the path of dharma. The great rishi brought his son back to life and returned to him his kingdom, which he ruled for many years.  

  • गंगा | Ganga

    देवनदी गंगा पर्वतराज हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री थीं और स्वर्गलोक में निवास करती थीं। जब महाराज सगर के साथ हजार पुत्र कपिल मुनि के क्रोध की अग्नि में भस्म हो गए तब उनकी आत्मा के उद्धार के लिए इक्ष्वाकुवंशी राजाओं ने कई पीढ़ियों तक देवी गंगा को पृथ्वी लोक पर लाने के लिए तप किया। अंततः महाराज भगीरथ ने ब्रह्मदेव को अपने तप से प्रसन्न कर देवी गंगा को पृथ्वी लाने के लिए मना लिया और फिर भगवान शंकर को प्रसन्न कर स्वर्ग से तीव्र वेग से अवतरित होती गंगा की गति अवरोधित करने के लिए मनाया। इस प्रकार देवी गंगा स्वर्ग से पृथ्वी लोक पर अवतरित हुईं और संसार के कल्याण के लिए यहीं रह गयीं।  GangaGanga was the eldest daughter of Himalaya and livedin heaven. When 60 thousand sons of King Sagar were burned by Kapila muni, multiple generations of Ikshvaku Kings performed penance to bring the divine river to earth.Eventually it was Bhagirath who succeeded in bringing Ganga to earth by first pleasing Brahmadev to release Ganga from heaven and then convincing Shivaji to hold the fall of the mighty river when she descended from heaven.Thus, Ganga came to earth and stayed here.

  • यमुना | Yamuna

    यमुना सूर्यदेव की पुत्री तथा यम और वैवस्वत मनु की बहन हैं। जब अपनी सौतेली माता छाया के श्राप के बाद यम को मृत्युलोक का संरक्षक बनकर जाना पड़ा तब देवी यमी, पृथ्वीलोक पर यमुना नदी के रूप में अवतरित हुईं। इसीलिए माना जाता है कि यमुना में स्नान करने से यम के प्रकोप से मुक्ति मिलती है। ऐसी मान्यता है की भाई दूज के दिन यम अपनी बहन को मिलने आते हैं, इसीलिए भाई दूज का एक और नाम यम द्वितीया भी है।   YamunaYamuna was daughter of Suryadev and sister of Yama and Vaivaswat Manu. When Yama was cursed by his stepmother Chhaya and had to eventually go to rule the Mrityuloka, Yamuna came to earth and became the river Yamuna that we know today. That is why it is said that bathing in Yamuna relieves from the fear of Yama. It is believed that on the day of Bhai Duj, Yama visits his sister that is why it is also celebrated as Yama Dwitiya.

  • गोदावरी । Godavari
    1 min 1 sec

    गोदावरी नदी को दक्षिण की गंगा भी कहते हैं। एक पौराणिक कथा के अनुसार गौतम ऋषि अपनी पत्नी अहल्या के साथ त्र्यंबक के पास ब्रह्मगिरी में अपने आश्रम में रहते थे। एक बार गणेश जी ने एक दैवी गाय को उनके आश्रम भेज दिया। ऋषि ने उस गाय को चारा खिलाया तो उसकी मृत्यु हो गयी। स्वयं को गोहत्या का दोषी मानकर गौतम ऋषि ने प्रायश्चित करने के उद्देश्य से त्र्यंबकेश्वर की पूजा की और शिवजी को प्रसन्न कर जिस स्थान पर गाय की मृत्यु हुई थी, वहाँ पापनाशिनी पवित्र गंगा को प्रकट करने का वर माँगा। भगवान शंकर की कृपा से देवनदी गंगा गोदावरी नदी के रूप में अवतरित हुईं, जिनका एक नाम गौतमी भी है।  GodavariRiver Godavari is also referred as Ganga of the South. According to legends, Gautam rishi used to live with his wife Ahalya at Brahmagiri hills near Tryambak. Once Ganesh ji sent a divine cow to his heritage. When the rishi offered the cow some grass to eat, the cow died.Feeling responsible for killing the cow, the great rishi decided to perform penance to Triyambakeshwar. Bhagwaan Shankar pleased with his penance offered him a boon.The rishi wanted the holy river Ganga to appear from the place where the cow had died.Thus, with the blessing of Bhagwaan Shankar divine river Ganga appeared in the form of Godavari, which is also called Gautami.  

  • हरिणी | Harini

    देवराज इन्द्र ने अप्सरा हरिणी को ऋषि तृणबिन्दु का तप भंग करने को भेजा। ऋषि ने क्रोधित होकर हरिणी को मृत्युलोक में स्त्री रूप में जन्म लेने का शाप दे दिया। हरिणी ने विदर्भ की राजकुमारी इंदुमती के रूप में जन्म लिया और उनका विवाह अयोध्या के राजकुमार और महाराज रघु के पुत्र अज से हुआ। उन दोनों के पुत्र थे महाराज दशरथ। जब नारद मुनि की वीणा से एक दैवी पुष्प इंदुमती पर गिरा और वो ऋषि तृणबिन्दु के शाप से मुक्त होकर स्वर्गलोक चली गयीं। अपनी पत्नी के वियोग में महाराज अज ने भी अपने प्राण त्याग दिए। HariniDevraj Indra once sent Apsara Harini to disrupt the penance of sage Trinabindu. The sage got angry and cursed Harini to be born as a mortal. Harini was born as princess Indumati of Vidarbha, who later married Prince Aja of Ayodhya and their son was Dasharath. When a divine flower fell on her from Narad muni’s Veena, she was liberated from her curse and left for heaven. Aja was so grief stricken that he decided to end his life to be with his beloved wife  

  • विष्णुपाद मंदिर | Vishnupad Temple
    1 min 8 sec

    , गयागया स्थित विष्णुपाद मंदिर में भगवान विष्णु के पद चिन्ह की अर्चना की जाती है। शिला पर बना श्रीहरि का यह पद चिन्ह शंख, चक्र, गदा व पद्म जैसे आयुधों से सुसज्जित है। गया नगरी का नाम गयासुर के नाम पर पड़ा है। गयासुर के अत्याचारों से संतापित तीनो लोकों को मुक्ति दिलाने के लिए भगवान विष्णु ने इसी जगह पर उसके मस्तक पर अपना पैर रख उसे भूमि में नीचे दबा दिया था।पातालगामी गयासुर के भोजन का प्रबंध करने हेतु भगवान विष्णु ने गया को पिंडदान का प्रमुख क्षेत्र बनाया। अपने रामावतार के समय भगवान पद्मनाभ ने स्वयं यहां अपने पिता दशरथ के लिए पिंडदान किया था। कहा जाता है कि जिस दिन गया में पिंडदान की परंपरा बंद हो जाएगी, उसी दिन भूख से तिलमिलाता हुआ गयासुर वापस ऊपर भूलोक में आ जाएगा।Vishnupad Temple, GayaThe holy city of Gaya, named after the demon “Gayasur hosts the tranquil and spiritual Vishnupad Temple. According to the legends, Gayasur was a tyrant who used to enjoy tormenting the faithful, the sages, and dharmatmas. To curb the menace of this demonic entity and to rescue his followers from the atrocities of the wicked Gayasur, Bhagwan Vishnu chalked out a plan. He put his foot on Gayasur’s head and plunged him into the abyss. To commemorate the incident, the holy footprint of Bhagwan Vishnu decorated with Sankh, Chakra, Gada, and Padma have been worshipped there since then.While in Patal Lok Gayasur craved for food, thus letting Bhagwan Vishnu setup Gaya as his adobe for Pindaan. Bhagwan Vishnu proclaimed that those who do offer food for the souls of their beloved in Gaya, Gayasur would get a portion of it. It is said that the day Pindaan stops there, a starving and agonized Gayasur will rise from the underground.

  • कोणार्क मंदिर | Konark Sun Temple

    ओडिशा राज्य में बंगाल की खाड़ी के तट पर स्थित यह प्राचीन सूर्य मंदिर अर्क क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। यहीं पर कुष्ठ रोग से पीड़ित भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब ने बारह वर्षों तक सूर्यदेव की उपासना की थी। सूर्यदेव की कृपा से कुष्ठ रोग से मुक्त होने के पश्चात साम्ब ने सूर्यदेव की मूर्ति की स्थापना कर वहां सूर्य पूजा की परंपरा को प्रारम्भ किया।आज भी ओडिशा राज्य में पौष मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को साम्ब दशमी के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन माताएं अपने संतानों के आरोग्य व दीर्घायु की कामना कर सूर्यदेव की उपासना करती हैं।  Konark Sun Temple, Odisha Situated on the shores of the Bay of Bengal, The Sun Temple of Konark compliments the picturesque coastline of Odisha. Also known as the Arka Kshetra, the land of the sun, narrates a magnificent tale of gratefulness.  It was here that Samb, the son of Shri Krishna, suffering from leprosy, worshiped the Sun for twelve years. After Shamb was recuperated from his misfortunes by the grace of the Sun, he built the idol of his savior to show his gratitude. That event established the tradition of Sun worship which eventually became embedded into the local culture.  Today, in the state of Odisha, the tenth day of the bright fortnight of Paush month is observed as Samb Dashami. On this day, mothers worship the Sun praying for the health and long life of their children.

  • त्रिपुरा दहन । Tripura Dahan
    2 min 40 sec

    कुमार कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का अन्त होने के पश्चात, उसके तीन पुत्रों तारकाक्ष, विद्युन्माली और कमलाक्ष ने वर्षों तक ब्रह्मदेव की तपस्या कर उनसे तीन गतिमान नगरों का वरदान माँगा जो एक हजार वर्षों में एक बार एक सीध में आयें और उनका विनाश एक ही तीर के द्वारा संभव हो। असुरों के शिल्पी मयासुर ने वहाँ तीन अलग अलग धातुओं से बने हुए महलों का निर्माण किया। इस प्रकार त्रिपुरासुर अजेय हो गए और देवताओं पर अत्याचार करने लगे। उनसे मुक्ति पाने के लिए देवताओं ने महादेव की शरण ली। इस महान कार्य को करने के लिए देवशिल्पी विश्वकर्मा ने एक विशेष रथ का निर्माण किया। पृथ्वी रथ बनी, सूर्य और चन्द्र उसके पहिये। स्वयं भगवान विष्णु ने एक बैल का रूप धारण कर रथ को खींचने का कार्य किया और ब्रह्मदेव उसके सारथी बने। मेरु पर्वत धनुष बने और वासुकी नाग उसकी डोरी। विष्णु भगवान ने तीर बनाया, अग्निदेव जिसकी नोक और वायुदेव पंख बने।  जैसे ही तीनों नगर एक सीध में आए, और महादेव के तीर चलाने का समय आया सभी देवताओं को इस बात का घमण्ड हो गया कि महादेव को भी इस कार्य में उनकी सहायता की आवश्यकता पड़ी। शिवजी ने उनका यह घमण्ड जानकर तीर छोड़ने के स्थान पर केवल मन्दमन्द मुस्कुराये और तीनों नगर धूधूकर जलने लगे। अंततः ब्रह्मदेव के अनुरोध पर महादेव ने पशुपत अस्त्र का आह्वान किया और एक ही तीर से तीनों पुरों को नष्ट कर दिया।  तीनों पुरों के भस्म होने से पहले शिवजी ने नंदी महाराज को भेजकर अपने भक्त मयासुर की रक्षा की।  तीनों पुरों के भस्म होने के बाद महादेव ने ताण्डव नृत्य किया जिसे “त्रिपुरा नाश नर्तन” कहा गया। इस महान कार्य को करने के कारण महादेव का एक नाम त्रिपुरन्तक भी पड़ा। इस दिन की वर्षगांठ प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के दिन देव दीपावली के रूप में मनायी जाती है।  

  • कैकेयी की वीरता | Kaikeyi’s Valor
    1 min 3 sec

    राजा दशरथ की दूसरी पत्नी कैकेयी, केकय नरेश अश्वपति की पुत्री थीं। कैकेयी का पालन पोषण उनके पिता के ही संरक्षण में हुआ, जिन्होंने अपनी पुत्री को हर प्रकार की विद्याओं की शिक्षा दी। युद्धकला में भी कैकेयी पारंगत थी। माता के बिना पली बढ़ी कैकेयी पर उनकी दासी मंथरा का बड़ा प्रभाव था। एक बार सम्बरसुर दैत्य से युद्ध के समय कैकेयी ने राजा दशरथ के सारथी के रूप में भाग लिया। युद्ध में राजा दशरथ आहत हो गए और उनके रथ का पहिया निकल गया। कैकेयी ने अपने कौशल का प्रयोग करते हुए राजा के प्राण बचाए। अपनी प्रिय पत्नी की इस वीरता से प्रभावित होकर राजा दशरथ ने कैकेयी को दो वर माँगने को कहा। वर्षों बाद मंथरा के प्रभाव में आकर कैकेयी ने राजा दशरथ को इन्ही दो वर की याद दिलाते हुए, भरत के लिए अयोध्या का सिंहासन और श्रीराम के लिए चौदह वर्ष का वनवास माँगा था।  

  • तारा द्वारा सुग्रीव की रक्षा | Tara Protects Sugriva
    1 min 13 sec

    तारा वानरों के वैद्यराज सुषेण की पुत्री और वाली की पत्नी थी। तारा एक अत्यंत ही समझदार स्त्री थीं और सदा अपने पति को योग्य सुझाव देती थीं। अपनी मृत्यु के समय वाली ने सुग्रीव से तारा की सुरक्षा करने और सदा उनका सुझाव मानने का परामर्श दिया था। किष्किन्धा का राज्य पाने के बाद सुग्रीव ने तारा से विवाह कर लिया और अपने राज काज में व्यस्त हो गए। सुग्रीव को देवी सीता की खोज का कोई भी प्रयास ना करते देखकर लक्ष्मण जी को अत्यंत क्रोध आया और उन्होंने सुग्रीव को इस अवहेलना का दंड देने की सोची। क्रोध से भरे हुए लक्ष्मण जी को देखकर भयभीत सुग्रीव अपनी पत्नी तारा की शरण में गए। तारा ने लक्ष्मण जी से बात कर उनका क्रोध शान्त किया और तुरंत प्रभाव से किष्किन्धा की वानर सेना को सीता माता की खोज के कार्य में लगाने का आश्वासन दिया।  

  • एक और सहदेव | Another Sahadev

    कनिष्ठ पांडव सहदेव के बारे में तो सब ने सुना ही होगा। परन्तु महाभारत का युद्ध लड़ने वाले शूरवीरों में एक और सहदेव का भी उल्लेख आता है। यह सहदेव मगधराज जरासंध के पुत्र थे जिनको भीम के हाथों जरासंध के वध के पश्चात मगध का राजा बनाया गया। महाभारत के युद्ध में वह पांडवों की ओर से ही लड़े, और युद्धभूमि में शकुनि के हाथों वीरगति को प्राप्त हुए।   Another SahadevEveryone is aware of younger Pandav brother Sahadev, however there is another Sahadev who fought in the battle for Mahabharata.This Sahadev was the son of Jarasandh, King of Magadh. After Jarasandh was killed by Bhima, his son Sahadev was appointed the king by Pandav.In the Mahabharata war he fought from the Pandav side and was killed by Shakuni in battle.

  • बाह्लिक | Bahilka
    1 min 4 sec

    बाह्लिक, महाराज प्रतीप के द्वितीय पुत्र तथा राजा शांतनु के ज्येष्ठ भ्राता थे। पितामह भीष्म के काका बाह्लिक ने महाराज धृतराष्ट्र के अनुग्रह पर कौरव सेना की ओर से महाभारत के युद्ध में भाग लिया और वह महाभारत युद्ध में भाग लेने वाले सबसे वयस्क योद्धा थे।युद्ध के चौदहवें दिन जब जयद्रथ वध के पश्चात जब युद्ध रात तक चलता रहा तब महाबली भीम के हाथों वह वीरगति को प्राप्त हुए। उनके पुत्र सोमदत्त और पौत्र भूरिश्रवा ने भी कौरव सेना की ओर से युद्ध में भाग लिया और उन दोनों की मृत्यु सात्यकि के हाथों हुई।    

  • वृषकेतु | Vrishketu
    1 min 27 sec

    वृषकेतु महाभारत में जीवित बचने वाले कर्ण के एकमात्र पुत्र थे। कर्ण की मृत्यु के पश्चात उनके ज्येष्ठ पांडव होने के बारे में जब समस्त पांडवों को पता चला तो उन्होंने वृषकेतु को अपने संरक्षण में ले लिया। अर्जुन ने स्वयं गुरु बन कर वृषकेतु को धनुर्विद्या के साथ साथ ब्रह्मास्त्र व वरुणास्त्र का ज्ञान भी दिया था। महाराज युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ के समय मणिपुर के राजकुमार बभ्रुवाहन ने युधिष्ठिर का अश्व रोक लिया था। उसी युद्ध में बभ्रुवाहन के हाथों वृषकेतु और अर्जुन की मृत्यु हो गयी थी। जब बभ्रुवाहन को यह पता चला के वह अर्जुन के ही पुत्र हैं तो उन्हें अपने किये पर बहुत पश्चाताप हुआ। बाद में अर्जुन की नागपत्नी उलूपी ने अर्जुन को और भगवान श्रीकृष्ण ने वृषकेतु को पुनर्जीवित कर दिया था। पांडवों के महाप्रयाण के बाद अर्जुन के पौत्र परीक्षित को हस्तिनापुर का और वृषकेतु को इंद्रप्रस्थ का राजा बनाया गया।   VrishketuVrishketu was the youngest son of Karna. He did not participate in the Mahabharat war because of his young age. After the war when the Pandavs found out about their real relationship with Karna, Arjuna took himvrishketu as his ward.During Yudhishthir’s Ashwamedh yagya, Vrishaktu accompanied his uncle and teacher Arjuna. Babhruvahan stopped the horse and killed Vrishaketu and Arjuna in battle. He regretted it when he found out that Arjuna was his father. Later Arjuna was brought back to life by his wife Ulupi and Shrikrishna revived Vrishaketu.When the Pandavs left for their final journey they made Vrishaketu the king of Indraprastha. 

  • राजा दक्ष की 27 पुत्रियाँ
    1 min 54 sec

    अपने सभी पुत्रों के वैराग्य धारण करने पर दक्ष प्रजापति ने परम पिता ब्रह्मा की आज्ञा का पालन करने के लिए अपनी पत्नी प्रसूति और पंचजनी के गर्भ से पुत्रियों को जन्म दिया।  दक्ष की सत्ताईस पुत्रियों का विवाह चंद्र के साथ हुआ, जो की सत्ताईस नक्षत्र हुईं। तेरह पुत्रियों का विवाह कश्यप ऋषि के साथ हुआ, जिनसे अनेक प्रजातियों की उत्पत्ति हुई। दक्ष की दस पुत्रियों का विवाह धर्म के साथ हुआ। भृगु ऋषि की पत्नी ख्याति, मरीचि ऋषि की पत्नी सम्भूति, अंगिरा ऋषि की पत्नी स्मृति, पुलस्त्य ऋषि की पत्नी प्रीति, पुलह ऋषि की पत्नी क्षमा, क्रतु ऋषि की पत्नी सन्नति,अत्रि ऋषि की पत्नी अनुसूया और वशिष्ठ ऋषि की पत्नी ऊर्जा भी दक्ष कन्यायें थी।  दक्ष की पुत्री स्वाहा का विवाह अग्निदेव से और रति का विवाह कामदेव से हुआ। उनकी पुत्री सती ने अपने पिता की इच्छा के विपरीत भगवान् शंकर से विवाह किया।

  • दक्ष यज्ञ
    1 min 24 sec

    ब्रह्मदेव ने एक बार एक महायज्ञ का आयोजन किया जिसमें सभी देवता और ऋषि उपस्थित हुए। जब दक्ष प्रजापति ने यज्ञ मंडप में प्रवेश किया तो ब्रह्मदेव और शिवजी के अलावा अन्य सभी देवताओं ने अपने आसनों से उठकर उनका सम्मान किया।  ब्रह्मदेव तो दक्ष के पिता थे, लेकिन शिवजी के आसन से न उठने को दक्ष ने अपना अपमान समझा और इसी अपमान का बदला लेने के लिए उन्होंने दक्ष यज्ञ का आयोजन किया जिसमें सभी देवताओं और ऋषियों को आमंत्रित किया परन्तु शिवजी और सती को नहीं बुलाया। 

  • सती दाह (Sati's Sacrifice)
    1 min 37 sec

    दक्ष प्रजापति ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया जिसमें सभी देवताओं और ऋषियों को आमंत्रित किया सिवाय अपनी पुत्री सती और दामाद भगवान् शंकर को। जब सती को पिता के यज्ञ के विषय में पता चला तो उन्होंने जाने की इच्छा व्यक्त की। भगवान् शिव ने उनको ना जाने की सलाह दी क्योंकि उनको यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया गया था। यज्ञ में बिना बुलाये आ जाने के लिए दक्ष ने सती का अपमान किया और उसके बाद शिवजी को भी अपशब्द कहे। अपने पति का अपने ही पिता के द्वारा इस प्रकार अपमान देवी सती से सहन नहीं हुआ और उन्होंने स्वयं को उसी यज्ञ की अग्नि में समर्पित कर अपना शरीर त्याग दिया।

  • वीरभद्र और भद्रकाली
    1 min 52 sec

    दक्ष यज्ञ में सती के देह त्याग का समाचार मिलते ही भगवान् शंकर को अत्यंत क्रोध आया। उनके इस असीमित क्रोध से प्रकट हुए महा भयंकर वीरभद्र और भद्रकाली तो उन्होंने दक्ष यज्ञ को विध्वंश करने का आदेश दिया।  वीरभद्र और भद्रकाली के रौद्ररूप के सामने दक्ष यज्ञ में उपस्थित किसी भी देवता या ऋषि की एक ना चली और सभी अपनी जान बचाकर इधरउधर भागने लगे। इस भगदड़ के बीच वीरभद्र ने दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया।  उधर सभी देवीदेवता भगवान् शंकर की प्रार्थना करने हुए उनसे वीरभद्र और भद्रकाली को रोकने की अर्चना करने लगे। जब भगवान् शंकर का क्रोध शांत हुआ, उन्होंने अपने रौद्ररूपों को रोका और सभी घायल देवी देवताओं और ऋषिओं को ठीक कर दिया।  ब्रह्मदेव के प्रार्थना करने पर उन्होंने दक्ष प्रजापति के कटे हुए सर की जगह एक बकरे का सर लगाकर उनको भी जीवित कर दिया और उनको परमब्रह्म के रूप में दर्शन दिए। दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ से परमब्रह्म शिवजी को अर्घ्य देकर अपना यज्ञ संपन्न किया।

  • बुध: चंद्रपुत्र
    1 min 39 sec

    एक बार चंद्र देवगुरु बृहस्पति की पत्नी तारा पर मोहित हो गए और उनको अपने साथ भगा ले गए।देवताओं ने अपने गुरु का साथ लेते हुए चंद्र से उनकी पत्नी वापस लौटाने को कहा, परंतु दैत्यों ने चंद्र का साथ दिया और देवदानवों के बीच एक भीषण संग्राम छिड़ गया। तारा की कामना से हुए इस युद्ध को तारकाम्यम संग्राम कहा गया।जब ब्रह्मदेव को लगा की इस युद्ध से उनकी सम्पूर्ण सृष्टि ही नष्ट हो सकती है, तो उन्होंने दोनों के बीच मध्यस्थता करते हुए तारा को देवगुरु के पास वापस भेज दिया।कुछ समय पश्चात तारा को एक पुत्र की प्राप्ति हुई, बुध।बुध और इला के पुत्र पुरुरवा ने चंद्रवंश की स्थापना की। इसी वंश से आगे चलकर यदुवंश और कुरुवंश का प्रादुर्भाव हुआ।

  • देवराज नहुष
    1 min 48 sec

    महाराज पुरुरवा के पुत्र आयु ने वर्षों भगवान दत्तात्रेय की सेवा कर उनसे वरदान स्वरूप एक पुत्र प्राप्त किया, जिसका नाम नहुष रखा। जन्म के कुछ समय बाद ही राक्षस हुंड ने नहुष का अपहरण कर लिया था, क्योंकि एक भविष्यवाणी के अनुसार नहुष हुंड का वध कर भगवान शिव और माता  पार्वती की पुत्री देवी अशोकसुंदरी को उसके चंगुल से छुड़ाते।हुंड के महल की एक दासी ने बालक नहुष को बचाकर गुरु वशिष्ठ के सुपुर्द कर दिया। गुरु वशिष्ठ ने नहुष को अपने संरक्षण में बड़ा किया और उसे धर्म, वेद और शस्त्रशस्त्रों की शिक्षा दी। बड़े होकर नहुष ने हुंड का वध कर देवी अशोकसुंदरी को उसके चंगुल से छुड़ाया और उनसे विवाह किया। नहुष ने सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना राज्य स्थापित कर राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। उनकी महानता के कारण ही जब इन्द्र स्वर्ग का सिंहासन छोड़कर भाग गए थे तब समस्त देवताओं और ऋषियों ने नहुष को इन्द्र के पद के लिए चुना।    

  • अम्बरीष की कथा
    2 min 23 sec

    अम्बरीष इक्ष्वाकु वंशी राजा मांधाता के पुत्र और मुचुकुन्द के भाई थे। वो भगवान विष्णु के परम भक्त थे और उनके लिए प्रत्येक एकादशी को व्रत रखते थे। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर विष्णुजी ने अपना सुदर्शन चक्र उन्हें भेंट कर दिया था, जिसकी अम्बरीष विधिवत पूजा करते थे। एक बार ऋषि दुर्वासा अम्बरीष के राज्य में पधारे। अम्बरीष के व्रत खोलने का समय हो गया था और दुर्वासा ऋषि यमुना में स्नान के लिए गये हुए थे। व्रत खोलने का समय बीता जा रहा था इसलिए अम्बरीष ने ऋषि के वापस आने के पहले ही पानी पीकर व्रत खोल दिया। जब दुर्वासा ऋषि वापस आए और उनको इस बात का पता चला तो उनको अत्यंत क्रोध आया। उनको लगा अम्बरीष ने उनके बिना व्रत खोलकर उनकी अवहेलना की है। ऋषि ने अपनी योगविद्या से एक राक्षस को जन्म दिया और उससे अम्बरीष को मारने के लिए कहा। अम्बरीष को इस प्रकार संकट में देखकर सुदर्शन चक्र ने राक्षस का वध कर दिया और ऋषि दुर्वासा को मारने के लिए उनकी ओर बढ़ा। ऋषि दुर्वासा अपनी जान बचाने के लिए ब्रह्मदेव और शिवजी की शरण में गए। दोनों ने ही उनको भगवान विष्णु के पास जाने को कहा। दुर्वासा ऋषि भगवान विष्णु के पास गए और उनसे सुदर्शन को रोकने की विनती की। विष्णुजी ने ऋषि दुर्वासा को अम्बरीष की शरण में जाकर उनसे क्षमा माँगने को कहा। अंततः दुर्वासा ऋषि ने अम्बरीष के सामने नतमस्तक होकर उनसे क्षमा माँगी, तब जाकर सुदर्शन शांत हुए और ऋषि की जान बची।

  • काकभुशुंडि
    2 min 28 sec

    भुशुंडि का जन्म अयोध्या में हुआ था और वो भगवान श्रीराम के परम भक्त थे। उनकी भक्ति की पराकाष्ठा ऐसी थी की उनको राम नाम के सिवा कुछ और सीखने में मन नहीं लगता था। वो अध्ययन के लिए लोमश ऋषि के आश्रम में गए। वो अपने गुरु को बातबात में टोककर राम नाम की बात करने लग जाते। एक बार लोमश ऋषि को उन पर अत्यंत क्रोध आ गया और उन्होंने भुशुंडि को श्राप दे दिया, “तुम इतने कठोर बुद्धि वाले हो कि मेरे दिए हुए ज्ञान को सुनने को भी तैयार नहीं हो। तुम्हारे कौवे जैसी कठोर बुद्धि है और मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि तुम कौवा ही बन जाओ।“इस प्रकार भुशुंडि बन गए काकभुशुंडि। जब भगवान को अपने भक्त की इस दशा का पता चला तो उन्होंने लोमश ऋषि से अपने भक्त को सच्ची भक्ति का ज्ञान देने को कहा। उन्होंने काकभुशुंडि को वरदान दिया कि वो चिरकाल तक रामकथा का पाठ करते रहेंगे और हर काल में प्रभु की लीला का साक्षात दर्शन कर सकेंगे। प्रभु के वरदान से काकभुशुंडि किसी भी देश और काल में भ्रमण कर प्रभु की लीला का साक्षात दर्शन कर सकते हैं। जब गरुड़ देव को प्रभु श्रीराम के देवत्व पर संदेह हो गया था तब काकभुशुंडि ने ही उन्हे रामकथा सुनाई थी।    

  • जगन्नाथ मन्दिर वास्तुकला
    1 min 56 sec

    पुरी के श्रीजगन्नाथ मन्दिर के साथ कई अविश्वसनीय कथाएं जुड़ी हुई हैं। माना जाता है कि मंदिर की पतितपावन ध्वजा हमेशा हवा के विपरीत दिशा में ही लहराती है। दिन के किसी भी समय मंदिर के मुख्य गुम्बद की परछाई कहीं पर भी दिखाई नहीं पड़ती। समुद्र किनारे बसे होने के कारण, इसकी आवाज़ कानों में सुनाई देना बेहद साधारण बात है, परंतु असाधारण बात यह है कि आवाज़ सुनाई तो देगी, लेकिन केवल मंदिर के बाहर तक। जैसे ही कोई मंदिर के मुख्य द्वार के अंदर पांव रखता है, उसे समुद्र की आवाज़ आनी तुरंत बंद हो जाती है। और तो और जहाँ आम तौर पर मंदिरों में कबूतर आदि पक्षियों का वास होता है, वहीं पुरी जगन्नाथ का मंदिर एक मात्र ऐसा मंदिर हैं जहाँ अंदर तो दूर, मंदिर के ऊपर से भी कोई पक्षी कभी नहीं गुजरता। इन सब के अलावा मंदिर के ऊपर लगे विशालकाय सुदर्शन चक्र, जिसे नीलचक्र भी कहा जाता है, उसे पुरी में कहीं से भी देखे जाने पर उसका सामने का भाग ही देखा जा सकता है। मतलब नीलचक्र को बगल से या उसकी धार को देख पाना असंभव है। 

  • मंदिर का विशाल रसोई घर
    2 min 4 sec

    चारों धामों में से भगवान विष्णु का भोजन करने का स्थान पुरी जगन्नाथ का मंदिर है। इसीलिए इस मंदिर में भोजन का सबसे ज्यादा महत्व है। महत्व इतना कि यहाँ के भोजन को प्रसाद नहीं बल्कि महाप्रसाद कहा जाता है। एक समय पर दुनिया का सबसे बड़ा रसोई घर मानी जाने वाली पूरी मंदिर की यह पाकशाला आज भी एक लाख से अधिक भक्तों के लिए रोज खाना प्रस्तुत करती है। भगवान विष्णु के प्रिय छप्पन प्रकार के पकवान, यहाँ एक के ऊपर एक रखकर मिटटी के बर्तनों में पकाये जाते है। सबसे आश्चर्यचकित कर देने वाली बात यह है कि, सबसे पहले ऊपर वाले बर्तन का खाना पक कर तैयार होता है और फिर एक के बाद एक बर्तन नीचे की ओर पकने लगते हैं।कहा जाता है कि ऐसा चमत्कार सिर्फ इसीलिए हो पाता है कि, यहाँ पर स्वयं महालक्ष्मी अपने प्रियतम भगवान के लिए अपने हाथों से इस खाने को पकाती हैं। दिन में चाहे कितने भी भक्त आ जाएं, यह भोजन कभी कम नहीं पड़ता। हर ओड़िया परिवार में किसी सदस्य की मृत्यु का समय निकट आने पर उसे अंतिम निवाले के तौर पर यही महाप्रसाद अन्न खिलाते हैं जिसे निर्माल्य कहा जाता है। 

  • गजानन भेष
    2 min 36 sec

    स्नान पूर्णिमा के दिन किये जाने वाले गजानन भेष, भगवान जगन्नाथ का अपने भक्तों के प्रति प्रेम का एक उदाहरण है। बहुत वर्ष पहले महाराष्ट्र राज्य में गणपति भट्ट नमक एक परम गणेश भक्त रहा करते थे। भगवान गणेश के प्रति उनका समर्पण भाव इतना था कि, वह किसी भी और देवता के होने भर को भी नकार देते थे।  उनके लिए श्रीगणेश ही साक्षात् परंब्रह्म का स्वरुप थे। एक बार पुरी से लौटे उनके एक मित्र ने उनसे भगवान जगन्नाथ की महिमा का बखान किया और उन्हें भी एक बार पुरी हो आने की सलाह दे डाली। लेकिन गणपति तो अटल थे, इसीलिए उन्होंने अपने मित्र का उपहास कर दिया। जैसे जैसे दिन बीतते गए उन्हें और अधिक लोग मिलते गए जो उनके सामने श्रीहरी विष्णु के इस अनूठे जगन्नाथ स्वरुप का वर्णन करते और गणपति उन्हें नकारते जाते।अंत में एक दिन तंग आकर गणपति ने कह डाला कि, वह पुरी चलने के लिए तैयार हैं मगर उनकी एक शर्त है। यदि भगवान जगन्नाथ परंब्रह्म हैं तो वह उन्हें अपने आराध्य गणेश जी के रूप में दर्शन देकर दिखाएँ। लंबी यात्रा के पश्चात गणपति भट्ट देवस्नान पूर्णिमा को पूरी मंदिर पहुंचे। वहां जो उन्होंने देखा उसपर उनकी ऑंखें खुली की खुली रह गई। स्नान के उपरांत भगवान जगन्नाथ के स्थान पर उन्हें नहाये हुए गणेश जी अपने साक्षात् रूप में नजर आये। गणपति भट्ट को अब एहसास हो चुका था कि भगवान जगन्नाथ ही परंब्रह्म हैं और वह उनके परम भक्त बन गए। इसी लीला को स्मरण करते हुए स्नान पूर्णिमा के दिन स्नान के उपरांत भगवान का गजानन भेष किया जाता है।   

  • गणपति के जन्म की कथा
    13 min 3 sec

    श्रीगणेश पुराण के अनुसार गणेश जी के जन्म और उनके हाथी के सर की कथा कुछ इस प्रकार है। देवी पार्वती की दो सखियाँ थीं – जया और विजया। दोनों अत्यंत सदाचारिणी और विवेकमयी थीं, और देवी पार्वती उनका बहुत आदर करती थीं। एक दिन उन सखियों ने पार्वती जी से कहा, “सखी शिवजी के इतने सारे गण हैं और आपका एक भी नहीं। आपका कम से कम एक गण तो होना चाहिये।“ उमा ने आश्चर्यपूर्वक कहा, “क्या कह रही हो सखियों हमारे पास करोड़ों गण हैं, जो सदा हमारी आज्ञा का पालन करने के लिये तत्पर रहते हैं। फिर किसी अन्य गण की क्या आवश्यकता है”सखियों ने कहा, “सभी गण महादेव के हैं। उनकी ही आज्ञा उनके लिए प्रमुख है। नंदी, भृंगी आदि सभी गण आपकी आज्ञा मानते तो हैं पर आशुतोष भगवान की आज्ञा ही उनके लिये सर्वोपरि है। यदि आप कोई आदेश दें और शिवजी उसकी उपेक्षा करें तो कोई भी गण आपका आदेश नहीं मानेगा। आप पूछेंगी को अवश्य ही कोई बहाना बना दिया जाएगा।“देवी पार्वती ने अपनी सखियों भी बात सुनी पर समय के साथ भूल गयीं। एक दिन पार्वती जी स्नान करने जा रही थीं, और उन्होंने नंदी को आदेश दिया कि वो द्वार पर खड़े होकर किसी को भी अंदर न आने दें। नंदी द्वार पर खड़े हो गए। उसी समय शंकर जी वहाँ आ पधारे और अंदर जाने लगे। नदीश्वर ने उनको रोकते हुए कहा, “स्वामी माता अभी स्नान कर रही हैं, इसलिए आप यहीं ठहरने की कृपा करें।“शिवजी नंदी की बात को अनसुना करके अंदर चले गए। भगवान आशुतोष को इस प्रकार अंदर आया देखकर देवी पार्वती को अपनी सखियों की बात याद आ गई। उनको समझ में आ गया की सभी गण शिवजी के सेवक हैं और उनकी आज्ञा ही उनके लिए सर्वोपरि है। नंदी ने आज मेरी इच्छा की उपेक्षा की है। यदि मेरा कोई गण होता तो उसके लिए मेरी इच्छा सर्वोपरि होती। 

  • वरदविनायक –महड़
    2 min 37 sec

    कोल्हापुर जिले के महड़ में स्थित वरदविनायक मंदिर को अष्टविनायकों में चतुर्थ माना जाता है। वरदविनायक, गणेश जी का वर प्रदान करने वाला स्वरूप है जिनका नियमानुसार व्रत करने से सम्पूर्ण मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है। प्रति माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को मध्यान्ह के समय वरदविनायक चतुर्थी या वैनायकी चतुर्थी का व्रत किया जाता है।  पौराणिक मायताओं के अनुसार कौंडिन्य राज्य के राजकुमार रुक्मणगड़ एक बार वन में शिकार करते समय विश्राम करने हेतु ऋषि वचकनवी के आश्रम पहुंचे। रुक्मणगड़ के सौन्दर्य को देख ऋषि की पत्नी मुकुंदा को उनसे प्रेम हो गया और वह राजकुमार से शारीरिक संबध बनाने की इच्छा प्रकट करने लगी। परन्तु सदाचारी रुक्मणगड़ने इस बात को अवैध मानते हुए उन्हें मना कर दिया। उसी समय इस बात से दुखी मुकुंदा को देख कर देवराज इन्द्र के मन में उनके प्रति काम भावना जाग्रत हुई और उन्होंने रुक्मणगड़ से वेश में आकर मुकुंदा के साथ संबंध बनाए। कुछ दिनों के उपरांत इन्द्र के औरस से मुकुंदा ने गृतसंबद नामक एक पुत्र को जन्म दिया। बड़े होने के बाद जब गृतसंबद को इस बात का पता चला की वह एक अवैध संतान है, उसका हृदय दुख से फट पड़ा और अपनी माता को कोसते हुए आश्रम से निकल गया। वह दिन रात अपने भाग्य की निंदा करते हुए वन में भटकने लगा। अंत में थक हार कर गृतसंबद ने अपने मन को शांत करने हेतु भगवान् गणेश की स्तुति करनी शुरू कर दी। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् गणेश ने उसे दर्शन दिया और उसके संतापित हृदय को शांति प्रदान की। गृतसंबदकी प्रार्थना को स्वीकारते हुए भगवान् गणेश उसी स्थान पर वरदविनायक के स्वरूप में स्थपित हुए।

  • विकर्ण | Vikarna
    1 min 2 sec

    धृतराष्ट्र व गांधारी का एक पुत्र था, विकर्ण, जिसने कुरुसभा में हो रहे अन्याय का विरोध किया था। विकर्ण को भलीभांति ज्ञात था की दुर्योधन अधर्म के मार्ग पर है, परन्तु जब बात युद्ध तक पहुँची तो उन्होंने अपने भाइयों के साथ कौरव सेना की ओर से युद्ध में भाग लिया।  जयद्रथ वध के समय भीम को अर्जुन तक पहुँचने से रोकने का कार्य विकर्ण का ही था। भीम ने कई बार विकर्ण को दुर्योधन का साथ छोड़ कर धर्म की ओर आने का न्योता दिया परन्तु विकर्ण नहीं मानें। अंततः भीम से लड़ते हुए विकर्ण की मृत्यु हुई। सौ कौरवों में विकर्ण ही अकेले थे जिनका वध करते समय भीम को दुःख हुआ। VikarnaOne of the sons of Dhritarashtra and Gandhari spoke against the wrongful acts of his brothers in the royal court of Hastinapur. This Kaurav brother was Vikarna. Vikarna knew his brother, Duryodhana was on the wrong path and tried to warn him however when things escalated to a full blown war, he chose the side of his brothers knowing fully well that it was the wrong side. On the 14th day, when Arjuna had vowed to kill Jaydrath, Vikarna was given the task of stopping Bhima from helping Arjuna. Bhima tried to convince his cousin to switch sides, however Vikarna refused. In the end like all his other brothers he was also killed by Bhima, however unlike for other Kaurava, Bhima regretted killing him. 

  • Yuyutshu | युयुत्सु
    1 min 5 sec

    महाराज धृतराष्ट्र को गांधारी की एक दासी सुगधा से भी एक पुत्र हुआ, जिसका नाम युयुत्सु था। युयुत्सु अन्य कौरवों से अलग अत्यंत निष्ठावान व धर्मपरायण थे। युयुत्सु हमेशा से ही दुर्योधन के अधर्मो का विरोध करते आये थे और उसके द्वारा रचे गए हर षड़यंत्र के बारे में पांडवों को सचेत करते।  यद्यपि विकर्ण और युयुत्सु दोनों ही दुर्योधन के द्वारा सम्पादित अनाचार के विरोधी थे, केवल युयुत्सु ने ही अंत में कौरवों का साथ छोड़ देने का निश्चय किया। युयुत्सु से महाभारत का युद्ध पांडवों की तरफ से लड़ा था। वे युद्ध में जीवित बचने वाले धृतराष्ट्र के इकलौते पुत्र थे जो कि परीक्षित के राजा बनने पर उनके संरक्षक के रूप में नियुक्त हुए।YuyutsuDhritarshtra had one son from Gandhari’s maid, Yuyutsu. Yuyutsu was different from other Kaurava brothers and chose to be on the right side of Dharma all his life. He was the one who would warn Pandava brothers regarding Duryodhan’s schemes to harm them as a kid.In the Mahabharat war he chose to fight against his brothers and chose to side with Pandavas. He was the only son of Dhritarashtra to survive the great war.In the end when Parikshit was made the king of Hastinapur, Yuyutsu was appointed his guardian.  

  • कृतवर्मा | Kritavarma
    1 min 14 sec

    कुरुक्षेत्र युद्ध के पश्चात कौरव सेना की ओर से लड़ने वाले केवल तीन महारथी जीवित बचे थे कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा। कृतवर्मा श्रीकृष्ण के नारायणी सेना के सेनापति थे और दुर्योधन के मित्र थे। श्रीकृष्ण के दुर्योधन को दिए हुए वचन के अनुसार कृतवर्मा ने कुरुक्षेत्र युद्ध में कौरवों की ओर से युद्ध किया। युद्ध के अंतिम दिन पांडव पुत्रों की नींद में हत्या करने में कृतवर्मा ने अश्वत्थामा का सहयोग किया था।  वर्षों बाद एक बाद समस्त यादव योद्धा एक साथ उपस्थित हुए थे तब सात्यकि ने इसी प्रसंग को उठाते हुए कृतवर्मा का परिहास किया, तब कृतवर्मा ने भूरिश्रवा वध की बात बोलकर सात्यकि को ताना मारा। इस कहासुनी ने गंभीर रूप धारण कर लिया और अंततः यदुवंश के सर्वनाश का कारण बना।  KritavarmaAt the end of the Mahabharat war, only three warriors from Kaurava side survived Kripacharya, Ashwatthama and Kritavarma.Kritavarma was the commander of Shrikrishna’s Narayani sena and Duryodhan’s friend. Because of Shrikrishna’s promise to Duryodhan, he fought for the Kauravas in the great war. On the last day of the battle he accompanied Ashwatthama inside the Pandav camp and helped him in killing the five sleeping sons of Draupadi. Many years later when Kritavarma taunted Satyaki for the unfair killing of Bhurishrava, Satyaki called him out for killing helpless Uppandavas. This escalated into a full blown fight with various Yadav warriors taking sides. This fight resulted in the destruction of the Yadav clan.  

  • एक और वासुदेव | One more Vasudev
    1 min 23 sec

    भगवान श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव को उनकी एक और पत्नी, काशी की राजकुमारी सुतनु से एक पुत्र हुआ जिसका नाम पौंड्रक था। वसुदेव के देवकी से विवाह के बाद वर्षों तक कंस के कारागार में रहने के कारण पौंड्रक का पालन पोषण उसके ननिहाल काशी में ही हुआ और वो बाद में काशी और पुंड्र का राजा बना। पौंड्रक श्रीकृष्ण के परम शत्रु जरासंध का मित्र था और स्वयं को भगवान विष्णु का असली अवतार बताते हुए श्रीकृष्ण की ही भांति वस्त्र धारण कर खुद को वासुदेव बताता था। श्रीकृष्ण का सौतेला भाई होने के कारण उन्होंने कई बार पौंड्रक को समझाने की कोशिश की, परन्तु वह बाज नहीं आया। अंततः श्रीकृष्ण ने युद्धभूमि में पौंड्रक का वध कर दिया और अपने सुदर्शन चक्र से काशी नगर के चारों ओर आग लगाकर पौंड्रक को भगवान मानकर पूजने वाले पुजारियों को मृत्युदंड दिया। One more VasudevShrikrishna’s father Vasudev had a son from one of his wives, Sutanu, the princess of Kashi. His name was Paundrak. Since Vasudev spent many years inside Kansa’s prison after his marriage with Devaki, Paundrak grew up in Kashi and inherited the throne. Paundrak was an ally of Shrikrishna’s sworn enemy Jarasandh. He would call himself the real Shrikrishna and imitate him in every way, including calling himself Vasudev. Shrikrishna tried his best to talk him out of this charade but he did not listen. Eventually Shrikrishna killed him in battle and created a circle of fire around his kingdom trapping and killing the priests who would worship Paundrak as Shrikrishna. 

  • शिशुपाल (Shishupal)
    1 min 49 sec

     सनकादिक मुनियों के श्राप के कारण वैकुंठ के द्वारपाल जय और विजय द्वापर युग में श्रीकृष्ण के परम शत्रु शिशुपाल और दन्तवक्र के रूप में पैदा हुए।श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव जी की बहन श्रुतश्रवा चेदिनरेश दमघोष की पत्नी थीं। उनका पुत्र था शिशुपाल। जब शिशुपाल का जन्म हुआ तब उसके तीन आँखें और चार हाथ थे। जन्म के समय हुई एक आकाशवाणी के अनुसार उस बालक के अतिरिक्त अंग जिसके भी स्पर्श से विलुप्त हो जाएंगे, उसी के हाथों उसका वध होगा। श्रीकृष्ण के गोद में लेते ही बालक शिशुपाल के दो अतिरिक्त हाथ नीचे गिर गए और तीसरी आँख विलुप्त हो गयी। उसी समय श्रीकृष्ण की बुआ ने उनसे वचन लिया कि तुम मेरे पुत्र की सौ गलतियाँ क्षमा करोगे। शिशुपाल जरासंध का मित्र था और मथुरा पर बारबार किए गए आक्रमणों में उसका साथी भी। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय श्रीकृष्ण को प्रथम पूज्य चुने जाने के विरोध में शिशुपाल श्रीकृष्ण और सभा में उपस्थित अन्य लोगों को अपशब्द कहने लगा। उसकी सौ गलतियाँ पूरी होने के बाद श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका वध कर उसका उद्धार किया और पुनः वैकुंठलोक भेज दिया। ShishupalDue to the curse of the four Kumars, the gatekeepers of Vaikuntha Jay and Vijay were born as Shrikrishna’s sworn enemies Shishupal and Dantvakra in Dwapar Yuga. Shrikrishna’s father Vasudev’s sister Shrutashrava was married to the king of Chedi, and Shishupal was their son. When Shishupal was born he was born with a third eye and two extra hands. After his birth a divine voice announced that whoever’s touch can cause the baby to drop his extra limbs will kill him.When Shrikrishna came to visit his aunt and lifted his cousin in his lap, his third eye disappeared and extra limbs dropped on the floor. At that moment Shishupal’s mother made Shrikrishna promise that he will forgive one hundred mistakes of her son. Shishupal grew up to become Jarasandh’s ally and helped him in attacking Shrikrishna on many occasions. During Yudhishthir’s Rajsuya yagya when Shrikrishna was given the honor of first arghya, Shishupal started abusing Shrikrishna and others present in the assembly. After his hundred mistakes Shrikrishna relieved him from his curse by cutting his head and sent him back to Vaikunthalok.

  • लक्ष्मणा (Lakshmana)

    लक्ष्मणा मद्र की राजकुमारी थीं और श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं तथा उनसे विवाह करना चाहती थीं। जब लक्ष्मणा के पिता ने अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर का आयोजन किया तो धनुर्विद्या की परीक्षा रखी। लक्ष्मणा के स्वयंवर में उपस्थित जरासंध और दुर्योधन परीक्षा में असफल रहे। अर्जुन ने अपने मित्र के मन की बात जानकर जान बूझकर निशाना नहीं भेदा और भीम ने परीक्षा में भाग लेने से ही मना कर दिया। अंततः श्रीकृष्ण ने सही निशाना लगाकर लक्ष्मणा से विवाह किया। लक्ष्मणा ने अपने स्वयंवर की यह कथा द्रौपदी को सुनाई थी। लक्ष्मणा से श्रीकृष्ण को प्रघोष, गत्रवण इत्यादि दस पुत्र हुए। LakshmanaLakshmana was the princess of Madra kingdom and was in love with Shrikrishna. Lakshmana’s father organized an archery competition to select a suitable groom for his daughter. Everyone in attendance including Jarasandh and Duryodhan failed the test. When Arjuna found out that his friend Shrikrishna wanted to marry Lakshmana, he deliberately lost the competition and Bhima decided to not participate at all. In the end Shrikrishna won the competition and married Lakshmana. When Shrikrishna came to meet Kunti and Pandav in Indraprastha along with his wife, this story was told by Lakshmana to Draupadi. Lakshmana gave Shrikrishna ten sons. 

  • अरुणाचलेश्वर शिव मंदिर (Arunachalesvara Temple)
    1 min 12 sec

    तमिलनाडु के अन्नामलाई पहाड़ के पददेश पर स्थित यह मंदिर महादेव के अग्नि लिंग स्वरुप को समर्पित है. कहा जाता है की शिवजी यहाँ माता पार्वती के साथ अपने अर्धनारीश्वर रूप में वास करते हैं. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच में कौन बड़ा है इस बात को लेकर बहस छिड़ गयी, तब यहीं पर ही भगवान शंकर अपने अनंत ज्योति स्तम्भ के रूप में प्रकट हुए थे.जब ब्रह्मा और विष्णु ने उस ज्योति स्तम्भ का आदि अंत खोजना चाहा, तो वह दोनों देवताओं को नहीं मिला। परन्तु ब्रह्मा ने अपनी श्रेष्ठता दिखाने हेतु यह कह दिया कि वह स्तम्भ के अंत तक पहुँचने में सफल हुए हैं, इस झूठ से क्रोधित होकर महादेव ने इसी स्थान पर उनका एक मस्तक काट दिया था. Arunachalesvara TempleSituated at the base of Annamalai Hills in Tamilnadu, this temple is dedicated to the Agni Linga form of Bhagwaan Shankar. It is believed that Mahadev graces this place in his Ardhanarishwar form.  According to the Pauranik text, once Bhagwaan Brahma and Bhagwaan Vishnu got into a debate over who is more important for the functioning of the universe. When the debate could not be settled, Mahadev appeared between them in the form of an endless pillar of fire.  Both Brahmadev and Bhagwaan Vishu could not locate the ends of this fire pillar, however in order to prove his superiority Brahmadev lied. Mahadev got angry at this lie. He took the form of KaalBhairav and cut one of the heads of Brahmadev.  

  • पाराशर ऋषि का जन्म (Parashara Rishi’s Birth)
    1 min 42 sec

    एक बार ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के पुत्र शक्ति महर्षि एक सँकरे पहाड़ी रास्ते से कहीं जा रहे थे। रास्ते में उनकी भेंट सामने से आते हुए राजा कल्माषपाद से हुई। कौन पहले रस्ता पार करे इस बात पर दोनों में विवाद छिड़ गया। दोनों का विवाद इतना बढ़ गया की कल्माषपाद शक्ति मुनि को कोड़े मारने लगे। क्रोध में आकर शक्ति महर्षि ने राजा को राक्षस बन जाने का शाप दे दिया। राक्षस बने कल्माषपाद ने शक्ति महर्षि को खा लिया और बाद में ऋषि विश्वामित्र के प्रभाव में वशिष्ठ ऋषि के अन्य पुत्रों को भी मार दिया। जब वशिष्ठ ऋषि को अपने सभी पुत्रों की मृत्यु का पता चला तो दुःख के कारण उन्होंने आत्महत्या करने की सोची, परन्तु अनेक प्रयासों के बाद भी विफल रहे। जब वशिष्ठ ऋषि अपने आश्रम वापस आए तो उन्होंने शक्ति महर्षि की पानी अदृश्यन्ति को गर्भावस्था में पाया। उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया जो अपने दादा के साथ उनके आश्रम में बड़ा होने लगा। अपने पौत्र को देखकर वशिष्ठ ऋषि का शोक मिट गया और उनको जीवन जीने की नई प्रेरणा मिली, इसीलिए उन्होंने बालक कानाम पाराशर रखा। Parashara Rishi’s BirthOnce Brahmarshi Vashishtha’s eldest son Shakti Maharshi was going somewhere on a narrow path. On the way he met King Kalmashpada of Ikshwaku dynasty. They both got into an argument over who has the right to cross first. The argument escalated to a level that the King hit the Rishi with a whip. The Angry rishi cursed the king to become a demon.The demon king under the influence of rishi Vishwamitra killed and ate Shakti Maharshi and his brothers. Rishi Vashishtha was so grief stricken that he decided to end his life. After multiple failed attempts at ending his life he met Shakti Maharshi’s wife Adrushyanti, who was pregnant. She gave birth to a boy, who grew up in the hermitage of his grandfather Vashishtha, thinking he was his father. The boy made Vashishtha rishi forget about his grief and gave him a reason to live, thus he was named Parashara.     

  • पाराशर ऋषि का यज्ञ |Parashara’s Yajna
    1 min 17 sec

    Parashara grew up thinking, his grandfather Brahmarshi Vashishtha was his father. When he found out the truth and that his father and uncles were killed by a demon under the influence of rishi Vishwamitra, he decided to conduct a yajna to exterminate all the demons from the world. Rakshasa from all over the world started burning in the fire of Parashara’s yajna. When Pulastya rishi noticed this destruction he requested Vashishtha rishi to stop his grandson. Rishi Vashishtha told Parashara rishi to stop his yajna for it was not correct to blame all the Rakshasa for the death of his father. Parashara rishi eventually calmed down and stopped the yajna. Pulastya rishi blessed the rishi with divine knowledge. पाराशर ऋषि का यज्ञपाराशर ऋषि अपने दादा वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में बड़े होने लगे और उन्हें ही अपना पिता समझते थे। जब उन्हें अपने पिता का सत्य पता चला कि उनके पिता और चाचाओं की हत्या एक राक्षस के हाथों हुई, उनको बड़ा क्रोध आया और उन्होंने एक यज्ञ कर सभी राक्षसों को भस्म करने का निश्चय किया। पाराशर ऋषि के यज्ञ के कारण विश्व के सभी राक्षस भस्म होने लगे। जब पुलस्त्य ऋषि को इसका पता चला तो उन्होंने वशिष्ठ ऋषि से उनके पौत्र को रोकने को कहा। वशिष्ठ ऋषि ने पाराशर मुनि को समझाया की अपने पिता की मृत्यु का दण्ड समस्त राक्षस कुल को देना सही नहीं है। वशिष्ठ ऋषि के समझाने पर पाराशर ऋषि का क्रोध शान्त हुआ और उन्होंने अपना यज्ञ रोक दिया। इस बात से प्रसन्न होकर पुलस्त्य ऋषि ने उनको दैवी ज्ञान प्रदान किया।  

  • उर्वशी का अर्जुन को श्राप | Urvashi’s Curse to Arjuna
    1 min 16 sec

    महाभारत युद्ध से पहले जब अर्जुन दिव्यास्त्र प्राप्त करने स्वर्ग गए तो वहां अप्सरा उर्वशी उन पर मोहित हो गयी। अर्जुन ने जब उन्हें अपनी माता के समान बताया तो यह सुनकर उर्वशी क्रोधित हो गयी और अर्जुन को श्राप दे डाला कि तुम नपुंसक की भांति बात कर रहे हो, इसलिए तुम नपुंसक हो जाओगे और तुम्हें स्त्रियों के बीच नर्तक बनकर रहना पड़ेगा। व्याकुल होकर जब ये बात अर्जुन ने देवराज इन्द्र को बताई तो उन्होनें उर्वशी को समझाकर इस श्राप की अवधि एक साल करा दी क्योंकि श्राप वापस नहीं हो पाता। तब इन्द्र ने अर्जुन को कहा कि ये श्राप तुम्हारे अज्ञात वास के दौरान तुम्हारे बहुत काम आएगा। तुम्हें कोई पहचान नहीं पाएगा।इसी श्राप के कारण पाण्डवों के अज्ञातवास का एक वर्ष अर्जुन ने नर्तकी बृहन्नला के रूप में बिताया। Urvashi’s Curse to ArjunaBefore the Kurukshetra war Arjuna visited Alkapuri to seek divine weapons from Gods to prepare for the inevitable war. There he met Apsara Urvashi, who got infatuated with him and made advances towards him. Arjuna however, stopped her saying he considers Urvashi like his mother and cannot respond to her advances. Hearing this Urvashi got angry and cursed Arjuna to become a neuter and live among women as a dancer. When Arjuna told Indra about this curse, Indra convinced Urvashi to reduce the period of her curse to one year, so that it can help Arjuna to liveing in disguise during their one year of incognito period. Because of this curse Arjuna lived in Matsya kingdom as Brihannala during their one year of Agyatvas.  

  • हनुमान जी और भीम (Hanuman ji Vs Bheema)
    1 min 31 sec

    हनुमान जी और महाबली भीम दोनों वायुदेव पवन के पुत्र हैं। जब हनुमान जी ने अपने छोटे भाई में अपने बल का घमण्ड पनपते देखा तो वो उनको सीख सिखाने के लिए प्रकट हुए। एक बार पाण्डवों के वनवास के समय हनुमान जी भीम के रास्ते में एक वृद्ध वानर के रूप में प्रकट हुए। वानर जंगल में एक संकरे मार्ग पर विश्राम कर रहा था और उसकी पूँछ रास्ता रोक रही थी। जब भीम उस मार्ग से निकले तो उन्होंने वानर से अपनी पूँछ मार्ग से हटाने को कहा। वानर ने भीम से स्वयं ही पूँछ हटाने के लिए कहा। भीम ने पूँछ को हटाने का भरसक प्रयास किया परन्तु उसे थोड़ा सा भी हिला नहीं सके। तब हनुमान जी ने अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट होकर भीम को ज्ञान दिया और अपने बल पर अभिमान नहीं करने को कहा। हनुमान जी ने भीम को आशीर्वाद दिया और युद्ध में अर्जुन के रथ की ध्वजा में विराजमान होकर पाण्डवों को युद्ध में विजयी होने का आशीष दिया।Hanuman ji Vs BheemaHanuman ji and Bheema were both sons of the wind God, Pavan. So, when Hanuman ji sensed his younger brother becoming too proud of his physical prowess, he decided to teach him a lesson in humility. Once during the Pandava’s exile Hanumanji appeared on the path of Bheema, disguised as an old monkey. The old monkey was resting on a narrow path in the jungle, with his tail blocking the way. When Bheema was passing through, he asked the monkey to remove his tail from the path so that he can cross. The monkey told Bheema to do it himself.Bheema tried his best but despite using all his strength, he could not move the tail even by an inch. It is then the monkey revealed himself as Hanumanji and taught Bheema a lesson in humility. Bheema learned his lesson and sought blessings from his elder brother.Bajarangbali blessed Bheema and promised to grace the chariot of Arjuna with his divine presence in the form of a monkey banner.  

  • हनुमान जी और महादेव | Mahadev Vs Hanuman ji
    1 min 34 sec

    हनुमान जी और महादेवपद्म पुराण के अनुसार श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के समय, देवपुर के राजा और महादेव के परम भक्त राजा वीरमणि ने यज्ञ के अश्व को रोक लिया। इस कारण शत्रुघ्न और भरत के पुत्र पुष्कल के नेतृत्व में श्रीराम की सेना का वीरमणि की सेना से युद्ध छिड़ गया। जब वीरमणि युद्ध में हारने लगे तो उन्होंने महादेव से सहायता मांगी। अपने भक्त की सहायता के लिए महादेव भी वीरभद्र और नंदी के साथ युद्ध में आ गए। भीषण युद्ध में शत्रुघ्न और पुष्कल मूर्छित हो गए तब हनुमानजी ने श्रीराम का नाम लेकर महादेव का सामना किया। दोनों के बीच कई दिनों तक युद्ध चला और अन्त में शिवजी ने हनुमान जी पर अपने पशुपत अस्त्र से प्रहार किया। ब्रह्मदेव के वरदान के कारण हनुमान जी पर पशुपत अस्त्र को कोई असर नहीं हुआ। अंततः श्रीराम स्वयं युद्धभूमि पधारे और इस युद्ध को रोक दिया। भगवान शंकर ने वीरमणि से श्रीराम के चरणों में स्वयं को समर्पित करने को कहा और उनको आशीर्वाद देकर युद्ध में आहत सभी लोगों को पुनर्जीवित कर दिया। Mahadev Vs Hanuman ji According to the Padma Purana, during Shriram’s Ashwamedh yagya, the sacrificial horse was stopped by Mahadev’s ardent devotee King Veermani of Devpur. This resulted into a massive battle between Shriram’s army lead by Shatrughna and Bharat’s son Pushkal along with Bajarangbali. When Veermani’s army started losing he requested for Mahadev’s help. Mahadev heard the cries of his devotee and came to his rescue along with Veerbhadra and Nandi. Massive battle ensued, which resulted in Pushkal and Shatrughna getting unconscious. At this point Hanuman ji remembered the name of Shriram and faced Mahadev.  The duel went on for many days, in the end Shivaji fired his Pashupat missile, which was absorbed by Hanuman ji due to Brahmadev’s boon to him.  Eventually Shriram came to the battlefield to stop this battle. Shivaji asked Veermani to surrender to Shriram and revived everyone. 

  • अजामिल की कथा | Story of Ajamila
    1 min 42 sec

    प्राचीन काल में कान्यकुब्ज नगर में अजामिल नामक एक ब्राह्मण रहता था। अजामिल सब सदाचार भूलकर जुआ और लूटमार करके अपना घर चलाता था। इस प्रकार दुराचार करते हुए उसका सारा जीवन बीत गया। अजामिल को दस पुत्र हुए, जिनमें सबसे छोटे पुत्र का नाम था “नारायण”। अजामिल को वह बहुत प्रिय था और अजामिल अपना समय उसके साथ खेलनेखिलाने में बिताने लगा। जब अजामिल का अन्त समय आया तो यम दूत उसे लेने आए। यमदूतों को देखकर अजामिल डर गया और उसने देखा उसका पुत्र नारायण थोड़ी दूर पर खेल रहा था। उसको देखकर अजामिल जोरजोर से नारायणनारायण बुलाने लगा। भगवान विष्णु के पार्षदों ने जब अजामिल के मुँह से अपने स्वामी की पुकार सुनी तो वहाँ पहुँच गए और यमदूतों से उसे छोड़ने के लिए कहा। यमदूत अजामिल को छोड़कर चले गए। भगवान के पार्षदों और यमदूतों के संवाद को सुनकर अजामिल का चित्त परिवर्तित हो गया और उसे व्यसन त्यागकर हरिद्वार जाकर भगवदभजन में अपना मन लगाया और अन्त में भगवान के पार्षदों के साथ वैकुंठलोक को प्राप्त हुआ। In the ancient times in the city of Kanyakubja, lived a brahmin named Ajamila. Ajamila had no qualities of a Brahmin, and he instead he spent his time in doing wrong by others. He would rob people or con them to earn a livelihood. He spent all his life like this. He had ten sons. He loved the youngest one among them the most and named him “Narayana”. He would spend his old age playing with Narayana and would not eat before feeding young Narayana. When Ajamila’s time came, agents of Yama appeared before him to take him to Mrityuloka. Ajamila got scared and started calling out to his son, Narayana… Narayana. When agents of Bhagwaan Vishnu heard the sound of Narayana, they rushed there and stopped the Yamadutas from taking him away.Ajamila heard the conversation between the agents of Narayana and Yamadutas. This conversation made him realise his wrong ways. He became a changed man. He left all his vices and started spending time in praying to Bhagwaan. In the end, because of these good deeds, he found a place in Vaikunthaloka.  

  • विश्वरूप | Vishwarupa
    1 min 23 sec

    कश्यप ऋषि की पत्नी देवी अदिति को विवस्वान, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इन्द्र और त्रिविक्रम पुत्र हुए। ये बारह आदित्य कहलाये। इनमें से त्वष्टा का विवाह दैत्यों की छोटी बहन रचना से हुआ, जिनसे उनको दो पुत्र हुए – सन्निवेश और विश्वरूप। जब देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र से अपमानित होकर देवताओं का परित्याग कर दिया था, तब देवताओं ने विश्वरूप को ही अपना पुरोहित नियुक्त किया था। दैत्यों के भांजे होने के कारण, विश्वरूप देवताओं के लिए किए गए यज्ञों का आधा ताप दैत्यों को दे देते थे, इससे क्रोधित होकर इन्द्र ने उनका वध कर दिया। इन्द्र से अपने पुत्र के वध का बदला लेने के लिए त्वष्टा ने यज्ञ से वृत्र को जन्म दिया जो इन्द्र के स्वर्ग का सिंहासन छोड़ने का कारण बना। VishwarupaKashyap rishi’s wife devi Aditi had twelve sons, Vivaswana, Aryama, Pusha, Twashta, Savita, Bhag, Dhata, Vidhata, Varuna, Mitra, Indra and Trivikrama. विवस्वान, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इन्द्र और त्रिविक्रमTogether they are called the twelve Adityas.Twashta was married to rachana, the younger sister of the Daityas, Rachana and they had two sons Sannivesha and Vishwarupa. सन्निवेश और विश्वरूपWhen Devguru Brihaspati abandoned the Gods because of an insult by Indra, the Gods decided to appoint Vishwarupa as their preceptor. Because of histheir relationship with the Daityas, Vishwarupa would allocate half of the punya he earned from the yagyas conducted for the Devtas to the daityas. This angered Indra, the King of Gods, and who in a fit of rage he beheaded Vishwarupa.To avenge his son’s death Twashta created Vritra from a fire sacrifice and ordered him to kill Indra

  • कुबेर का मानमर्दन | Teaching Kubera a Lesson
    2 min 13 sec

    धन और समृद्धि के देवता कुबेर को अपनी समृद्धि पर बड़ा घमण्ड हो गया। वो अपना वैभव सभी देवताओं को दिखाने के लिए उनको अपने महल में आमंत्रित कर बड़े ही धूमधाम से उनका सत्कार करते। उन्होंने महादेव और पार्वती माता को भी कई बार आमंत्रित किया पर वो कभी कुबेर के महल नहीं पधारे। अंततः कुबेर स्वयं कैलाश जाकर महादेव को रत्न और आभूषण समर्पित करने लगे। महादेव को इन सब सांसारिक वस्तुओं का क्या मोह, परन्तु उन्होंने कुबेर के घमण्ड को जान लिया और उनको सीख सिखाने की सोची। अगली बार जब कुबेर ने महादेव को आमंत्रित किया तो महादेव ने कहा, “मैं और उमा तो नहीं आयेंगे परन्तु हमारा पुत्र गणेश अवश्य तुम्हारे समारोह में उपस्थित होगा।“कुबेर ने गणपति को अपने महल में सत्कार के साथ बिठाया और भोजन प्रस्तुत किया। गणपति ने सारा भोजन खाकर और भोजन माँगा। कुबेर ने और भोजन परोसा, गणपति वह भी खा गए पर उन्ही क्षुधा शान्त नहीं हुई। विनायक की भूख शान्त करने के प्रयास में कुबेर का सारा कोश खाली हो गया पर गणपति की भूख अभी भी नहीं मिटी। कुबेर ने भागकर महादेव और माता पार्वती की शरण ली और गणपति की भूख शान्त करने के लिए प्रार्थना की। कुबेर को सीख मिल चुकी थी, ऐसा सोचकर माता पार्वती ने प्रेम से बनाया हुआ एक मोदक गणपति को दिया, जिसे खाकर तुरंत ही उनकी भूख मिट गयी। कुबेर को अपनी भूल पता चल गयी और उन्होंने अपने सांसारिक वैभव पर घमण्ड करना छोड़ दिया। Teaching Kubera a LessonOnce the God of wealth Kubera became very proud of his prosperity. He started throwing lavish parties to host all the Gods, to showcase his wealth. He invited Mahadeva many times, but Mahadev he refused. Kubera started visiting Mahadeva at Kailash and started offering Him jewels and ornaments. Mahadeva was not impressed by such offerings, but he sensed Kubera’s arrogance and decided to teach him a lesson.Next time when Kubera invited Mahadeva for his party, Mahadeva declined the invitation as usual, however he suggested his son Ganesh would visit instead. Kubera welcomed Ganapati in his lavish abode and offered him food. Ganapati ate whatever Kubera offered, but was still not satisfied, so he asked for more food. Kubera served more food, which was also consumed by Ganapati. Vinayak kept eating whatever Kubera offered and still demanded for more. In the end Kubera ran out of food to serve, but Ganapati was still hungry. To protect himself from Ganapati’s wrath, Kubera went running to Mahadeva and requested for his help. Knowing that he had learned his lesson, Mahadev suggested that Kuberhe prays to Mata Parvati. Kubera pleaded to Mata Parvati forto help.Mata Parvati went to Kubera’s palace and offered a Modak to Ganapati. Ganapati ate the Modak offered by his mother and was instantly full. Kubera learned a lesson in humility and never again bragged about his possessions.  

  • ब्रह्मर्षि विश्वामित्र | Brahmarshi Vishwamitra
    1 min 42 sec

    ब्रह्मर्षि विश्वामित्र प्राचीन भारत के ज्ञानी ऋषियों में सबसे महान और शक्तिशाली माने जाते हैं। एक बार उन्होंने देवताओं से क्रोधित होकर ब्रह्मदेव की सृष्टि से अलग अपने अलग विश्व की रचना प्रारम्भ कर दी थी।  विश्वामित्र जी जन्म से ब्राह्मण नहीं थे। वो राजा गाधि के पुत्र राजकुमार कौशिक थे। उन्होंने गुरु वशिष्ठ से प्रतिस्पर्धा के कारण वर्षों तपस्या कर ब्रह्मर्षि की पदवी प्राप्त की और विश्वामित्र के नाम से प्रसिद्ध हुए।  विश्वामित्र जी की बड़ी बहन सत्यवती जमदग्नि ऋषि की माता और भगवान् परशुराम की दादी थी।

  • ऋषि, जिन्होंने सूर्य को तीर मारने का फैसला किया।
    1 min 35 sec

    सूर्यदेव और जमदग्नि ऋषिएक बार जमदग्नि ऋषि ने सूर्य की गर्मी से परेशान होकर उनको दंड देने की सोची।  सूर्यदेव भेष बदलकर महान ऋषि के आश्रम आये और उनसे पूछा की वो सूर्य को कैसे दंड देंगे।  जमदग्नि ऋषि ने कहा जब दोपहर के समय सूर्य अपने शिखर पर होता है उस समय मैं उसे अपने तीर से निशाना बनाऊँगा।  सूर्यदेव ने अपने असली रूप को दिखाते हुए ऋषि से इतनी गर्मी करने के लिए क्षमा माँगी और उनको पादुकाएं और छतरी बनाने का सुझाव दिया।

  • हनुमानपुत्र "मकरध्वज"
    2 min 44 sec

    यह बात सभी जानते हैं कि हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी थे, लेकिन रामायण के कई संस्करणों में हनुमान जी के पुत्र का वर्णन मिलता है।  लंकादहन के बाद जब हनुमान जी वापस लौट रहे थे, तब उन्होंने अपनी गर्मी शांत करने के लिए समुद्र में डुबकी ली। उसी समय उनका पसीना एक मछली जलजंतु के मुँह में चला गया।  बाद में उस मछली को पकड़कर अहिरावण के पास पाताललोक लाया गया। जब उस मछली का पेट फाड़ा गया तो उससे बलशाली मकरध्वज उत्पन्न हुए।  मकरध्वज को देखकर अहिरावण ने उन्हें अपने पास रख लिया और अपने महल की पहरेदारी करने का काम सौंपा।  जब अहिरावण भगवान् श्रीराम और लक्ष्मण का अपहरण कर अपने साथ पाताललोक ले गया और हनुमान जी उनको ढूंढते हुए वहाँ पहुंचे तब उनकी भेंट मकरध्वज से हुई।  हनुमान जी को अपने पुत्र से मिलकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ। परन्तु मकरध्वज ने उनको अहिरावण के महल के अंदर नहीं जाने दिया तो दोनों के बीच भीषण द्वन्द्व हुआ और हनुमान जी ने मकरध्वज को हराकर पाताललोक में प्रवेश किया और अहिरावण को मारकर भगवान् श्रीराम और लक्ष्मण को बचाया।  बाद में श्रीराम के आशीर्वाद से उन्होंने मकरध्वज को पाताललोक का राजा नियुक्त कर दिया।

  • हनुमान जी और भारत जी Hanuman ji Vs Bharat ji
    1 min 34 sec

    जब मेघनाद से युद्ध के समय लक्ष्मण भी मूर्छित हो गए तब सुषेण वैद्य ने उनके उपचार के लिए संजीवनी बूटी लाने का सुझाव दिया। द्रोण पर्वत से संजीवनी बूटी लाने का कार्य हनुमान जी को दिया गया, क्योंकि उनकी असीमित गति के कारण एक वही इस कार्य को समय पर करने में समर्थ थे। जब हनुमान जी द्रोणगिरि पर पहुँचे तो आसुरी माया के कारण संजीवनी बूटी को पहचान नहीं सके और इसलिए पूरा द्रोण पर्वत ही अपने साथ लेकर उड़ चले। रास्ते में जब भरत जी ने अयोध्या के ऊपर से हनुमान जी को द्रोण पर्वत ले जाते हुए देखा तो उनको कोई दैत्य समझकर भगवान राम का नाम लेकर बाण चला दिया। श्रीराम के नाम का आदर करते हुए बजरंगबली ले उस बाण को नहीं रोका और आहत होकर नीचे गिर गए। तब हनुमानजी ने भारत जी को लंका में हो रहे युद्ध से लेकर लक्ष्मण की मूर्छा तक की सारी बात बताई। भरत जी को अपने किए पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने अपने तीर पर सवार होकर हनुमान जी को शीघ्र लंका पहुँचाने का सुझाव दिया। Hanuman ji Vs Bharat jiWhen Lakshman ji was lying unconscious on the battlefield after a duel with Meghnad, Sushena Vaidya was called to treat him. The healer of the monkey clan needed Sanjivani herb from Dronagiri mountain to revive Lakshman ji. Because of his speed, Hanuman ji was given the task tohe retrieve the lifesaving herb. When Hanuman ji reached the mountain, he could not identify the herb, so without losing much time, he decided to carry the entire mountain with him.When Hanuman ji was flying in the sky carrying the entire Dronagiri mountain, he was spotted by Bharat ji, who was the caretaker of Ayodhya in the absence of Shriram.Bharat ji mistook Hanuman ji for some demon who was trying to attack Ayodhya, so he shot an arrow at him. Since the arrow was shot with the name of Shriram, hanumanjihe did not counter it and got hurt.When Hanuman ji fell on the ground, he narrated the entire incident to Bharat ji about the battle going on at Lanka and Lakshman’s coma. Bharat ji regretted his action and offered his help in sending Hanuman ji to Lanka faster.  

  • दक्ष प्रजापति का पुनर्जन्म | Rebirth of Daksha Prajapati
    1 min 18 sec

    दक्ष प्रजापति का पुनर्जन्ममहाराज पृथु के बाद उनके पुत्र विजिताश्व राजा हुए, उनके पुत्र हविर्धान के पुत्र थे बर्हिषद। बर्हिषद का विवाह समुद्र की कन्या शतद्रुति से हुआ, जिनसे उनको दस पुत्र प्राप्त हुए। इन दस पुत्रों को प्रचेता कहते हैं। इन प्रचेताओं ने कई वर्षों तक महादेव और नारायण की तपस्या की।नारायण की आज्ञा से इन्होंने कण्डु ऋषि और अप्सरा प्रमलोचा की पुत्री मारिषा, जिसका पालन पोषण वृक्षों और चन्द्र ने किया था, से विवाह किया। मारिषा के गर्भ से ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति ने महादेव की अवज्ञा के कारण अपना पूर्व शरीर त्यागकर पुनर्जन्म लिया। अपने कार्य में कुशल होने के कारण इनका भी नाम दक्ष पड़ा और चाक्षुष मन्वन्तर में इन्होंने पुनः नई प्रजा उत्पन्न की।Rebirth of Daksha PrajapatiAfter Maharaj Prithu, his son Vijitashwa विजिताश्व became the king. His son was Havirdhan हविर्धान and grandson Bahirshad. बर्हिषद Bahirshad was married to the daughter of the ocean Shatdruti शतद्रुति. They had ten sons, who were collectively called Prachetas प्रचेता. The Prachetas worshipped Mahadev and Bhagwaan Vishnu for many years.With Narayana’s blessings they married Kandu Rishi and Apsara Pramalocha’s daughter Marisha मारिषा, who was raised by trees and Chandra. Marisha gave birth to Daksh. Brahmadev’s son Daksh Prajapati had to get rid of his old body because of being disrespectful towards Mahadev and was reborn as Marisha’s son. He also became Prajapati in Chakshusha Manvantara चाक्षुष मन्वन्तर

  • मरूद्गणों का जन्म
    1 min 50 sec

    अपने दोनों पुत्रों हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के मरने के बाद देवी दिति शोकाकुल हो गयीं और इन्द्र से बदला लेने के लिए उन्होंने अपने पति कश्यप ऋषि को प्रसन्न कर ऐसे पुत्र की कामना की जो इन्द्र का वध कर सके। दिति का अभिप्राय जानकर इन्द्र वेश बदलकर उनके साथ रहकर उनकी सेवा करने लगे। एक दिन मौका देखकर इन्द्र देवी दिति के गर्भ में प्रवेश कर गए और उनके गर्भ को अपने वज्र से सात टुकड़ों में काट दिया। इन्द्र के प्रहार से वो रोने लगे तो “मा रुद्, मा रुद्” बोलते हुए इन्द्र ने उन सात टुकड़ों को और सातसात टुकड़ों में काट दिया। भगवान की कृपा से देवी दिति का गर्भ नष्ट नहीं हुआ अपितु उनको उनचास पुत्र पैदा हुए। देवी दिति ने जब अपने उनचास पुत्र देखे और उनको इन्द्र के साथ पाया तो इन्द्र से सब सच बताने को कहा। इन्द्र ने सब सच बता दिया और कहा की भगवान विष्णु की कृपा से मेरे प्रयासों के बाद भी आपका गर्भ नष्ट नहीं हुआ। ये सब अब देवता हैं और मेरे साथ स्वर्ग में विराजेंगे। देवी दिति ने इन्द्र से शत्रुता भूलकर उनको और अपने पुत्रों को आशीर्वाद देकर स्वर्गलोक भेज दिया। Birth of MarudsAfter both her sons Hiranyaksha and Hiranyakashipu were killed, devi Diti was overtaken by grief. In order to avenge the death of her sons, she tried to please her husband Kashyap rishi, in order to get a son who would kill Indra.Indra disguised himself and started living with devi Diti and served her. One day Indra shrunk in size and entered Diti’s womb. He cut the baby growing inside her into 7 pieces. It didn’t kill the baby, in fact there were now 7 babies who started crying. So Indra kept saying, “Ma Rud.. Ma Rud.” and cut them into 7 pieces each. Because of Narayana’s blessings Diti gave birth to 49 babies. When she saw 49 babies and Indra with them she enquired Indra about this. Indra told her everything honestly and said, these 49 Maruds are gods, and are his brothers, and Gods and would live with him in heaven. Devi Diti forgave Indra and blessed him and her 49 sons.  

  • अनलासुर | Analasura
    2 min 25 sec

    अनलासुरअनलासुर यमराज के शरीर से उत्पन्न एक भयानक असुर था जो अपने नेत्रों से भयानक अग्नि की वर्षा कर अपने सामने आने वाली किसी भी वस्तु को भस्म कर सकता था। जब अनलासुर अपनी अग्नि से संसार में विनाश फैलाने लगा तो देवगुरु बृहस्पति के परामर्श पर सभी देवताओं ने गणेशजी की आराधना की। देवताओं की सहायता करने और इस संसार को विनाश से बचाने के लिए गणपति ने एक छोटे बालक के रूप में प्रकट होकर अनलासुर को ललकारा। अनलासुर ने बालक को भस्म करने का भरसक प्रयास किया पर असफल रहा। अंततः क्रोधित होकर वह बाल गणेश की ओर दौड़ा। जैसे ही वह गणपति के पास आया उन्होंने अपना आकार बढ़ा लिया और अनलासुर को निगल लिया। अनलासुर को निगलने के कारण गणपति के पेट में भयंकर दाह मचने लगी और सभी देवताओं ने उस अग्नि को शान्त करने के अनेक प्रयास किए। इन्द्र ने ठंडे चन्द्र को गणपति के मस्तक पर विराजमान होकर उनको ठंडक प्रदान करने को कहा। ब्रह्मदेव ने अपनी मानस पुत्रियों सिद्धि और ऋद्धि को पंख द्वारा गणपति को ठंडक देने के लिए समर्पित किया। शिवजी ने एक हजार फन वाले नाग को उनके पेट के चारों ओर लपेटकर उनके अंदर की अग्नि को शान्त करने का प्रयास किया और विष्णु जी ने ठंडे कमल के फूलों से उनका अभिषेक किया। वरुणदेव के शीतल जल की वर्षा की। इन सभी प्रयासों के असफल हो जाने पर अट्ठासी हजार ऋषियों ने कश्यप ऋषि के नेतृत्व में दूब के इक्कीस तृण उनको समर्पित किए। उस ठंडी घास से गणपति के पेट का दाह शान्त हुआ और तभी से दूब या दूर्वा गणपति को अत्यधिक प्रिय है। AnalasuraAnalasura was a demon who was born out of Yama and was made of fire. He could burn anything just by looking at themit. When Analasura started destroying the world with his extreme fire emitting eyes, all the Gods became worried and upon Guru Brihaspati’s advice prayed to Ganapati. Ganapati appeared in the form of a small boy and challenged Analasura. Analasura got angry at the baby Ganesha and tried to burn him too, but because of his small size he could not hit him with his fire. Finally, when the demon charged at Ganesha, he grew in size and swallowed the demon.The demon started causing massive heat inside Ganapati’s stomach. All the Gods tried their best to calm the heat. Indra requested a cool moon to adorn Ganapati, Brahmadev offered his mind born daughters Riddhi and Siddhi to fan around him, Shivaji offered a thousand headed snake to wrap around his stomach, Vishnuji offered lotus flowers and Varuna dev showered him with cold water. When all these efforts could not calm the heat inside Ganapati, 88000 Rishis led by Kashyap rishi offered Ganapati 21 blades of Bermuda grass each, this eventually calmed the heat making Durva or Doob Ganapati’s favourite.  

  • इक्ष्वाकु के पौत्र पुरञ्जय (Ikshwaku’s Grandson)

    महाराज इक्ष्वाकु के ज्येष्ठ पुत्र विकुक्षि के पुत्र थे, पुरञ्जय। सतयुग के अन्त में हुए देवासुर संग्राम में देवराज इन्द्र ने पुरञ्जय से सहायता मांगी। पुरञ्जय ने इन्द्र से उनका वाहन बनने को कहा। इन्द्र ने एक विशालकाय बैल का रूप धारण किया, जिस पर आरूढ़ होकर पुरञ्जय ने दैत्यों के साथ संग्राम किया और उनका सब कुछ जीतकर इन्द्र को वापस लौटा दिया। इन्द्र को वाहन बनाने के कारण उनका एक नाम इंद्रवाह हुआ और बैल पर बैठ कर युद्ध करने के कारण वो कुकुत्स्थ भी कहलाये। Puranjaya – Ikshwaku’s GrandsonIkshwaku’s eldest son Vikukshi had a son named Puranjay. Towards the end of Satyuga, Indra came to him seeking his help in the ongoing Devasura Samgram. Puranjay agreed to help Indra only if he agrees to become his ride. Indra transformed himself into a giant bull. Purajnay fought in the battle against the demons riding that bull. He won the battle and returned the kingdom of heaven to Indra.He was also known as Indravaha for he rode Indra. For riding the bull in the battle his another name became Kukutstha. 

  • युवनाश्व – गर्भवान राजा (Yuvanashva – The Pregnant King)
    1 min 15 sec

     पुरञ्जय की पीढ़ी में आगे चलकर युवनाश्व राजा हुए। युवनाश्व के सौ पत्नियाँ थीं परन्तु एक भी पुत्र नहीं था। पुत्र प्राप्ति के लिए युवनाश्व ने भृगु ऋषि के आश्रम में रहकर इन्द्रदेव को प्रसन्न करने के लिए एक यज्ञ किया। आश्रम में एक रात युवनाश्व को प्यास लगी। सोते हुए ऋषिगणों को जगाना ठीक ना जानकर उन्होंने भूल से उनकी एक घड़े में उनकी पत्नियों के लिए रखा हुआ यज्ञ का अभिमंत्रित जल पी लिया। यज्ञ के प्रभाव से राजा ने गर्भ धारण कर लिया। कुछ समय पश्चात ऋषियों ने उनका उदर काटकर उनके गर्भ से एक पुत्र को जन्म दिया। रोते हुए भूखे बालक के मुँह में अपनी उंगली डालकर इन्द्र ने उसे चुप कराया और कहा, “मां धाता” इस कारण वह बालक मांधाता के नाम से विख्यात हुआ। Yuvanashva – The Pregnant KingIn the lineage of Purajnjay after many generations, Yuvanashva became the king. Yuvanashava had a hundred wives but no son. In order to produce an heir, he went to live in the Ashram of Bhrigu rishi with his wives where they performed a yagya for Devraj Indra. One night a thirsty Yuvanshava accidently drank the enchanted water from the yagna meant for his wives. As a result of that Yuvanashva became pregnant. Later Bhrigu rishi cut open the belly of King Yuvanashva to give birth to a baby. Indradev himself visited to witness the birth of this unique child. When the child started crying due to hunger, Indra put his finger in his mouth to calm him, saying, “Mam Dhata.” thus, giving the name Mandhata to the baby.

  • मांधाता – जिनसे रावण भी डरता था (Mandhata – Who made even Ravan fear him)
    1 min 11 sec

    मांधाता – जिनसे रावण भी डरता थाइन्द्र के आशीर्वाद से राजा युवनाश्व के गर्भ से जन्मे मांधाता से सभी दस्यु भयभीत रहते थे, इसलिए इन्द्र ने उनका नाम त्रसदस्यु रखा। समस्त विश्व को अपने अधीन करने के बाद मांधाता ने अपनी विश्व विजय को सम्पूर्ण करने के लिए लंका पर आक्रमण कर दिया और रावण के साथ उनका घमासान युद्ध हुआ। दोनों के बीच कई वर्षों तक युद्ध चला। अंततः ऋषि पुलत्स्य और ऋषि गालव ने दोनों का युद्ध रुकवाया। वर्षों तक समस्त विश्व में राज्य करने के बाद इन्द्र के कहने पर मांधाता ने मधुपुरी को अपने आधीन करने के लिए वहाँ आक्रमण कर दिया। मधुपुरी पर लवण का राज्य था जिसके पास शिवजी का त्रिशूल था, जिससे उसने मंधाता का वध कर दिया।  Mandhata – Who made even Ravan fear himMandhata was born to the pregnant king Yuvanashva, with the blessings of Devraj Indra. He was named Trasdasyu, because he was feared by every adharmi. After winning over the entire world, Mandhata attacked Lanka in order to complete his total domination of earth. A massive battle ensued between Ravan and Mandhata. After many days of stalemate, the battle was stopped by Rishi Pulastya and Rishi Galav. After ruling the earth for many years, Mandhata decided to conquer heaven. Indra pointed to Madhupuri saying you first capture that and then come to heaven. Madhupuri was ruled by Asura Lavan, who possessed the Trishula of Mahadev. When Mandhata attacked Madhupuri, he was killed by Lavan using Mahadev’s infallible Trishula. 

  • भगीरथ – जो गंगा को पृथ्वी पर लाए (Bhagirath)

    भगीरथ – जो गंगा को पृथ्वी पर लाए महाराज सगर के साठ हजार एक पुत्र हुए। सगर के साठ हजार पुत्रों ने अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की खोज में पृथ्वी को खोदकर समुद्र बना डाला और अंततः कपिल मुनि की क्रोधाग्नि में भस्म हो गए। सगर के दूसरे पुत्र असमंजस के पुत्र अंशुमान की पीढ़ी में आगे चलकर भगीरथ ने जन्म लिया। महाराज ने अपने कठिन तप से ब्रह्मदेव और महादेव को प्रसन्न कर देवनदी गंगा को पृथ्वी पर अवतरित किया, जिससे कि कपिल मुनि के क्रोध से भस्म हुए उनके पूर्वजों का उद्धार हो सके। Bhagirath – Who brought Ganga to earthKing Sagar had sixty thousand one sons. Sagar’s sixty thousand sons dug the entire earth and created an ocean looking for the horse of their father’s Ashwamedh yagya. These sixty thousand sons of Sagar were burnt to ashes by Kapil muni. Sagar’s remaining son Asamanjas had a son Anshuman, who became heir to the throne.In the line of Asamanjas was born Bhagirath. Bhagirath performed severe penance to Brahmadev and Mahadev seeking their help in bringing the divine river Ganga to earth. He eventually succeeded in bringing Ganga to earth and used the divine water to perform last rites of his ancestors who died due to curse of Kapil muni. 

  • रुक्मी  (Rukmi)
    1 min 19 sec

    रुक्मी विदर्भ नरेश भीष्मक का पुत्र और देवी रुक्मिणी का बड़ा भाई था। रुक्मी अपनी बहन का विवाह अपने मित्र शिशुपाल से करना चाहता था, परन्तु देवी रुक्मिणी के आग्रह पर श्रीकृष्ण ने उनसे विवाह करने के उद्देश्य से विदर्भ से उनका अपहरण कर लिया। रुक्मी ने श्रीकृष्ण को रोकने के लिए उन पर आक्रमण कर दिया और श्रीकृष्ण द्वारा युद्ध में पराजित होने पर देवी रुक्मिणी के आग्रह पर श्रीकृष्ण ने रुक्मी का सर मुंडवा कर जीवित छोड़ दिया। महाभारत युद्ध के समय रुक्मी अर्जुन और दुर्योधन दोनों के पास उनके साथ युद्ध करने का प्रस्ताव लेकर गया परन्तु उसके बड़ीबड़ी हाँकने के कारण दोनों ने ही उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया। रुक्मी का अन्त बलराम जी के हाथों हुआ जब चौसर के खेल में धोखे से हराने के कारण उन्होंने क्रोध में आकर रुक्मी का वध कर दिया। RukmiRukmi was the son of King Bhishmak of Vidarbha and elder brother of Rukmini. He wanted Rumini to marry his friend Shishupal, but Rukmini wanted to marry Shrikrishna so she secretly invited him to abduct her from Vidarbha.Shrikrishna abducted Rukmini and was challenged by Rukmi. Shrikrishna defeated Rukmi, however on Rukmini’s request spared his life and let him go after shaving his head. Later during Mahabharat war Rukmi approached both Arjuna and Duryodhan to fight from their side in the war, however both of them rejected his offer because of his boastful behavior.In the end Rukmi was killed by Balaram for cheating in a game of dice.

  • विन्द-अनुविन्द (Vinda-Anuvinda)
    1 min 6 sec

    विन्द और अनुविन्द अवन्ती के राजा जयसेन के पुत्र और मित्रविन्दा के भाई थे। दोनों दुर्योधन के परम मित्र थे और श्रीकृष्ण की पाण्डवों के साथ घनिष्टता के कारण उनसे शत्रुता रखते थे। मित्रविन्दा ने जब अपने स्वयंवर में श्रीकृष्ण का वरण किया, तब विन्द और अनुविन्द ने इसका विरोध किया और श्रीकृष्ण द्वारा युद्ध में पराजित हुए। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय सहदेव ने दोनों भाइयों को पराजित कर अवन्ती राज्य में महाराज युधिष्ठिर का आधिपत्य स्थापित किया। महाभारत युद्ध में दोनों भाइयों ने कौरव सेना की ओर से भाग लिया और अर्जुन के हाथों वीरगति को प्राप्त हुए। VindaAnuvindaVinda and Anuvinda were sons of King Jayasena of Avanti and brothers of Mitravinda. Both were friends and ally of Duryodhan and did not like Shrikrishna for his closeness to Pandava. When Mitravinda chose Shrikrishna in her swayamvar, both brothers opposed this and fought Shrikrishna. Shrikrishna defeated them in battle and married Mitravinda.During Yudhishthir’s Rajsuya yagya Sahadev fought and defeated both brothers to bring Avanti under Yudhishthir’s control.

  • रुक्मिणी (Rukmini)
    1 min 4 sec

    साक्षात देवी लक्ष्मी का अवतार रुक्मिणी विदर्भराज भीष्मक की पुत्री थीं। उनका भाई रुक्मी उनका विवाह अपने मित्र शिशुपाल से कराना चाहता था, परन्तु रुक्मिणी के मन में श्रीकृष्ण बसे हुए थे। इसीलिए रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण को उनका अपहरण कर विदर्भ से ले जाने को आमंत्रित किया। देवी रुक्मिणी का आमंत्रण पाकर श्रीकृष्ण ने बिना देर किए उनको विदर्भ से अपने साथ ले गए। जब रुक्मिणी के भाई रुक्मी ने उनको रोकना चाहा और युद्ध के लिए ललकारा तो श्रीकृष्ण ने उसे बड़ी ही आसानी से पराजित कर दिया। देवी रुक्मिणी श्रीकृष्ण की सर्वप्रमुख रानी थीं और उनसे श्रीकृष्ण को प्रद्युम्न के साथ नौ और पुत्र प्राप्त हुए। RukminiRukmini was an incarnation of Devi Laksmi and was born as the daughter of Bhishmak, king of Vidarbha. Her brother Rukmi wanted to marry her to his friend Shishupal, however she wanted Shrikrishna as her husband. When her brother did not listen to her, she invited Shrikrishna to abduct her from her palace. After receiving Rukmini’s invitation Shrikrishna rescued her from her palace without any delay. When Rukmi tried to stop them Shrikrishna defeated him in battle, however he allowed him to live upon Rukmini’s request.Devi Rukmini was the most important of Shrikrishna’s wives, who gave him ten sons including Pradyumna. 

  • सत्यभामा (Satyabhama)
    1 min 8 sec

    भूदेवी का अवतार देवी सत्यभामा अंधकवंशी यादव राजा सत्रजित की पुत्री थीं। सत्रजित से प्रसन्न होकर सूर्यदेव ने उनको बहुमूल्य स्यामन्तक मणि दी थी। उस मणि के खो जाने पर सत्रजित ने श्रीकृष्ण पर चोरी का आरोप लगाया। श्रीकृष्ण ने इस आरोप से मुक्त होने के लिए स्यामन्तक मणि को खोज निकाला और महाबली जांबवान से वह मणि वापस लेकर सत्रजित को दे दी। इस बात से प्रसन्न होकर सत्रजित ने अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण के कर दिया। देवी सत्यभामा से श्रीकृष्ण को दस पुत्र हुए। नरकासुर से युद्ध के समय देवी सत्यभामा श्रीकृष्ण के साथ थीं और उन्होंने नरकासुर का वध कर उसका उद्धार किया।  SatyabhamaAn incarnation of mother earth, Devi Satyabhama was the daughter of Satrajit, a Yadav king of Andhak clan. Satrajit was in possession of the divine Syamantak gem, which was gifted to him by the Sun. When the precious gem was lost, Satrajit accused Shrikrishna of stealing it.

  • जाम्बवन्ती (Jambvanti)
    1 min

    ब्रह्मदेव के पुत्र महाबली जांबवान की पुत्री थीं जाम्बवन्ती। स्यामन्तक मणि की खोज के समय श्रीकृष्ण और जांबवान का भीषण द्वन्द्व हुआ जो कई दिनों तक चला। अंततः महाबली जांबवान को आभास हो गया की यह श्रीराम के ही अवतार हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगी और स्यामन्तक मणि के बदले में उनकी पुत्री जांबवंती से विवाह का प्रस्ताव रखा। जब श्रीकृष्ण को उनकी सभी पत्नियों से पुत्र हुए और जांबवंती को नहीं तो उन्होंने श्रीकृष्ण से पुत्र प्राप्ति इच्छा व्यक्त की। श्रीकृष्ण ने शिवजी की आराधना कर उनसे जांबवंती के लिए पुत्र की कामना की। शिवजी की कृपा से जन्मे इस पुत्र का नाम साम्ब रखा गया। उसके बाद दोनों को और भी अनेक पुत्र हुए। JambvantiJambvanti was the daughter of Jambwan, who was a general in Shriram’s army in battle against Ravan. During the search of Syamantak gem Shrikrishna and Jambwan got into a duel, which lasted many days.  In the end Jambwan realised that Shrikrishna was an incarnation of his beloved Shriram and sought forgiveness. He proposed to marry his daughter Jambvanti to Shrikrishna in return for giving him the precious gem. Shrikrishna agreed and married Jambvanti.

  • पंच केदार मंदिर (Panch Kedar)
    1 min 30 sec

    उत्तराखंड में स्थित पंच केदार को हिन्दू धर्म में अहम मान्यता दी जाती है. पंच केदार दरअसल पांच मंदिरों का समाहार है जो कि महादेव के नंदी स्वरूप को समर्पित है. शिवजी के साथ यहां माता पार्वती की भी पूजा की जाती है. महाभारत युद्ध के उपरांत पांडव अपने भाई तथा गुरुजनों के वध का प्रायश्चित करने हेतु तीर्थ यात्रा पर निकल गए थे. इस क्रम जब वे शिवजी के दर्शन करने आये, तब महादेव ने हिमालय की तलहटी पर पर उन्हें एक नंदी या भैंसे के रूप में दर्शन दिया।     शिवजी का यह नंदी स्वरूप इतना विशाल था की उनका सींग केदारनाथ में, बाहु तुंगनाथ में, मस्तक रुद्रनाथ व जटा कल्पेश्वर में दिखाई दिए. मध्यमेश्वर में महादेव के शरीर का मध्य भाग अर्थात उनका पेट व नाभि विराजमान हुए. जहाँ जहाँ शिवजी के विभिन्न अंग प्रकट हुए, उन सभी स्थानों पर पांडवों ने मंदिरों का निर्माण करवाया जिन्हें पंच केदार कहा जाता हैPanch Kedar Situated in Uttarakhand, Panch Kedar is a collection of five temples dedicated to the Nandi form of Bhagwaan Shankar.  After the Kurukshetra war, Pandava brothers came here to perform penance to Mahadev for killing their friends and relatives. They worshipped Bhagwaan Shankar and He appeared in the form of a giant bull.  This bull form of Mahadev was so big that his horns were at Kedarnath, legs at Tungnath, Head at Rudranath, Hair and Kalpeshwar and stomach at Madhameshwara.  Pandava built temples at all these places, which are collectively referred as Panch Kedar.      

  • पगु ऋषि | The Limping Sage

    भगवान परशुराम और कार्तवीर्य अर्जुन के बीच युद्ध के समय कार्तवीर्य के सैनिक ऋषियों के आश्रमों पर आक्रमण करने लगे। जब भगवान परशुराम ने कार्तवीर्य का वध कर दिया तो उसके पुत्रों ने ऋषियों को अपना निशाना बनाया। इसी प्रकरण में एक बार उन्होंने पाराशर ऋषि के आश्रम में भी आक्रमण कर दिया। जब ऋषि ने उनको रोकने का प्रयास किया तो इस प्रक्रिया में उनके पैर में चोट लग गयी। इसी चोट के कारण वो लंगड़ाकर चलने लगे और उनका एक नाम पंगु ऋषि भी पड़ गया।  The Limping Sage During the fight between Bhagwaan Parshuram and Kartavirya Arjuna, Kartavirya’s soldiers started raiding the Ashrams. After Bhagwaan Parshuram killed Kartavirya, his sons attacked various Ashrams.  During one such raid they attacked the Ashram of Parashara rishi. The great rishi tried to stop them and was hurt in his leg in the process.  After this Parashara rishi started walking with a limp and became famous as the Limping Sage

  • राजा पाण्डु को ऋषि किन्दम का श्राप (Kindam Rishi’s Curse to Pandu)
    1 min 31 sec

    एक बार महाराज पाण्डु शिकार खेलने वन गए। झाड़ियों के पीछे कुछ हिल रहा था। मृग है सोचकर राजा ने बाण चलाया जो जाकर ऋषि किन्दम और उनकी पत्नी को लगा। वे दोनों मृग के वेश में रतिक्रीड़ा में लिप्त थे।जब राजा ने उन्हें देखा तो बहुत दुखी हुए कि ये मुझसे क्या पाप हो गया। बहुत क्षमा याचना के बाद भी किन्दम ऋषि ने पाण्डु को श्राप दे दिया कि जब भी वो किसी स्त्री को काम भावना से स्पर्श करेंगे उसी क्षण उनकी मृत्यु हो जाएगी। पश्चाताप करने के लिये, वे सिंहासन पर अपने अन्धे बड़े भाई राजा धृतराष्ट्र को बैठाकर स्वयं अपनी रानियों कुंती व माद्री के साथ वन चले गए। पांडवों का जन्म भी कुंती को ऋषि दुर्वासा द्वारा दिए गए मंत्र से हुआ था जिसमें किसी भी देव का स्मरण कर उस देव से कुंती पुत्र प्राप्त कर सकती थी। एक बार माद्री पर मोहित हो पाण्डु स्वयं को रोक नहीं पाये और जब पाण्डु ने उसे स्पर्श किया, उसी क्षण पाण्डु की मृत्यु हो गयी।Kindam Rishi’s Curse to PanduOnce Maharaj Pandu was hunting in a forest. He sensed some movement from behind the bushes and thinking it was a deer, shot an arrow. The arrow hit rishi Kindam and his wife, who were enjoying an intimate moment together disguised as deer. When Pandu realised what he had done, he pleaded forgiveness for his actions, however Kindam rishi cursed Pandu. As per Kindam rishi’s curse Pandu would die the moment he gets intimate with any woman. Following this, Pandu assigned his blind elder brother Dhritarashtra as the caretaker king of Hastinapur and started living in the jungle with his wives Kunti and Madri. the Pandava brothers were born by using the boon of rishi Durvasa to Kunti, using which she could summon any God and seek a child from them. Once Pandu was alone with his wife Madri and he could not control himself. The moment he decided to get intimate with her he died.

  • युधिष्ठिर का सम्पूर्ण स्त्री जाति को श्राप | Yudhishthira’s Curse to All Women

    महाभारत के शन्ति पर्व के अनुसार जब युद्ध समाप्त होने के बाद कुंती ने युधिष्ठिर को यह बताया कि कर्ण तुम्हारा बड़ा भाई था तो सभी पाण्डवों को बहुत दुख हुआ। युधिष्ठिर ने तब पुरे विधि विधान के साथ कर्ण का भी अन्तिम संस्कार किया। इतनी बड़ी बात छिपाने के लिए वे अपनी माता कुंती से बहुत नाराज हुए और शोक में आकर सम्पूर्ण स्त्री जाति को उन्होंने श्राप दे दिया कि आज के पश्चात कोई भी स्त्री ज्यादा देर तक कोई भी बात गुप्त नहीं रख सकेगी।Yudhishthira’s Curse to All WomenAccording to the Shanti Parva of Mahabharata after the war of Mahabharata Kunti told the truth about Karna’s birth to Yudhishthira. the Pandava brothers were very sad hearing about this and blamed their mother for keeping this a secret from them. They performed the last rites of Karna.However, because of keeping this secret Yudhishthira cursed all the women that they will be unable to keep any secret for long. 

  • श्रीकृष्ण का अश्वत्थामा को श्राप |Shrikrishna’s Curse to Ashwatthama
    1 min 13 sec

    महाभारत युद्ध के अन्त में जब अश्वत्थामा ने पाण्डव पुत्रों का वध किया तब पाण्डव भगवान कृष्ण के साथ अश्वत्थामा का पीछा करते हुए ऋषि वेदव्यास के आश्रम पहुंच गए। अश्वथामा ने पाण्डवों पर ब्रह्मास्त्र का वार किया तो अर्जुन ने भी अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ा। महर्षि व्यास ने दोनों अस्त्रों को टकराने से रोक लिया और अश्वत्थामा व अर्जुन से अपने ब्रह्मास्त्र वापस लेने को कहा। अर्जुन ने अपना ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया परंतु अश्वत्थामा को ये विद्या नहीं आती थी। इसलिए उसने अपने अस्त्र की दिशा बदलकर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी।श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप दे दिया कि तुम चिर काल तक इस पृथ्वी पर भटकते रहोगे। तुम्हारे शरीर से पीक और रक्त की गंध निकलेगी जिस कारण तुम मनुष्यों के बीच नहीं रह सकोगे अपितु दुर्गम वन में पड़े रहोगे। At the end of Kurukshetra war when Ashwatthama killed all the Uppandavas, the Pandavas along with Shrikrishna chased him to the hermitage of Maharshi Ved Vyas. Ashwatthama fired a Brahmastra at them, to counter it Arjuna also fired the Brahmastra.  Maharshi Ved Vyas stopped these weapons from colliding and asked both of them to recall their weapons. Arjuna did as was asked, however, Ashwatthama did not know how to recall his Brahmastra. Ashwatthama redirected his weapon towards Uttara’s womb, who was carrying Abhimanyus child.  Shrikrishna nullified the weapon and saved the unborn child however he cursed Ashwatthama to wander around alone in the world till eternity with a bleeding forehead.   

  • श्रीकृष्ण को गांधारी का श्राप | Gandhari’s Curse to ShriKrishna
    1 min 14 sec

    कौरवों की माता गांधारी ने महाभारत युद्ध के लिये श्रीकृष्ण को जिम्मेदार ठहराते हुए उन्हें श्राप दे दिया कि जिस प्रकार कुरुवंश का नाश हुआ है, ठीक उसी प्रकार से यदु वंश का भी नाश होगा। गांधारी के श्राप के कारण श्रीकृष्ण द्वारका लौटकर यदुवंशीयों को लेकर प्रभास क्षेत्र आ गए थे। श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों को दान देकर यदुवन्शियों को मृत्यु का इन्तज़ार करने का आदेश दिया था। कुछ दिन बाद सात्यकि व कृतवर्मा में महाभारत को लेकर विवाद इतना बढ़ा कि सात्यकि ने क्रोध में आकर कृतवर्मा का सिर काट दिया। इस घटना के बाद यदुओं में आपसी युद्ध भड़क उठा। वे दो समूहों में बंटकर एक दूसरे का संहार करने लगे। इस लड़ाई में कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न व मित्र सात्यकि समेत सभी यदुवन्शी मारे गए। केवल बब्रु और दारुक बचे।Gandhari’s Curse to ShriKrishnaMother of the Kauravas, Gandhari blamed Shrikrishna for causing all this death and destruction and cursed him that the way her entire lineage hads been destroyed, one day the sameday same thing will happen to his Yaduvansh.After this curse Shrikrishna returned to Dwarka and took all his relatives to Prabhas. He instructed his clan to conduct charitable acts while waiting for their impending doom. One day Satyaki and Kritavarma got into a debate over their actions during the Mahabharata war. They started insulting each other and the debate got heated. Satyaki ended up cutting Kritavarma’s head.This resulted into massive infighting among all the Yadava’s who ended up killing each other including Shrikrishna’s sons and friends. Only Babru and Daruk survived. 

  • वानर राज वाली और सुग्रीव की माँ(Vanar raj Vali aur Sugreev ki Maa)
    1 min 50 sec

    ब्रह्माजी ने अपने मनोरंजन के लिए एक सरोवर बनाया और ऋक्षराज को उसकी देखरेख का काम दिया। एक दिन ऋक्षराज उस सरोवर में स्नान करने के लिए चले गए। जब वो सरोवर से बहार निकले तो एक अत्यंत रूपवती स्त्री बन गए। उसी समय इंद्रदेव ने स्त्री रूप में ऋक्षराज को देखा और उन पर मोहित हो गए। इंद्रदेव से ऋक्षराज को जो पुत्र हुआ उसका नाम बाली था। थोड़ी देर बाद सूर्यदेव उधर से निकले और वो भी ऋक्षराज के सुन्दर रूप पर मोहित हो गए। ऋक्षराज को सूर्यदेव से जो पुत्र प्राप्त हुआ वो सुग्रीव थे। एक और मान्यता के अनुसार बाली और सुग्रीव की माता सूर्यदेव के सारथी अरुण का स्त्री रूप अरुणि हैं।

  • सुग्रीव और हनुमान जी की मित्रता
    2 min 16 sec

    जब अपने लिए गुरु चुनने की बात आयी तो हनुमान जी ने सोचा सूर्यदेव से उत्तम गुरु कौन हो सकता है। सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर वे संसार में भ्रमण करते हुए सब कुछ देखते रहते हैं। संसार में ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जो उनसे छिपा हो। ऐसा सोचकर हनुमान जी सूर्यदेव के पास गए और उनको अपना गुरु बनने के लिए आग्रह किया। सूर्यदेव ने कहा,मैं तो सारा समय भ्रमण करता रहता हूँ, मेरे पास तुम्हें शिक्षा देने के लिए समय कहाँ हैइस पर हनुमान जी ने उत्तर दिया,मेरे पास इसका एक उपाय है। मैं आपके साथसाथ भ्रमण करूँगा और आप मुझे अपना काम करते हुए शिक्षा दे सकते हैं। सूर्यदेव ने हनुमान जी की बात मान ली और हनुमान जी सूर्यदेव के साथ रहकर उनसे शिक्षा लेने लगे। जब उनकी शिक्षा पूरी हुई तो उन्होंने सूर्यदेव से गुरु दक्षिणा मांगने को कहा। सूर्यदेव ने कहा,ये सारा संसार मेरे प्रकाश से चलता है, मुझे भला किस वस्तु की आवश्यकता हो सकती है।हनुमान जी ने कहा,बिना गुरु दक्षिणा के ज्ञान अधूरा है। अगर आपने मुझसे गुरु दक्षिणा नहीं ली तो ये सारा ज्ञान व्यर्थ हो जायेगा।हनुमान जी की बात को सुनकर सूर्यदेव ने कहा,ऐसी बात है तो तुम मेरे पुत्र सुग्रीव की सदा रक्षा करना।

  • राम सेतु के दिव्य वास्तुकार
    2 min 24 sec

    सुग्रीव की वानर सेना के सेनापति नल, देवताओं के शिल्पकार भगवान् विश्वकर्मा के और नील अग्निदेव के पुत्र थे। वे दोनों ही निपुण अभियंता थे।  सीता माता को वापस लाने के लिए भगवान् राम ने जल के देवता वरुण देव से समुद्र के बीच से रास्ता बनाकर वानर सेना को निकलने देने की प्रार्थना की परन्तु वरुण देव ने उनकी प्रार्थना नहीं सुनी। भगवान् राम ने क्रोध में आकर समुद्र को सुखाने के लिए अपना धनुष निकला तो वरुण देव ने प्रकट होकर नल और नील से समुद्र पर पल बनवाने की सलाह दी।  एक और मान्यता के अनुसार नल और नील बचपन में बहुत शरारती थे और आश्रम में रहने वाले ऋषियों का सामान तालाब में फेंक के उन्हें चिढ़ाते थे।  एक बार ऋषियों ने क्रोधित होकर उनको शाप दे दिया की वो जिस भी वस्तु का हाथ लगाएंगे वो पानी में नहीं डूबेगी अपितु तैरती रहेगी।  ऋषियों का वही शाप समुद्र सेतु बनाने में वरदान साबित हुआ।

  • शूर्पणखा का बदला
    1 min 37 sec

    शूर्पणखा विश्रवा ऋषि और उनकी पत्नी कैकशी की पुत्री थी और रावण की छोटी बहन थी।  शूर्पणखा ने अपने भाई रावण के दुश्मन कालकेय वंश के दानव विद्युतजिह्वा/दुष्टबुद्धि से विवाह कर लिया।  पाताललोक पर विजय प्राप्त करने के बाद रावण अपनी बहन से मिलने गया और वहां किसी बात पर उसका विद्युतजिह्वा से झगड़ा हो गया और रावण ने उसका वध कर दिया।  कुछ लोगों का मानना है की जब श्रीराम ने खरदूषण को बड़ी आसानी से मार दिया तो शूर्पणखा को लगा पुरे विश्व में श्रीराम ही उसके भाई का सामना कर सकते हैं और इसलिए अपने भाई से बदला लेने के लिए उसने रावण को सीता हरण करने को उकसाया।

  • अर्जुन को गांडीव किसने दिया?
    2 min 9 sec

    जब श्रीकृष्ण और अर्जुन इन्द्रप्रस्ठ का महल बनाने के लिए उचित स्थान ढूंढ रहे थे, तब अग्निदेव उनके पास आये। राजा स्वेतकी के बारह साल लम्बे महायज्ञ में लगातार घी खाने से उनको बदहजमी हो गयी थी। इस बदहजमी को ठीक करने के लिए ब्रह्मदेव ने अग्निदेव को खाण्डववन और उसमें रहने वाले सभी जीवों को खाने के लिए कहा।  खाण्डववन में इन्द्र का मित्र तक्षक भी रहता था और इसीलिए जब भी अग्निदेव खाण्डववन जलने का प्रयास करते, इंद्रदेव वर्षा करा देते।  अग्निदेव ने श्रीकृष्ण और अर्जुन से उनकी सहायता करने को कहा। दोनों ने अग्निदेव की बात मान ली लेकिन उनसे उचित हथियारों की मांग की।  अग्निदेव ने अर्जुन को चार सफ़ेद दैवी घोड़ों से खींचा जाने वाला हनुमानजी की ध्वजा वाला स्वर्णिम दैवी रथ दिया। इसके साथ उन्होंने वरुण देव से दैवी धनुष गांडीव और दो अक्षय तरकश दिए।  महाप्रयाण से पहले अर्जुन ने गांडीव जल में प्रवाहित कर वरुण देव को वापस कर दिया।

  • ऋषि अगस्त्य और विंध्याचल
    1 min 57 sec

    एक दिन विंध्याचल पर्वत ने सूर्यदेव को कहा कि वो सदा सुमेरु की परिक्रमा करते हैं, कभी उनकी भी परिक्रमा करें। सूर्य ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता। इस पर विंध्य को बहुत क्रोध आया और वो अपना आकार बढ़ाने लगे। बढ़तेबढ़ते विंध्याचल पर्वत इतना बड़ा हो गया कि सूर्य का प्रकाश धरती पर पहुँचना बंद हो गया। बिना सूर्य के प्रकाश के संसार में जीवन की हानि होने लगी। सभी देवताओं ने पुलस्त्य प्रजापति के पुत्र अगस्त्य मुनि से जाकर प्रार्थना की कि वो किसी प्रकार विंध्याचल को शान्त करें। अगस्त्य मुनि विंध्याचल के पास गए और उनसे दक्षिण की ओर जाने के लिए रास्ता माँगा। विंध्य ने झुककर ऋषि को जाने का रास्ता दे दिया। ऋषि अगस्त्य ने अपने वापस आने तक विंध्य को प्रतीक्षा करने को कहा। उसके बाद अगस्त्य ऋषि दक्षिण में ही रह गए और कभी वापस नहीं आये। विंध्याचल आज भी ऋषि अगस्त्य की प्रतीक्षा में झुका हुआ है। 

  • भृगु की परीक्षा |
    3 min 12 sec

    एक बार कई ऋषिमुनियों ने मिलकर मंदराचल पर्वत पर एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। त्रिदेवों में किसे उस यज्ञ का इष्ट देव बनाया जाये इस बात पर विवाद होने लगा। इस विषय पर कोई सहमति नहीं होने पर भृगु ऋषि को देवों की परीक्षा लेकर यज्ञ का इष्ट देव चुनने के लिए नियुक्त किया गया।  त्रिदेवों की परीक्षा लेने के क्रम में महर्षि भृगु सबसे पहले भगवान शंकर के कैलाश पहुंचे। उस समय भगवान शंकर अपनी पत्नी सती के साथ विहार कर रहे थे। नन्दी आदि रूद्रगणों ने महर्षि को प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया। कुपित महर्षि भृगु ने भगवान शंकर को तमोगुणी घोषित करते हुए लिंग रूप में पूजित होने का शाप दिया। यहाँ से महर्षि भृगु ब्रह्मलोक पहुँचे। ब्रह्माजी अपने दरबार में विराज रहे थे। सभी देवगण उनके समक्ष बैठे हुए थे। भृगु जी को ब्रह्माजी ने बैठने तक को नहीं कहा। तब महर्षि भृगु ने ब्रह्माजी को रजोगुणी घोषित करते हुए अपूज्य होने का शाप दिया। कैलाश और ब्रह्मलोक में मिले अपमानतिरस्कार से क्षुभित महर्षि विष्णुलोक चल दिये। भगवान श्रीहरि विष्णु क्षीर सागर में शेषनाग पर अपनी पत्नी लक्ष्मी के साथ विश्राम कर रहे थे। उस समय श्री विष्णु जी शयन कर रहे थे। महर्षि भृगुजी को लगा कि हमें आता देख विष्णु सोने का नाटक कर रहे हैं। उन्होंने अपने क्रोध में भरकर विष्णु जी की छाती में लात मार दी। श्रीविष्णु जी ने क्रोधित होने के बजाय महर्षि का पैर पकड़ लिया और कहा, “भगवन् मेरे कठोर वक्ष से आपके कोमल चरण में चोट तो नहीं लगी।“ महर्षि भृगु लज्जित भी हुए और प्रसन्न भी, उन्होंने श्रीहरि विष्णु को सतोगुणी घोषित कर दिया और ऋषियों के यज्ञ के इष्ट देव के रूप में चुना।  त्रिदेवों की इस परीक्षा में जहाँ एक बहुत बड़ी सीख छिपी है वहीं इस घटना से एक प्रचलित लोकोक्ति भी बनी। क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।का हरि को घट्यो गयो, ज्यों भृगु मारी लात।।

  • रुद्र - ब्रह्मा देव के पांचवें पुत्र
    2 min 12 sec

    जब सनत्कुमारों ने ब्रह्माजी की आज्ञानुसार अपना मन सृष्टि के विस्तार में लगाने ने मना कर दिया तो ब्रह्मदेव को अपने आदेश की इस अवहेलना पर बहुत क्रोध आया और उस क्रोध को रोकने का प्रयास करने पर उनके मस्तक से लाल और नीले रंग के बालक के रूप में क्रोध ने जन्म लिया।  ब्रह्माजी ने बालक को कहा की संसार तुम्हें रुद्र के नाम से बुलाएगा और तुम्हारे रहने के लिए मैंने ह्रदय, इन्द्रिय, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा और तप की रचना कर दी है। धी, वृत्ति, उशना, उमा, नियुत, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा और दीक्षा नाम की ग्यारह रुद्राणियाँ तुम्हारी पत्नियाँ होंगी। अब तुम अपनी प्रजा उत्पन्न कर उनके प्रजापति बनो। ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर रुद्र अपने ही सामान प्रजा उत्पन्न करने लगे। इस प्रकार उत्पन्न प्रजा अपने क्रोध के कारण संसार को नष्ट करने लगी। इसे देखकर ब्रह्माजी ने रुद्र को रोका। ब्रह्माजी ने रुद्र को कहा तुम इस संसार की प्रसन्नता के लिए तप करो और फिर उस तप के प्रभाव से फिर से संसार की रचना करो।

  • दस प्रजापति | Ten Prajapatis
    1 min 47 sec

    दस प्रजापतिरुद्र से उत्पन्न सृष्टि से निराश होने के बाद ब्रह्माजी के अपने शरीर से दस पुत्र नारद गोद से, दक्ष अंगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य कान से, अंगिरा मुख से, अत्रि आँख से और मरीचि मन से जन्मे। इन दस पुत्रों को प्रजापति भी कहते हैं। इन प्रजापतियों की संतानों से अनेक प्रजातियों का जन्म हुआ। उसके बाद ब्रह्माजी की छाती से धर्म उत्पन्न हुआ और उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ। इसी प्रकार ब्रह्माजी के हृदय से काम, भौंहो से क्रोध, होंठ से लोभ, मुख से वाणी की देवी सरस्वती इत्यादि की रचना हुई। इस प्रकार सारे संसार की रचना ब्रह्मा जी के शरीर और मन से हुई।

  • मनु और सतरूपा
    1 min 22 sec

    मनु और सतरूपासृष्टि का और विस्तार करने के लिए ब्रह्माजी ने अपने शरीर से एक स्त्रीपुरुष युगल को जन्म दिया, सतरूपा और मनु।  मनु और सतरूपा के पाँच संतानें हुई। दो पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपाद तथा तीन पुत्रियां आकूति, देवहूति और प्रसूति।  मनु जी ने आकूति का विवाह रुचि प्रजापति, देवहूति का कर्दमजी और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति से किया। इन तीनों कन्याओं की संतानों से सृष्टि रचना का कार्य आगे बढ़ा। 

  • 7 महाद्वीपों की कहानी | प्रियव्रत
    1 min 21 sec

    स्वयम्भुव मनु के अग्रज पुत्र थे प्रियव्रत। प्रियव्रत ने जब देखा कि सूर्य के प्रकाश से केवल आधा विश्व प्रकाशित होता है और आधा हमेशा अंधकार में रहता है तो उन्होंने दूसरा सूर्य बनाने की सोचकर सूर्य के समान रथ पर सवार होकर धरती की सात बार परिक्रमा कर डाली। प्रियव्रत के रथ के पहियों से धरती में सात महासागर और सात महाद्वीप बन गए।  देवर्षि नारद के उपदेश से उन्होंने सांसारिक जीवन का त्यागकर वैराग्य धारण कर लिया।

  • जब नारद मुनि को मिला श्राप !
    1 min 51 sec

    दक्ष प्रजापति ने ब्रह्मा के आदेशानुसार अनेक पुत्र पैदा किये और उनको संसार का विस्तार करने का आदेश दिया। लेकिन नारद जी ने उन पुत्रों से मिलकर उनको वैराग्य का उपदेश देकर सन्यासी बना दिया।  दक्ष को नारद जी पर बड़ा क्रोध आया, परन्तु उन्होंने अपना क्रोध शांत करते हुए और पुत्र पैदा किये तथा उनको भी वही आदेश दिया। लेकिन नारद जी ने इन पुत्रों को भी वैरागी बना दिया।  इस बार दक्ष प्रजापति अपने क्रोध को शांत नहीं कर पाए और उन्होंने नारद मुनि को शाप दे दिया कि वो सदा लोकलोकान्तरों में भटकते रहेंगे। दक्ष प्रजापति के इसी शाप के कारण नारदमुनि सदा त्रिलोकों में विचरण करते हैं और कभी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहते।

  • माँ स्कंदमाता

    नवरात्र का पाँचवाँ दिन स्कन्दमाता की उपासना का दिन होता है। मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता परम सुखदाई हैं। माँ अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं। इस देवी की चार भुजाएँ हैं। यह दाईं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कन्द को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बाईं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। पहाड़ों पर रहकर सांसारिक जीवों में नवचेतना का निर्माण करने वालीं स्कन्दमाता की पूजाअर्चना नवरात्रि के पाँचवें दिन की जाती है। कहते हैं कि इनकी कृपा से मूढ़ भी ज्ञानी हो जाता है। स्कन्द कुमार कार्तिकेय की माता के कारण इन्हें स्कन्दमाता नाम से जाना गया है। इनका वर्ण एकदम शुभ्र है। यह कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी लिए इन्हें पद्मासना भी कहा जाता है। सिंह इनका वाहन है। शास्त्रों में इनका पुष्कल महत्व बताया गया है। इनकी उपासना से भक्त की सारी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं। भक्त को मोक्ष मिलता है। सूर्यमण्डल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज और कान्तिमय हो जाता है। अतः मन को एकाग्र रखकर और पवित्र रखकर इस देवी की आराधना करने वाले साधक या भक्त को भवसागर पार करने में कठिनाई नहीं आती है। उनकी पूजा से मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है। यह देवी विद्वानों और सेवकों को पैदा करने वाली शक्ति है। यानी चेतना का निर्माण करने वाली हैं। कहते हैं कालिदास द्वारा रचित रघुवंशम महाकाव्य और मेघदूत रचनाएँ स्कन्दमाता की कृपा से ही सम्भव हुईं। 

  • कालरात्रि
    1 min 32 sec

    माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। दुर्गापूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन सहस्रार चक्र में स्थित रहता है। कहा जाता है कि कालरात्रि की उपासना करने से ब्रह्माण्ड की सारी सिद्धियों के दरवाज़े खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियॉं उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं। कालरात्रि अर्थात जिनके शरीर का रंग घने अन्धकार की तरह एकदम काला है। नाम से ही जाहिर है कि इनका रूप भयानक है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं और गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। अन्धकारमय स्थितियों का विनाश करने वाली शक्ति हैं कालरात्रि। काल से भी रक्षा करने वाली यह शक्ति है। इस देवी के तीन नेत्र हैं। यह तीनों ही नेत्र ब्रह्माण्ड के समान गोल हैं। इनकी साँसों से अग्नि निकलती रहती है। यह गदहे की सवारी करती हैं। ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वर मुद्रा भक्तों को वर देती है। दाहिनी ही तरफ का नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है जो कि भक्तों को हमेशा निडर, निर्भय रहने की प्रेरणा देता है। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग है। इनका रूप भले ही भयंकर हो लेकिन यह सदैव शुभ फल देने वाली माँ हैं। इसी लिए यह शुभंकरी कहलाईं। अर्थात इनसे भक्तों को किसी भी प्रकार से भयभीत या आतंकित होने की कतई आवश्यकता नहीं। उनके साक्षात्कार से भक्त पुण्य का भागी बनता है। यह देवी ग्रह बाधाओं को भी दूर करती हैं और अग्नि, जल, जन्तु, शत्रु और रात्रि भय दूर हो जाते हैं। इनकी कृपा से भक्त हर तरह के भय से मुक्त हो जाता है।  

  • शीतला माता की कथा | Mata Sheetala

    भगवान शंकर के स्वेद से उत्पन्न हुए ज्वरासुर ने जब बच्चों को अपने प्रकोप का भाजन बनाना प्रारम्भ किया तो देवी आदिशक्ति ने संसार को ज्वरासुर से मुक्त करने का निश्चय किया। महादेव ने देवी को समझाया कि ज्वरासुर को समाप्त करना संसार के संतुलन के लिए सही नहीं होगा, इसलिए उसका अन्त करने के स्थान पर उसको नियंत्रित करना उचित रहेगा। शिवजी का सुझाव मानकर देवी ने माता शीतला के रूप में प्रकट होकर ज्वरासुर को अपने वश में कर उसे गर्दभ रूप में अपने वाहन की तरह स्वीकार किया। प्रतिवर्ष शीतला अष्टमी के दिन माताएं अपनी संतानों को बीमारियों से मुक्त रखने की मनोकामना के साथ शीतला माता की पूजा करती हैं। Story of Mata SheetalaWhen demon Jvarasur, who was born out of the sweat of Mahadev, started targeting kids and they all started falling sick, Devi Adishakti decided to get rid of him.Mahadev advised Devi Adishakti that Jvarasur’s existence is essential for the balance of the universe hence instead of killing him, she should maybe just suppress him. Following advice of Bhagwaan Shankar, Devi Adishakti appeared in the form of Mata Sheetala and controlled Jvarasur by making him her ride in the form of a donkey. Every year on the day of Sheetala Ashtami, mothers worship the healing goddess in order to protect their children from various disease.  

  • रम्भा | Rambha

    समुद्र मंथन से प्रकट हुई रम्भा इन्द्रसभा की सुंदरी अप्सराओं में एक थी। कुबेर के पुत्र नलकुंवर और अप्सरा रम्भा एक दूसरे से प्रेम करते थे। जब रावण ने रम्भा को देखा तो उनकी सुंदरता पर मोहित होकर उनको पाना चाहा। रम्भा के मना करने पर रावण ने रम्भा के साथ बल प्रयोग किया। जब नलकुंवर को इसका पता चला तो उन्होंने रावण को शाप दे दिया की अगर वह किसी भी स्त्री को बिना उसकी सहमति के बलपूर्वक पाने का प्रयास करेगा तो वह भस्म हो जाएगा। Rambha Appearing from the churning of the ocean, Rambha was one of the most beautiful Apsaras in Indra’s court. She was the companion of Nalakuvara, son of Kubera. When Ravan saw Rambha, he got infatuated by her beauty and wanted to have her for himself. However when Rambha refused his advances, he forced himself onto her. When Nalakuvara found out about this he cursed Ravan that if he tried to force himself onto any woman without her consent he would burn to ashes.

  • प्रमलोचा | Pramlocha
    1 min 10 sec

     कण्डु ऋषि की तपस्या से भयभीत होकर इन्द्र ने अप्सरा प्रमलोचा को उनके तप को भंग करने के लिए पृथ्वी पर भेजा। प्रमलोचा के मधुर गीतों को सुनकर ऋषि ने अपनी आँखें खोली और उनकी सुंदरता के वशीभूत हो गए। ऋषि कण्डु ने तपस्या छोड़कर प्रमलोचा के साथ विवाह कर लिया और गृहस्थ जीवन जीने लगे।  प्रमलोचा के प्रेम में मोहित ऋषि को काल की गति का भी अनुमान नहीं रहा। एक दिन संध्या के समय ऋषि कण्डु संध्या वंदन के लिए जाने लगे तो प्रमलोचा ने उनसे पूछा कि इतने वर्षों बाद एकाएक ऋषि को संध्या वंदन करने की कैसे सूझी। ऋषि के पूछने पर प्रमलोचा ने उनको बताया कि उनको तप किए 907 वर्ष हो चुके हैं।  प्रमलोचा की बात सुनकर ऋषि मोहपाश से मुक्त हुए और प्रमलोचा को पुनः स्वर्गलोक भेजकर भगवान विष्णु की पूजा में लीन हो गए।   PramlochaAfraid of the severe penance of Rishi Kandu, Indra sent Apsara Pramalocha to distract him. Pramalocha came to the hermitage of Rishi Kandu and started singing in her melodious voice. Hearing this, the sage opened his eyes and got captivated by the divine beauty of her. He decided to marry her and live a domestic life. Sage Kandu was under the impression that not a single day has passed since their union. It was almost evening and he went to perform the evening rites. Pramlocha asked her husband “where are you going” to which he informed his intention. Confused, Pramlocha inquired, “why today, for many years have passed you never performed any rites since we met” Baffled Kandu could not believe his ears and demanded to know exactly how many years had passed. Pramlocha told Kandu that it has been 907 years since the day they got married. Angry Kandu ordered Pramlocha to go back to heaven and also said that he will not curse her for she has been his wife and due to this kind act of kindness God Vishnu blessed Kandu. 

  • पुंजिकस्थला | Punjikasthala
    1 min 7 sec

    अप्सरा पुंजिकस्थला को अपनी सुंदरता पर बड़ा घमण्ड था। एक बार ऋषि दुर्वासा देवराज इन्द्र के साथ वार्तालाप कर रहे थे और पुंजिकस्थला बारबार सभा में आजा रही थी। ऋषिवर ने खिन्न होकर पुंजिकस्थला को रोका, परन्तु अपने घमण्ड में चूर अप्सरा ने ऋषि की बात अनसुनी कर दी अपितु खिलखिलाकर हँसने लगी। दुर्वासा ऋषि को इस पर बड़ा क्रोध आया और उन्होंने उसे वानर रूप में जन्म होने का शाप दे दिया। दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण पुंजिकस्थला ने वानर राज कुंजर की पुत्री अंजना के रूप में जन्म लिया और वानर राज केसरी के साथ विवाह कर श्री हनुमान जी की माता बनी। Punjikasthala Anjana Apsara Punjikasthala had an enchanting body that complimented her sharp facial features. She was very proud of her beauty and dancing abilities. Once, Rishi Durvasa was having a serious conversation with Indradev and Punjikasthala would go in and out of the discussion chamber. This was not going well with Rishi Durvasa and he asked her to stop. Instead of regretting her actions and apologizing to the great sage, she started giggling. This made Rishi Durvasa very angry and he cursed her to be born as a monkey in her next birth.As per Rishi Durvasa’s curse, she was born as the daughter of the monkey king, Kunjara. She got married to Kesari and gave birth to Shri Hanuman ji. In this birth she was known as Anjana.

  • ब्रह्मपुत्र | Brahmaputra

    प्राचीन काल में शान्तनु नाम के एक महर्षि हुआ करते थे, जिनकी पत्नी थी अमोघ।  अमोघ के ब्रह्मबीज का सेवन करने के कारण उनकी नाक से जल की धार निकली, जिससे ब्रह्मकुण्ड का निर्माण हुआ।  इसी ब्रह्मकुण्ड से निकली नदी को ब्रह्मबीज से उत्पन्न होने के कारण ब्रह्मपुत्र भी कहते हैं।    Brahmaputra  In ancient times there was a great sage named Shantanu, his wife was Amogha. Once Amogha consumed Brahmabeej, that resulted into a stream of water from her nostrils. That stream of water filled the Brahmakund. The river originating from Brahmakund is called Brahmaputra, because of emerging from Brahmabeej.   

  • घृताची | Ghritachi

    भगवान विश्वकर्मा ने रितध्वज मुनि के शाप के कारण वानर रूप में जन्म लिया। जब विश्वकर्मा जी ने मुनिवर से इस शाप से मुक्ति का उपाय पूछा तो उन्होंने कहा कि अप्सरा घृताची के साथ पुत्र प्राप्ति के बाद ही वो इस शाप से मुक्त हो सकते हैं। वानर रूपी भगवान विश्वकर्मा में अप्सरा घृताची से जिस पुत्र को जन्म दिया वह थे सुग्रीव की वानर सेना के शिल्पकार नल, जिनके संरक्षण में श्रीराम सेतु का निर्माण हुआ।GhritachiDue to a curse from Ritdhwaj muni, Bhagwaan Vishwakarma had to be born as a monkey. When He asked the rishi, how he can liberate himself from this curse the sage told him to produce a son through apsara Ghritachi.

  • सीता स्वयंवर | Sita Swayamvar
    1 min 37 sec

    महाराज निमि की छठी पीढ़ी में हुए राजा देवरात को देवताओं ने शिवजी का दैवी धनुष धरोहर के तौर पर दिया था। वह धनुष कई पीढ़ियों से मिथिला मे महल में पूरे सत्कार के साथ रखा गया और जनक वंशी राजाओं द्वारा पूजित था।  एक बार राजा जनक सीरध्वज के समय में विदेह राज्य में भीषण अकाल हुआ। अपने पुरोहित शतानन्द जी के सुझाव पर राजा जनक ने अपनी पत्नी सुनैना के साथ मिथिला के खेतों में हल चलाया। एक जगह पर वह हल अटक गया, जमीन खोदने पर वहाँ पर एक सोने के पात्र में एक नवजात कन्या थी। राजा जनक ने उस कन्या को गोद ले लिया और उसे सीता नाम दिया।  जिस धनुष को उठाने के लिए पाँच हजार लोग लगते थे, वह एक बार देवी सीता ने बिना किसी की सहायता के उठा लिया, तो राजा जनक ने निर्णय लिया की वो अपनी पुत्री का विवाह उसी के साथ करेंगे जो इस धनुष में प्रत्यंचा चढ़ा पाएगा।  स्वयंवर में उपस्थित कोई भी राजा या राजकुमार शिवजी के धनुष को उठा भी नहीं पाया। इस प्रकार तिरस्कृत होने पर सभी राजाओं ने मिलकर मिथिला पर आक्रमण कर दिया।  एक वर्ष तक उनसे मिथिला की रक्षा करने के बाद राजा जनक ने देवताओं से सहायता मांगी, उन्होंने अपनी सेना भेजकर राजर्षि जनक की मदद की।   

  • लक्ष्मणा | Lakshmana
    1 min 15 sec

    बहुत लोगों को शायद यह बात पता नहीं होगी की भगवान श्रीकृष्ण और दुर्योधन समधी थे। दुर्योधन व भानुमति की पुत्री लक्ष्मणा को श्रीकृष्ण के पुत्र शाम्ब से प्रेम हो जाता है और शाम्ब लक्ष्मणा को उसके स्वयंवर से भगा कर ले जाते हैं। इस बात से क्रोधित दुर्योधन, शाम्ब को मारने के लिए सेना भेज देता है. अकेला शाम्ब पूरी कौरव सेना का सामना करने में असमर्थ होता है और बंदी बना लिया जाता हैं।  जब यह बात भगवान बलराम को पता चलती है तो वह अपने शिष्य दुर्योधन से शाम्ब को छोड़ देने के लिए कहते हैं। परन्तु दुर्योधन उनकी एक नहीं सुनता, इससे क्रोधित होकर हलधर अपने हल से पूरे हस्तिनापुर को खींच कर यमुना में डुबोने लगते हैं। प्रजा में इस स्थिति को लेकर हाहाकार मच जाता है और दुर्योधन को अंत में अपनी जिद छोड़ कर लक्ष्मणा और शाम्ब के विवाह को स्वीकृति देनी पड़ती है। LakshmanaLakshamana was the daughter of Duryodhan and Bhanumati. Shrikrishna’s son Shamb was in love with her and he abducted her from her swayamvar. An angry Duryodhan sent his entire army to stop and capture them. Shamb could not defeat the Hastinapur army and was captured.Later Balaram ji approached Duryodhan asking him to release his nephew, but Duryodhan declined. This angered Baldau and he started pulling the entire Hastinapur capital with his plough to drown it inside the Yamuna river. Afraid of this Duryodhana sought forgiveness and agreed for the union of his daughter and Shrikrishna’s son 

  • इला: वैवस्वत मनु की ज्येष्ठ संतान
    2 min 14 sec

    जब वैवस्वत मनु को वर्षों तक कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने गुरु वशिष्ठ की सहायता मांगी। गुरु वशिष्ठ ने वैवस्वत मनु और उनकी पत्नी श्रद्धा के साथ एक यज्ञ का आयोजन किया।देवी श्रद्धा ने मन ही मन एक पुत्री की कामना की तो यज्ञ के उपरांत उनके गर्भ से एक पुत्री इला का जन्म हुआ। परंतु वैवस्वत मनु को एक पुत्र की इच्छा थी। उन्होंने गुरु वशिष्ठ से अपनी इच्छा व्यक्त की तो गुरु ने इला को पुरुष बना दिया और उसका नाम सुद्युम्न रखा।एक बार सुद्युम्न सुमेरु पर्वत के जंगलों में एक हिरन का शिकार करते हुए एक उपवन में प्रवेश कर गए।उस उपवन में प्रवेश करते ही सुद्युम्न फिर से स्त्री बन गए। वह उपवन देवी पार्वती का क्रीड़ा स्थल था इसलिए शिवजी के प्रताप से उस उपवन में आने वाला कोई भी पुरुष स्त्री बन जाता था। सुद्युम्न जो की अब इला बन गए थे ने भगवान शंकर और देवी पार्वती से फिर से पुरुष बन जाने के लिए कहा।भगवान शंकर के प्रभाव से अब वो हर दूसरे महीने स्त्री से पुरुष में बदल जाते।

  • अप्सरा उर्वशी का जन्म
    1 min 26 sec

    नर और नारायण भगवान विष्णु के अवतार ऋषि थे। द्वापर युग में नारायण और नर ने श्रीकृष्ण और अर्जुन के रूप में अवतार लिया था। एक बार दोनों ऋषि भाई बद्रिकाश्रम में घोर तपस्या में लीन थे। उनकी तपस्या से इन्द्र को डर लगने लगा और उन्होंने स्वर्ग की सभी अप्सराओं को उनकी तपस्या में विघ्न डालने के उद्देश्य से भेजा। नारायण ने इन्द्र का ऐसा कृत्य देखकर एक पुष्प को अपनी जंघा पर रखकर एक सुंदरी अप्सरा प्रकट कर दी। उस अप्सरा की सुंदरता के समक्ष इन्द्र की भेजी हुई सभी अप्सराओं की सुंदरता फीकी थी।नारायण की जंघा जिसे उरु भी कहते हैं से जन्म लेने के कारण उस सुंदरी अप्सरा का नाम उर्वशी पड़ा।  

  • अशोकसुन्दरी
    1 min 27 sec

    एक बार भगवान् शंकर और माता पार्वती मेरु पर्वत पर नंदनवन में विहार कर रहे थे और वे इच्छापूर्ति करने वाले कल्पवृक्ष के पास रुके।  पार्वती जी ने कल्पवृक्ष से उनके अकेलेपन को दूर करने के लिए एक पुत्री की इच्छा प्रकट की। कल्पवृक्ष ने उनकी इच्छा पूर्ण करते हुए उनको एक सुन्दर पुत्री प्रदान की जिसका नाम अशोकसुन्दरी रखा, क्योंकि उस सुंदरी का जन्म माता पार्वती का शोक हरण करने के लिए हुआ था।  बाद में उनका विवाह पुरुरवा के पौत्र चंद्रवंशी राजा नहुष के साथ हुआ और यति और ययाति नामक पुत्र हुए।  देवी अशोकसुन्दरी की कथा का वर्णन पद्म पुराण में मिलता है। देवी को बाल त्रिपुरा सुंदरी के नाम से भी जाना जाता है।

  • नहुष का पतन
    1 min 34 sec

    इन्द्र का पद पाने के बाद नहुष का मन घमंड से भर गया और वो ऋषि मुनियों को अपमानित करने लगा। यहाँ तक की उसने इंद्राणी शची के साथ विवाह करने का हठ ठान लिया। शची ने उसके विवाह प्रस्ताव को स्वीकार करने का नाटक करते हुए एक शर्त रखी की देवराज नहुष ऋषियों द्वारा उठाई पालकी में बैठकर विवाह के लिए आयें। मद में चूर नहुष ने शची की शर्त मान ली। जब ऋषिगण नहुष की पालकी लेकर चल रहे थे तो वो उनसे बारबार “सर्प, सर्प” कहकर जल्दी चलने को कहने लगा।उसके इस व्यवहार पर ऋषि अगस्त्य ने क्रोधित होकर उसे एक विशाल सर्प बनकर पृथ्वी लोक पर चिरकाल तक रहने का श्राप दे दिया। इस प्रकार नहुष के पतन के बाद ऋषियों ने इन्द्र को पुनः उनके सिंहासन पर स्थापित कर दिया।  

  • नहुष का उद्धार
    1 min 35 sec

    स्वर्ग से पतन होने के बाद नहुष एक अजगर के रूप में पृथ्वी पर जीवन व्यतीत करने लगा। उनके विशाल शरीर के कारण वह ज्यादा हिलडुल नहीं सकते थे और जो भी उनके रास्ते आता उसे खाकर जीवन बिताते। अपने जीवन के अंतिम समय में जब पांडव हिमालय यात्रा पर थे तब अजगर रूपी नहुष ने भीम को पकड़ लिया। भीम अपनी सारी शक्ति लगाकर भी अजगर की पकड़ से नहीं निकल पा रहे थे। जब युधिष्ठिर को इस बात का पता चल की अजगर भीम को खाने वाला है तो उन्होंने अजगर से भीम को छोड़ने को कहा। धर्मराज के पुत्र के साथ नहुष ने वार्तालाप किया और अंततः ऋषि अगस्त्य के श्राप से मुक्त होकर स्वर्ग को प्रस्थान किया।

  • रणछोड़
    1 min 49 sec

    जरासंध ने कंस के वध का बदला लेने के लिए श्रीकृष्ण पर सत्रह बार आक्रमण किया और हर बार मुंह की खाई। अंततः भगवान कृष्ण को हराने के लिए उसने कालयवन की सहायता माँगी। कालयवन को शिवजी से वरदान प्राप्त था कि युद्ध में कभी उसकी हार नहीं होगी। श्रीक़ृष्ण को पता था कि कालयवन को युद्ध में पराजित करना असंभव है, इसलिए जब उन्होंने कालयवन और जरासंध को उनकी ३० लाख सैनिकों के साथ देखा तो वो युद्धस्थल से भाग खड़े हुए। कालयवन ने श्रीकृष्ण का पीछा किया। श्रीकृष्ण बड़ी ही चतुराई से उस अंधेरी गुफा में जा छिपे जहाँ मुचुकुन्द निद्रा में लीन थे। कालयवन ने मुचुकुन्द को सोता हुआ देखकर सोचा कि वो श्रीकृष्ण हैं और उनको जोर की लात मार दी। इस प्रकार कालयवन के प्रहार से मुचुकुन्द की निद्रा भंग हो गई और इन्द्र के वरदान के अनुसार कालयवन वहीं भस्म हो गया। इस चतुर लीला के कारण भगवान श्रीकृष्ण का एक नाम रणछोड़ भी पड़ा। 

  • इन्द्र के पुत्र जयंत की कथा
    1 min 43 sec

    देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत ने एक बार भगवान राम के दैवी होने की परीक्षा लेने की सोची और एक कौवे के रूप में माता सीता को तंग करने लगा। जयंत ने अपनी चोंच से माता सीता के पैर में प्रहार किया, जिससे उनके पैर से रक्त बहने लगा। माता सीता का रक्त देखकर श्रीराम को अत्यंत क्रोध आया और उन्होंने एक घास के टुकड़े को अभिमंत्रित कर जयंत की ओर प्रहार किया। प्रभु श्रीराम की लीला से वह घास का टुकड़ा ब्रह्मास्त्र में बदल गया और जयंत के पीछे लग गया। जयंत अपनी जान बचाने के लिए सभी देवताओं के पास गए, परंतु कोई भी जयंत को श्रीराम के ब्रह्मास्त्र से नहीं बचा पाया। अंत में वह श्रीराम की शरण में गए और अपने जीवन की भिक्षा माँगी। श्रीराम ने जयंत के जीवन के बदले में ब्रह्मास्त्र से उनकी एक आँख ले ली। तभी से कहा जाता है कि कौवे काने होते हैं। 

  • मोरगांव गणपति मंदिर
    1 min 44 sec

    मोरगांव गणपति मंदिरपुणे शहर के निकट स्थित मोरगांव गणपति मंदिर अष्टविनायकों में सर्वप्रथम माना जाता है। यहां मोर पक्षी पर आरूढ़ भगवान् गणेश की प्रतिमा की अर्चना की जाती है। गणेश पुराण में वर्णित मान्यताओं के अनुसार मिथिला नरेश चक्रपाणि और उनकी पत्नी उग्रा बहुत दिनों तक निसंतान रहने के बाद भगवान् सूर्य की आराधना कर एक तेजस्वी पुत्र को प्राप्त किया। उस पुत्र का नाम उन्होंने सिंधु रखा। सिंधु अपने साथ एके अमृत कलश लेकर पैदा हुआ था, जिसके कारण जब तक वह कलश अक्षुण्य रहता, तब तक सिंधु की मृत्यु असम्भव थी। कलश को सदैव बचाए रखने हेतु सिंधु ने उसे निगल कर आपने पेट में छुपा लिया। अमरता पाने के कारण सिंधु अब अत्यधिक दुराचारी हो गया। उसके अत्याचार से प्रजा में हाहाकार मच गया। साधारण मानवों के साथसाथ सिंधु ने कई देवताओं को भी युद्ध में परास्त कर बंदी बना लिया। अंततः सिंधु से देवपुरी की रक्षा करने हेतु देवगण भगवान् श्रीगणेश के पास गुहार लेकर पहुंचे।कहते हैं इसी स्थान पर भगवान् गणेश, मयूर पक्षी पर आरूढ़ होकर पृथ्वी लोक पर आए थे और सिंधु के पेट में रखे हुई अमृत कलश को तोड़ कर उसका वध किया था। उसी दिन से मोर पर आरूढ़ भगवान् गणेश के मयूरेश्वर रूप की उपासना यहां पर की जाती है। 

  • सिद्धटेक सिद्धिविनायक मंदिर
    1 min 31 sec

    सिद्धटेक में स्थित सिद्धिविनायक मंदिर अष्टविनायकों में द्वितीय माना जाता है। यहां पर भगवान् गणेश की उपासना उनके सबसे प्रमुख रूप, ऋद्धिसिद्धि के देवता के रूप में की जाती है। पेशवा साम्राज्य की महान् रानी अहिल्याबाई होलकर जी के द्वारा इस मंदिर के गर्भ गृह का निर्माण कराया गया था।  पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब ब्रह्माजी सृष्टि का निर्माण करने के कार्य में मग्न थे, तब भगवान् विष्णु के कान से जन्मे मधु और कैटभ नामक दो राक्षसों ने इस कार्य में बाधा डालने हेतु वेदों को चुरा लिया। तब ब्रह्माजी इस समस्या का समाधान करने हेतु प्रभु श्रीहरि की शरण में आए। लगभग पांच हज़ार वर्ष तक चले एक युद्ध में अंततः भगवान् विष्णु ने मधुकैटभ का संहार कर उनसे वेदों को मुक्त करवाया। मधुकैटभ वध के समय भगवान् श्रीगणेश से सिद्धि और विजय की कामना करते हुए श्रीहरि ने इसी स्थान पर सिद्धिविनायक की स्थापना की थी। 

  • चिंतामणि गणपति, पुणे
    2 min 8 sec

    अष्टविनायक में पांचवें गणेश हैं चिंतामणि गणपति। यहाँ गणेश जी ‘चिंतामणी’ के नाम से प्रसिद्ध हैं, जिसका अर्थ है कि “यह गणेश सारी चिंताओं को हर लेते हैं और मन को शांति प्रदान करते हैं”.पौराणिक मान्यताओं के अनुसार राजा अभिजीत और रानी गुणवती का गणासुर नामक एक पुत्र हुआ। वह गरीबों को परेशान करता और साधुओं की तपस्या में विघ्न डालता था। गणासुर एक बार अपने मित्रों के साथ शिकार पर गया। उस जंगल में कपिल ऋषि का आश्रम था। ऋषि ने गण का स्वागत किया तथा उसे और उसके मित्रों को भोजन पर आमंत्रित किया। भगवान इंद्र ने ऋषि कपिल को चिंतामणि दी थी, जिससे जो इच्छा मांगो, वह पूरी होती थी। उसी मणि का उपयोग करके कपिल ऋषि ने गणासुर के लिए सभी तरह के खाद्य पदार्थों का सृजन किया। इस प्रकार की अद्भुत मणि को देखकर गणासुर के मन में उसे प्राप्त करने हेतु लालसा जाग उठी। अत: गणासुर ने ऋषि के हाथ से बलपूर्वक वह रत्न हथिया लिया।  उसके बाद कपिल ऋषि ने भगवान गणपति की आराधना की। गणपति, ऋषि की भक्ति से प्रसन्न हुए तथा उन्होंने गणासुर का वध करके उससे चिंतामणि वापस ले लिया। जब भगवान् गणेश ने कपिल ऋषि को चिंतामणि वापस करना चाहा, तो उनके प्रति आभार व्यक्त करते हुए कपिल मुनि ने सदैव के लिए चिंतामणि गणेशजी को भेंट कर दी। आज भी वह मणि गणेशजी के गले में एक हार के साथ शोभा पाती है। कथाओं के अनुसार भगवान् गणेश ने गणासुर का वध, एक कदंब के वृक्ष के नीचे किया था, इसीलिए उस स्थान को कदंब तीर्थ भी कहा जाता है। 

  • भगवान परशुराम के शिष्य – भीष्म पितामह
    1 min 22 sec

    भगवान परशुराम के शिष्य – भीष्म पितामह शांतनु को छोड़कर जाने के बाद देवी गंगा ने देवव्रत को एक राजा में होने वाले सभी गुणों की शिक्षा दी। युद्धकला में निपुणता पाने के लिए उन्होंने अपने पुत्र को भगवान परशुराम के पास शिक्षा लेने के लिए भेजा। भगवान परशुराम ने देवव्रत को सभी दैवी अस्त्रशस्त्रों की शिक्षा दी और देवव्रत भी एक उत्तम शिष्य की भांति युद्धकला में दक्ष हो गए। जब भीष्म ने राजकुमारी अम्बा से विवाह करने से मना कर दिया तो वो भगवान परशुराम के पास गयीं और उनसे अनुरोध किया की वो भीष्म को उनकी प्रतिज्ञा तोड़कर विवाह के लिए मना लें। भीष्म ने भगवान परशुराम की बात नहीं मानी और दोनों युद्धाओं के बीच कुरुक्षेत्र के मैदान में एक भीषण युद्ध छिड़ गया। इक्कीस दिनों तक युद्ध के बाद अंत में भीष्म ने वसुओं का प्रसवापास्त्र अपने गुरु पर चलाने की सोची, जिसका तोड़ भगवान परशुराम के पास नहीं था। अंत में देवर्षि नारद और परशुराम जी के दादा रिचीक मुनि ने दोनों योद्धाओं को यह युद्ध रोकने को कहा और अम्बा भीष्म से बदला लेने की लिए शिवजी की तपस्या करने चली गयी।  

  • दुंदुभी - एक विशाल बैल दानव( Dundubhi- ek vishal bail danav)
    1 min 53 sec

    जैसे देवताओं के शिल्पकार विश्वकर्मा हैं, वैसे ही दानवों में मयासुर शिल्पकार हैं। महाभारत काल में इन्द्रप्रस्ठ का महल मयासुर की शिल्पकला का उदहारण है। मयासुर की पुत्री मंदोदरी रावण की पत्नी थी। मयासुर के सो और पुत्र थे दुंदुभि और मायावी। दुंदुभि का शरीर एक विशालकाय भैंसे के समान था और वो हज़ारों हाथियों से भी ज्यादा बलशाली था। अपने बल के घमंड से चूर एक दिन वो हिमवान पर्वत को द्वंद्व के लिए ललकारने लगा। हिमवान ने उससे कहा,”मुझसे द्वंद्व करने के बजाय किष्किंधा में इंद्र का पुत्र वाली राजा है, उससे द्वंद्व करो।“दुंदुभि ने किष्किंधा जाकर वाली को ललकारा। वाली और दुंदुभि का द्वंद्व कई दिनों तक चला और अंत में वाली ने दुंदुभि का वध कर दिया।

  • ऋषि अष्टावक्र की कहानी
    2 min 53 sec

    अष्टावक्र ऋषि कहोदा और आरुणि ऋषि की पुत्री सुजाता के पुत्र थे। उनका शरीर टेढ़ामेढ़ा होने के कारण उनका नाम अष्टावक्र था। जब वह अपनी माँ के पेट में थे तब अपने पिता के अध्ययन के समय कोई गलती हो जाने पर माँ के पेट से आवाज़ कर पिता तो सही करने की कोशिश करते थे। इसीलिए गुस्से में पिता ने उन्हें अष्टावक्र होने का शाप दे दिया। जब अष्टावक्र बहुत छोटे थे, वे शास्त्रार्थ करने राजा जनक की नगरी गए। वहां वंदिन नामक ज्ञानी से शास्त्रार्थ हार गए और शास्त्रार्थ की शर्त के अनुसार उनको पानी में डुबो दिया गया। जब अष्टावक्र १० वर्ष के हुए, उनको उनकी माता ने पिता के विषय में बताया। माता की बात सुनकर अष्टावक्र वंदिन के साथ शास्त्रार्थ करने राजा जनक के यहाँ आये। राजा जनक बालक से मिलकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने वंदिन के साथ शास्त्रार्थ करने की अनुमति दे दी। अष्टावक्र ने अपने ज्ञान से वंदिन को पराजित कर दिया और अपने पिता तथा अन्य ज्ञानियों को मुक्त करा दिया। उनके पिता अपने पुत्र के ज्ञान से अत्यंत प्रभावित हुए और उनको अपने शाप की गलती का प्रायश्चित हुआ। उन्होंने अष्टावक्र को एक दिव्य सरोवर में स्नान करने को कहा जिससे उनका शरीर ठीक हो गया। राजा जनक ने अष्टावक्र को अपना गुरु मान लिया। दोनों के बीच हुए संवाद को अष्टावक्र गीता के नाम से जाना जाता है।

  • सम्पाती और जटायु
    2 min 9 sec

    सूर्यदेव के सारथी अरुण के दो पुत्र हुए, सम्पाती और जटायु। दोनों महाबलशाली पक्षी एक बार आपस में प्रतिस्पर्धा करते हुए आसमान में ऊँचा उड़ने लगे। उड़तेउड़ते जटायु सूर्यदेव के अत्यंत समीप पहुँच गया और सूर्यदेव की गर्मी से उसके पंख जलने लगे। सम्पाती ने जब अपने भाई को इस प्रकार जलते हुए देखा तो उसने जटायु को अपने पंखों से धक् दिया।  इस प्रकार सम्पाती के पंख जल गए और उसने अपने उड़ने की क्षमता खो दी। जब वानर सेना सीता माता को खोजती हुई भटक रही थी तो उनकी भेंट सम्पाती से हुई। सम्पाती ने जब रावण के हाथों जटायु की मृत्यु की बात सुनी तो उसे बहुत दुःख हुआ और उसने सीता जी को ढूंढ़ने में वानर सेना की सहायता की।

  • तिलोत्तमा
    2 min 57 sec

    हिरण्यकशिपु के वंश में सुंद और उपसुन्द नाम के दो भयानक दैत्य हुए। दोनों भाई एकदूसरे की परछाई की तरह थे। उन्होंने त्रिलोकों पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से विंध्याचल पर्वत पर जाकर वर्षों ब्रह्मदेव की तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर जब ब्रह्मदेव ने उनसे वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने अमर होने का वरदान माँगा। जब ब्रह्मदेव ने कहा की ऐसा वर देना सृष्टि के नियमों के विपरीत है तो उन्होंने वरदान माँगा की उनकी मृत्यु एकदूसरे के हाथों ही हो।  ऐसा वरदान मिलने पर दोनों दैत्य और भी ज्यादा उत्पात करने लगे और तीनों लोकों के वासियों पर अत्याचार करने लगे। सभी देवगणों ने ब्रह्मदेव के पास जाकर उनसे मुक्ति का उपाय पूछा तो ब्रह्मदेव ने विश्वकर्मा को आदेश देकर एक अलौकिक सुंदरी बनाने को कहा। विश्वकर्मा जी ने सारे संसारों के सर्वश्रेष्ठ रत्नों से तिलतिल जोड़कर एक सुन्दर अप्सरा का निर्माण किया और उसे तिलोत्तमा नाम दिया। ब्रह्माजी ने तिलोत्तमा को आदेश दिया की वो सुंद और उपसुन्द में विवाद करा दे।  तिलोत्तमा इस प्रकार आदेश पाकर जिस वन में सुंद और उपसुन्द विश्राम कर रहे थे वहाँ गयी। जैसे ही दोनों दैत्यों ने तिलोत्तमा को देखा वो उसे पाने के लिए आपस में लड़ने लगे और एकदूसरे से इस प्रकार द्वंद्व करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए।  महाभारत में यह कथा देवर्षि नारद ने पांडवों को उनके द्रौपदी से विवाह के पश्चात् सुनाई थी जिससे उनमें कभी भी द्रौपदी को लेकर आपसी मतभेद न उत्पन्न हो।

  • खाण्डवदहन के उत्तरजीवी
    1 min 40 sec

    जब अग्निदेव ने भगवान् कृष्ण और अर्जुन की सहायता से खांडव वन को उसमें रहने वाले समस्त जीवजंतुओं के साथ भस्म कर दिया तो केवल ६ प्राणी उस अग्निकांड से बच सके थे।  खांडव दहन से बचने वाले वो ६ जीव थे,  मंदपाल ऋषि के पुत्र चार सारङ्ग पक्षी जरतारी, सरीसृक्त, स्तम्बमित्र, और द्रोण। दैत्यों का शिल्पकार और रावण की पत्नी मंदोदरी का पिता मयासुर, जिसने बाद में पांडवों के लिए इंद्रप्रस्थ में मयसभा का निर्माण किया।  और तक्षक नाग का पुत्र अश्वसेन, जिसने अर्जुन से इस अग्निकांड का बदला लेने के लिए कुरुक्षेत्र के युद्ध के समय कर्ण से सहायता मांगी थी और कर्ण के चलाए हुए तीर पर सवार होकर अर्जुन को डसने का प्रयास किया था। 

  • गंगापुत्र | Why Ganga killed her own sons?
    2 min 21 sec

    एक बार आठों वसु अपने परिवार के साथ जंगल में भ्रमण कर रहे थे उनमें से एक प्रभास की पत्नी की दृष्टि गुरु वशिष्ठ की गाय नंदिनी पर पड़ी। उसने अपने पति से उस दैवी गाय को पाने की इच्छा प्रकट की। प्रभास ने अपने अन्य भाइयों के साथ मिलकर वह गाय चुरा ली।  जब ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को यह बात पता चली तो उन्होंने आठों वसु को मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। उनके पश्चाताप करने पर ब्रह्मर्षि ने कहा,मेरे दिए हुए शाप के अनुसार तुम सभी मनुष्य योनि में जन्म तो लोगे और जन्म लेते ही उस योनि को त्यागकर पुनः देवत्व को प्राप्त करोगे। परन्तु इस प्रभास को शीघ्र मुक्ति नहीं मिलेगी और उसे अनेक वर्षों तक मनुष्य योनि में रहना पड़ेगा। उसके बाद सभी वसु देवी गंगा की शरण में गए और उनसे प्रार्थना की कि उनका मनुष्य योनि में जन्म उनके पुत्रों के रूप में हो और वही उनको मुक्ति प्रदान करें।  देवी गंगा ने एक सुन्दर स्त्री के रूप में प्रकट होकर महाराज शांतनु से विवाह किया और एकएक करके सात वसुओं को जन्म देकर तुरंत ही मनुष्य योनि से मुक्ति प्रदान की परन्तु आठवें वसु के जन्म के समय शांतनु ने गंगा को रोक दिया। वह आठवाँ पुत्र वसु प्रभास का अवतार देवव्रत था जो कि संसार में भीष्म के नाम से प्रसिद्द हुआ।

  • कुरुक्षेत्र क्यों?
    1 min 26 sec

    कुरुक्षेत्र का नाम राजा कुरु के नाम पर पड़ा।  महाराज कुरु ने कुरुक्षेत्र की भूमि पर वर्षों हल चलकर उसका दोहन किया और इंद्रदेव को प्रसन्न किया। महाराज कुरु के इस कठिन उद्यम से प्रसन्न होकर इंद्रदेव ने उनको वरदान दिया था की इस भूमि पर जो भी वीरगति को प्राप्त होगा वह सीधा स्वर्ग को गमन करेगा।  श्रीकृष्ण और भीष्म पितामह यह बात जानते थे इसलिए उन्होंने महाभारत के युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र के मैदान को चुना।

  • दक्ष का चंद्र को शाप
    1 min 21 sec

    दक्ष प्रजापति की सत्ताईस कन्याओं का विवाह चंद्र के साथ हुआ। चंद्र उनमें से रोहिणी को अधिक प्रेम करते थे और बाकी छब्बीस को समय नहीं देते थे। जब दक्ष को यह बात पता चली तो उनको चंद्र पर अत्यंत क्रोध आया और उन्होंने चंद्र को गलगलकर समाप्त हो जाने का शाप दे दिया। नारद मुनि के सुझाव पर चंद्र ने भगवान् शंकर की शरण ली और शिवजी ने उनको दक्ष के शाप से बचा लिया। शिवजी का इस प्रकार चंद्र को बचाना दक्ष प्रजापति को अच्छा नहीं लगा और यह उन दोनों के बीच मनमुटाव का एक कारण बना।

  • शक्तिपीठ
    1 min 13 sec

    देवी सती का जला हुआ मृत शरीर देखकर भगवान् शंकर दुःख के सागर में डूब गए और यज्ञ मंडप से सती का आधा जला हुआ शरीर लेकर विश्व में भ्रमण करने लगे।  शिवजी को उनके शोक से मुक्त करने के लिए भगवान् विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के टुकड़ेटुकड़े कर दिए।  देवी सती के शरीर के अलगअलग अंग इस धरती पर जहाँ भी गिरे, उन स्थानों को शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है।

  • कावेरी नदी की उत्पत्ति

    जब ऋषि अगस्त्य दक्षिण भारत की ओर जा रहे थे तो उन्होंने अपने कमंडल में देवनदी गंगा का पानी रख लिया। रास्ते में भगवान गणेश ने एक कौए का रूप धारण कर उनके कमंडल में छेद कर दिया और उस छेद से ऋषि के कमंडल का गंगाजल बह निकला। ऋषि अगस्त्य के कमंडल से निकली उसी जलधारा को कावेरी नदी के नाम से जानते हैं और गंगाजल से बने होने के कारण उसे दक्षिण की गंगा भी कहते हैं।  

  • ऋषि जिन्होंने समुद्र को पी लिया

    इन्द्र और वृत्रासुर के बीच हुए देवासुर संग्राम के समय जब इन्द्र ने ऋषि दधीचि की अस्थियों से बने वज्र से वृत्र का वध कर दिया तब बचे हुए असुर अपनी जान बचाने के लिए समुद्र के अंदर छुप गए। इन्द्र समेत सभी देवताओं ने अगस्त्य ऋषि की शरण ली और उनसे इस समस्या का समाधान माँगा। देवताओं की मदद करने के उद्देश्य से अगस्त्य ऋषि ने अपनी दैवी शक्तियों का प्रयोग करते हुए समुद्र का सारा जल पी लिया। असुरों को समाप्त करने के बाद जब देवताओं ने ऋषि से जल को पुनः समुद्र में छोड़ने के लिए कहा तो उन्होंने अपने मूत्र के रूप में सारा जल वापस निकाल दिया।  

  • नवरात्रि का पहला दिन - माँ शैलपुत्री

    शैलपुत्री दुर्गाजी पहले स्वरूप में शैलपुत्री के नाम से जानी जाती हैं। ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा। नवरात्र पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं। इनके दाएँ हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल होता है। यही सती के नाम से भी जानी जाती हैं। 

  • माँ चंद्रघंटा
    1 min 29 sec

    माँ दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम चन्द्रघण्टा है। नवरात्रि उपासना में तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है और इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजनआराधन किया जाता है। इस दिन साधक का मन मणिपूर चक्र में प्रविष्ट होता है। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगन्धों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियाँ सुनाई देने लगती हैं। इन क्षणों में साधक को बहुत सावधान रहना चाहिए। देवी का यह स्वरूप परम शान्तिदायक और कल्याणकारी माना गया है। इसी लिए कहा जाता है कि हमें निरन्तर उनके पवित्र रूप को ध्यान में रखकर साधना करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है। इस देवी के मस्तक पर घण्टे के आकार का आधा चन्द्र है। इसी लिए इस देवी को चन्द्रघण्टा कहा गया है। इनके शरीर का रंग सोने के समान बहुत चमकीला है। इस देवी के दस हाथ हैं। वे खडग और अन्य अस्त्रशस्त्र से विभूषित हैं। सिंह पर सवार इस देवी की मुद्रा युद्ध के लिए तैयार रहने की है। इनके घण्टेसी भयानक ध्वनि से अत्याचारी दानवदैत्य और राक्षस काँपते रहते हैं। नवरात्रि में तीसरे दिन इसी देवी की पूजा का महत्व है। इस देवी की आराधना से साधक में वीरता और निर्भयता के साथ ही सौम्यता और विनम्रता का विकास होता है। इसलिए हमें चाहिए कि मन, वचन और कर्म के साथ ही काया को विहित विधिविधान के अनुसार परिशुद्धपवित्र करके चन्द्रघण्टा के शरणागत होकर उनकी उपासनाआराधना करें। इससे हम सारे कष्टों से मुक्त होकर सहज ही परम पद के अधिकारी बन सकते हैं। यह देवी कल्याणकारी है। 

  • माँ कुष्मांडा
    1 min 21 sec

    नवरात्रपूजन के चौथे दिन कुष्माण्डा देवी के स्वरूप की ही उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन अदाहत चक्र में अवस्थित होता है।नवरात्रि में चौथे दिन देवी को कुष्माण्डा के रूप में पूजा जाता है। अपनी मन्द, हल्की हँसी के द्वारा अण्ड यानी ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्माण्डा नाम से जाना गया है। जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अन्धकार ही अन्धकार था, तब इसी देवी ने अपने अल्प हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। इसी लिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है। इस देवी की आठ भुजाएँ हैं, इसलिए ये अष्टभुजा कहलाईं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमलपुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। इस देवी का वाहन सिंह है और इन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है। संस्कृत में कुम्हड़े को कुष्माण्ड कहते हैं इसलिए इस देवी को कुष्माण्डा। इस देवी का वास सूर्यमण्डल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इसी लिए इनके शरीर की कान्ति और प्रभा सूर्य की भाँति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज से दसों दिशाएँ आलोकित हैं। ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में इन्हीं का तेज व्याप्त है। अचंचल और पवित्र मन से नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की पूजाआराधना करना चाहिए। इससे भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है। यह देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है। विधिविधान से पूजा करने पर भक्त को कम समय में ही कृपा का सूक्ष्म भाव अनुभव होने लगता है। यह देवी आधियोंव्याधियों से मुक्त करती हैं और उसे सुख समृद्धि और उन्नति प्रदान करती हैं। अन्ततः इस देवी की उपासना में भक्तों को सदैव तत्पर रहना चाहिए। 

  • कात्यायनी
    1 min 12 sec

    माँ दुर्गा के छठे स्वरूप का नाम कात्यायनी है। इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होता है। योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। मान्यता इनकी उपासना और आराधना से भक्तों को बड़ी आसानी से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। उसके रोग, शोक, सन्ताप और भय नष्ट हो जाते हैं। जन्मों के समस्त पाप भी नष्ट हो जाते हैं। इसलिए कहा जाता है कि इस देवी की उपासना करने से परम पद की प्राप्ति होती है।   कात्य गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन ने भगवती पराम्बा की उपासना की तथा कठिन तपस्या की। उनकी इच्छा थी कि उन्हें पुत्री प्राप्त हो। माँ भगवती ने उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। इसलिए यह देवी कात्यायनी कहलाईं। इनका गुण शोधकार्य है। इसी लिए इस वैज्ञानिक युग में कात्यायनी का महत्व सर्वाधिक हो जाता है। इनकी कृपा से ही सारे कार्य पूरे हो जाते हैं। ये वैद्यनाथ नामक स्थान पर प्रकट होकर पूजी गईं। माँ कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा की थी। यह पूजा कालिन्दी यमुना के तट पर की गई थी। इसी लिए यह ब्रजमण्डल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनका स्वरूप अत्यन्त भव्य और दिव्य है। यह स्वर्ण के समान चमकीली हैं और दीप्त हैं। इनकी चार भुजाएँ हैं। दाईं तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। माँ के बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार है व नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है। इनका वाहन भी सिंह है। 

  • महागौरी
    1 min 2 sec

    माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। नाम से प्रकट है कि इनका रूप पूर्णतः गौर वर्ण है। इनकी उपमा शंख, चन्द्र और कुन्द के फूल से दी जाती है। अष्टवर्षा भवेद् गौरी यानी इनकी आयु आठ साल की मानी गई है। इनके सभी आभूषण और वस्त्र सफेद हैं। इसी लिए उन्हें श्वेताम्बरधरा कहा गया है। इनकि चार भुजाएँ हैं और वाहन वृषभ है इसी लिए इनको वृषारूढ़ा भी कहा गया है। इनके ऊपर वाला दाहिना हाथ अभय मुद्रा है तथा नीचे वाला हाथ त्रिशूल धारण किया हुआ है। इन्होंने ऊपर वाले बाएँ हाथ में डमरू धारण कर रखा है और नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा है। इनकी पूरी मुद्रा बहुत शान्त है। मान्यता पति रूप में शिव को प्राप्त करने के लिए महागौरी ने कठोर तपस्या की थी। इसी कारण से इनका शरीर काला पड़ गया लेकिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इनके शरीर को गंगा के पवित्र जल से धोकर कान्तिमय बना दिया। उनका रूप गौर वर्ण का हो गया। इसी लिए यह महागौरी कहलाईं। यह अमोघ फलदायिनी हैं और इनकी पूजा से भक्तों के तमाम पाप धुल जाते हैं। पूर्वसंचित पाप भी नष्ट हो जाते हैं। महागौरी का पूजनअर्चन, उपासनाआराधना कल्याणकारी है। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं। एक और मान्यता के अनुसार एक भूखा सिंह भोजन की तलाश में वहाँ पहुँचा जहाँ देवी उमा तपस्या कर रही होती हैं। देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गई, लेकिन वह देवी के तपस्या से उठने का प्रतीक्षा करते हुए वहीं बैठ गया। इस प्रतीक्षा में वह काफ़ी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठीं तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आ गई। उन्होने दया भाव और प्रसन्न्ता से उसे भी अपना वाहन बना लिया क्‍योंकि वह उनकी तपस्या पूरी होने के प्रतीक्षा में स्वंय भी तप कर बैठा। कहते है जो स्त्रियाँ माँ की पूजा भक्ति भाव सहित करती हैं उनके सुहाग की रक्षा देवी स्वंय करती हैं। मंत्र: श्वेते वृषे समारूढा श्वेताम्बरधरा शुचिः।महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा॥  इन्हें अन्नपूर्णा, ऐश्वर्य प्रदायिनी, चैतन्यमई भी कहा जाता है। महादेवप्रमोददा का अर्थ है महादेव को आनन्द देनेवाली । 

  • सिद्धिदात्री
    1 min 25 sec

    माँ दुर्गा की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री हैं। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। नवरात्र के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है। मान्यता है कि इस दिन शास्त्रीय विधिविधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। इस देवी के दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बाईं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प है। इनका वाहन सिंह है और यह कमल पुष्प पर भी आसीन होती हैं। नवरात्र में यह अन्तिम देवी हैं। हिमाचल के नन्दापर्वत पर इनका प्रसिद्ध तीर्थ है। मान्यतामाना जाता है कि इनकी पूजा करने से बाकी देवियों की उपासना भी स्वंय हो जाती है। यह देवी सर्व सिद्धियाँ प्रदान करने वाली देवी हैं। उपासक या भक्त पर इनकी कृपा से कठिन से कठिन कार्य भी आसानी से सम्भव हो जाते हैं। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आठ सिद्धियाँ होती हैं। इसलिए इस देवी की सच्चे मन से विधि विधान से उपासनाआराधना करने से यह सभी सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। कहते हैं भगवान शिव ने भी इस देवी की कृपा से यह तमाम सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इस देवी की कृपा से ही शिव जी का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण शिव अर्द्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। विधिविधान से नौंवे दिन इस देवी की उपासना करने से सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इनकी साधना करने से लौकिक और परलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है। मां के चरणों में शरणागत होकर हमें निरन्तर नियमनिष्ठ रहकर उपासना करनी चाहिए। इस देवी का स्मरण, ध्यान, पूजन हमें इस संसार की असारता का बोध कराते हैं और अमृत पद की ओर ले जाते हैं। मंत्र: सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।। गन्धर्व यक्ष आद्य का अर्थ स्वर्गलोकनिवासी उपदेवता गण, जिन में गन्धर्व, यक्ष, इत्यादि आद्य हैं, और असुर राक्षस, अमर देव गण भी, इन सब से जिसकी सेवा होती है ।सिद्धगन्धर्वयज्ञज्ञैरसुरैरमरैरपि यह पाठभेद भी दिखता है । यज्ञज्ञ वह जो यज्ञों के विधान आदि जानता हो 

  • पूतना | Putana
    1 min 33 sec

     जब कंस को पता चला कि देवकी के गर्भ से जन्म लेने वाला उसका काल वृन्दावन में पल रहा है, उसने पूतना नामक एक राक्षसी को बुलाया और आदेश दिया कि वह वृन्दावन जाकर पिछले कुछ दिनों में जन्म लेने वाले बच्चों को ढूंढकर उनका वध कर दे। कंस का आदेश पाकर पूतना ने माया से एक सुन्दर स्त्री का वेश धारण कर वृन्दावन जाकर नवजात शिशुओं को अपना विषैला दुग्ध पिलाकर मारने लगी। गाँव में हाहाकार सुनकर माता यशोदा श्रीकृष्ण को पालने में अकेला छोड़कर घर से बाहर निकलीं। कान्हा को घर में अकेला पाकर पूतना ने उन्हें गोद में उठा लिया और एक एकान्त स्थान पर ले जाकर उन्हें अपना विषैला दूध पिलाने के उद्देश्य से सीने से लगा लिया। बालक कृष्ण के दूध पीने से उनको तो कुछ नहीं हुआ परन्तु पूतना की प्राणवायु क्षीण होने लगी। पूतना ने बालक को अपने सीने से हटाने के भरसक प्रयास किया परन्तु असफल रही। अन्त में वो अपने राक्षस रूप में आकर धड़ाम से जमीन में गिर गई। जब यशोदा मैया और गाँव के अन्य लोगों ने आकर देखा तो कान्हा पूतना के शरीर के पास बैठे खेल रहे थे।    PutanaWhen Kamsa found out that the one to cause his death is already living in Vrindavan, he got restless and started thinking about the threat to his future and how to eliminate him, so he summoned gigantic Putna and ordered her to kill Krishna. Putna used illusion to transform herself into a beautiful maiden. She went to every home that had welcomed babies a few months before to offer her poisonous milk and because of which there was a huge cry in the village. Yashoda went out to investigate the same, leaving Krishna alone, which gave Putana the opportunity. She took Krishna to a secluded place to nurse him with the poisonous milk. But to her surprise Krishna started to cause her pain and when it was unbearable she screamed “Please spare me O, mighty one I can no longer bear this pain”. She utilized all her energy to detach Krishna from herself but died in the struggle. She fell with a huge thud that drew the attention of the entire village. They found Krishna unharmed and playing near the dead body of an asura.   

  • त्रिशंकु
    1 min 50 sec

    इक्ष्वाकु वंशी महाराज सत्यव्रत ने वर्षों धर्मपूर्वक प्रजापालन करने के बाद सोचा कि उनके जैसे महान राजा को अब स्वर्ग जाना चाहिए। अपनी इस इच्छा को लेकर वो अपने कुलगुरु वशिष्ठ के पास गए। गुरु वशिष्ठ ने ऐसा विचार संसार के नियमों के अनुकूल नहीं है कहकर उनको मना कर दिया। गुरु वशिष्ठ से निराश होकर त्रिशंकु उनके पुत्रों के पास गए और उनके समक्ष अपनी इच्छा प्रकट की, तथा इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यज्ञ का आयोजन करने को कहा। जब गुरु वशिष्ठ के पुत्रों को पता चला की उनके पिता पहले ही इस यज्ञ के लिए मना कर चुके हैं, उन्होंने कुलगुरु की आज्ञा अवहेलना करने के कारण सत्यव्रत को चांडाल त्रिशंकु बनने का शाप दे दिया। इस प्रकार दीन अवस्था में भटकते हुए त्रिशंकु की भेंट ऋषि विश्वामित्र से हुई, और जब उनको पता चला की गुरु वशिष्ठ ने पहले ही त्रिशंकु के लिए यज्ञ करने से मना कर दिया है, उन्होंने त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजने के लिए यज्ञ करने का निर्णय लिया। त्रिशंकु को इन्द्र ने स्वर्ग के द्वार से वापस भेज दिया और वो नीचे गिरने लगे तब ऋषि विश्वामित्र ने उनको अधर में ही रोक दिया और अपने समस्त तपोबल से पुनः उनको स्वर्ग भेजने लगे। इस पर देवताओं ने ऋषि विश्वामित्र से विनती की कि वो संसार के नियमों को इस प्रकार भंग ना करें। अंततः ऋषि विश्वामित्र ने देवताओं की बात मान ली और त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने के स्थान पर उनके लिए अधर में ही एक और स्वर्ग का निर्माण कर दिया।   TrishankuKing Satyavrata had lived a life of honesty and had ruled the kingdom fairly. One day, a thought crossed his mind that he wanted to attain heaven in his mortal form. He went to Brahmrishi Vasishtha and pleaded to do the rites. Brahmrishi Vasishtha refused as such a thing was against the laws of nature. King left the hermitage with a heavy heart and went to the sons of Brahmarshi Vasishtha, who inturn cursed the king to become a chandal, Trishanku for going against the advice of his guru.  Trishanku was deeply saddened and later met Sage Vishwamitra. Sage Vishwamitra heard the troubles of Trishanku and agreed to help him. Rishi Vishwamitra started the rituals and with the power of his penance, he made Trishanku rise up in the air and reach heaven. But Indradev refused Trishanku entry in heaven and Trishanku started to fall back on the earth. Trishanku cried for help. The great sage stopped Trishanku midair but upside down. All the Gods requested rishi Vishwamitra to stop his yagya and not go against the laws of the universe, to which the great rishi agreed. However, he did not want to break his promise to Trishanku, so he created a separate heaven for him at the place he was stuck, since then Trishanku’s heaven became a metaphor for getting stuck midway.  

  • कल्माषपाद
    1 min

    एक बार राजा कल्माषपाद अपनी पत्नी के साथ एक पतले पहाड़ी रास्ते से जा रहे थे। उसी रास्ते पर सामने से ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के पुत्र शक्ति महर्षि आ रहे थे। कौन पहले निकलेगा इस बात पर दोनों में विवाद हो गया और शक्ति महर्षि ने कल्माषपाद को राक्षस बन जाने का शाप दे दिया। ऋषि विश्वामित्र जो ये सब देख रहे थे, ने गुरु वशिष्ठ से बदला लेने का अच्छा मौका देखकर राक्षस किंकर को कल्माषपाद के अंदर प्रवेश करने को कहा। राक्षस किंकर और विश्वामित्र के प्रभाव में कल्माषपाद ने शक्ति महर्षि और गुरु वशिष्ठ के अन्य १०० पुत्रों को खा लिया। बारह वर्षों तक राक्षस योनि में रहने के बाद शान्त स्वभाव के गुरु वशिष्ठ ने कल्माषपाद को अपने पुत्र के शाप और विश्वामित्र ऋषि के प्रभाव से मुक्ति प्रदान की।  KalmashpadaKing Kalmashpada of Ayodhya was once going through a narrow path where he encountered the son of guru Vasishtha, Shakti maharshi coming from the opposite direction. Both started arguing over who had the right of passage and in a fit of anger Kalmashpada hit Shakti Maharshi with a whip.This behavior from the king angered Shakti Maharshi and he cursed the King to become a demon.Taking advantage of this situation Rishi Vishawamitra, who was witnessing this exchange from a distance, ordered demon Kinkar to possess the body of king Kalmashpada.Under the influence of rishi Vishwamitra the demon ate Shakti Maharshi and went on killing all one hundred sons of guru Vasishtha.Kalmashpada lived as a demon for twelve years after which he was relieved of the curse and the influence of rishi Vishwamitra by guru Vasishtha.  

  • कोसी । Kosi

    बिहार का शोक कही जाने वाली कोसी नदी का पौराणिक नाम कौशिकी है।कौशिकी राजा गाधि की पुत्री और ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की बड़ी बहन थीं, उनका एक नाम सत्यवती भी था। सत्यवती भृगु ऋषि के पुत्र रिचीक मुनि की पत्नी और जमदग्नि ऋषि की माता थीं। रामायण में यह कथा ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम और लक्ष्मण जी को सुनाई थी।  KosiAncient name for the Kosi river is Kaushiki. She was the daughter of king Gadhi and elder sister of Brahmarshi Vishwamitra. She was married to Richik muni, son of Bhrigu rishi and was mother of Jamadagni rishi and grandmother of Bhagwaan Parshuram. As per Ramayan, Brahmarshi Vishwamitra told this to Shriram and Lakshaman. 

  • कोटिलिंगेश्वर मंदिर, कोलार | Kotilingeshwara Temple
    1 min

    देवी अहल्या से अवैध सम्बन्ध बनाने के कारण देवराज इंद्र को सहस्र चक्षु बनने का शाप महर्षि गौतम से मिला था। इस पीड़ा से संतापित देवराज इंद्र ने स्वयं को महादेव के शरणागत करने का निश्चय किया। दक्षिण के पठार पर उन्होंने एक शिवलिंग की स्थापना कर दस लाख नदियों के जल से उसका अभिषेक किया।  उस जगह पर आज भी शिवभक्त देवराज इंद्र द्वारा प्रतिष्ठित उस शिवलिंग की उपासना करते हैं और मनचाहे फल की प्राप्ति होने के पश्चात वहां एक छोटा शिवलिंग और स्थापित कर देते हैं।  वर्षों से ऐसे ही भक्तों द्वारा स्थापित अनेक छोटे बड़े शिवलिंगों से सुसज्जित होने के कारण वह जगह आज कोटिलिंगेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है। Kotilingeshwara Temple, Karnataka  Devaraj Indra got the curse of becoming a sahasrachakshu, the one with a thousand eyes, from Maharshi Gautama for having an illicit relationship with his wife Devi Ahalya. Plagued by this agony, Devaraj Indra decided to seek refuge from Mahadev himself. On the southern plateau, he established a Shivling and anointed it with the water of one million rivers. Today, the devotees of Shiva worship this Shivling installed by Indra, seeking blessings from Mahadev. Upon attainment of the boon, the grateful pilgrims often place another Shivling besides the one set up by Indra years ago.   Adorned with innumerable small and large Shivlings installed by such devotees over the years, The place is famous today as Kotilingeshwara, the abode of ten million Shivlings.

  • मन्दोदरी द्वारा देवी सीता की रक्षा | Mandodari Protects Sita
    1 min 4 sec

    मन्दोदरी दानवों के शिल्पकार मयासुर और अप्सरा हेमा की पुत्री थी। वह अपनी माता के समान ही सुंदरी थीं। मयासुर जब लंका के स्वर्णमहल को बना रहे थे तब रावण की भेंट मन्दोदरी से हुई और दोनों का विवाह हो गया।मन्दोदरी को अपने पति के कुकर्मों का ज्ञान था परंतु वह सदा ही एक पतिव्रता नारी की भांति अपने पति को धर्म परायण सुझाव देती रहती थीं। देवी सीता का अपहरण करने के पश्चात रावण ने उनको विवाह के लिए मनाने के भरसक प्रयास किए। जब रावण के सभी प्रयास असफल हो गए तो उनके क्रोध से भरकर अपनी तलवार से देवी सीता का वध करना चाहा। मन्दोदरी ने तुरंत ही देवी सीता और रावण की तलवार के बीच में आकर उनके प्राणों की रक्षा की।   Mandodari Protects SitaMandodari was the daughter of Mayasur, the architect of demons and apsara Hema. She was as beautiful as her mother and Ravan wished to marry her as soon as he laid eyes on her. Mandodari was aware of the shortcomings of her husband and always tried her best to convince him to follow the righteous path. After Ravan kidnapped Devi Sita he tried to convince her to marry him. When devi Sita refused, he tried to convince her by threatening her and torturing her. When none of his tricks worked, in a fit of rage, Ravan decided to kill Devi Sita. Mandodari could not see this happen and stood between his sword and Devi Sita, thus saving her life.  

  • युयुधान (सात्यकि) | Yuyudhana (Satyaki)
    1 min 2 sec

     श्रीकृष्ण के दुर्योधन को दिए वचन के अनुसार यदुवंशियों की नारायणी सेना ने कौरवों की ओर से कुरुक्षेत्र युद्ध में भाग लिया, परन्तु वृष्णिवंशी महारथी सात्यकि ने अपने मित्र और गुरु अर्जुन के साथ युद्ध में भाग लिया। अर्जुन और भीम के बाद कौरव सेना को सबसे ज्यादा क्षति पहुँचाने वाले महारथी सात्यकि ही थे। युद्धभूमि में निहत्थे भूरिश्रवा का वध करने के कारण सात्यकि को सभी की निन्दा का पात्र बनना पड़ा। वर्षों बाद इसी घटना को लेकर कृतवर्मा के साथ विवाद प्रारम्भ हुआ, जो कि इतना बढ़ गया कि यदुवंश के अन्त का कारण बना। Yuyudhana SatyakiAs per Shrikrishna’s promise to Duryodhana, his Narayani sena fought for Kaurava in Mahabharat war, however Satyaki from the Vrishni clan chose to fight alongside his friend and teacher Arjuna. After Arjuna and Bhima Satyaki proved to be the most destructive for their Kaurava enemies. He had to suffer humiliation for beheading a weaponless Bhurishrava in the battlefield. Years later, when Kritavarma chose to humiliate him recalling this very incident their fight escalated and became the reason for destruction of the entire Yadav clan. 

  • भूरिश्रवा | Bhurishrava
    1 min 5 sec

    भूरिश्रवा, बाह्लीक के पौत्र तथा सोमदत्त के पुत्र थे। अभिमन्यु वध के समय पांडवों को चक्रव्यूह से बाहर रखने में भूरिश्रवा ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। अर्जुन ने रणभूमि में अन्याय से की गयी अभिमन्यु वध के लिए भूरिश्रवा का तिरस्कार किया था, जिसके कारण ग्लानि से भरे हुए भूरिश्रवा ने शस्त्र त्याग कर समाधि लगा ली। ऐसी अवस्था में सात्यकि ने युद्ध के नियमों का उल्लंघन करते हुए भूरिश्रवा का सर काट दिया। वर्षों बाद यही प्रसंग सात्यकी और कृतवर्मा के बीच झगड़े का कारण बना जिसके फलस्वरूप गांधारी के शाप के अनुसार यदुवंश का विनाश हुआ।  BhurishravaBhurishrava was son of Somdatta and grandson of Bahlika. He played a key role in the killing of Abhimanyu. When Arjuna taunted him for his participation in the dishonorable act of killing Abhimanyu against the rules of engagement, he felt ashamed. He threw away his weapons and sat down on the battlefield.At this point Satyaki leapt forward and beheaded a weaponless Bhurishrava with his sword. When Kritavarma taunted Satyaki recalling this incident, this became the cause of infighting among Yadav warriors and caused the destruction of the entire Yadav clan as cursed by Gandhari.  

  • विवस्वान मनु
    1 min 38 sec

    सूर्यवंश ब्रह्मदेव के मानसपुत्रों में एक थे मरीचि ऋषि। मरीचि ऋषि के पुत्र थे कश्यप ऋषि। कश्यप ऋषि और उनकी पत्नियों की संतानों से अनेक प्रजातियों का जन्म हुआ। कश्यप ऋषि की पत्नी देवी अदिति देवताओं की माता हैं और उनकी संतानों को आदित्य भी कहते हैं। एक बार देवी अदिति ने सूर्यदेव की कठिन तपस्या की और उनसे उनके गर्भ से जन्म लेने का वर माँगा। सूर्यदेव ने देवी अदिति के पुत्र विवस्वान के रुप में जन्म लिया।विवस्वान के पुत्र थे वैवस्वत मनु। वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु ने सूर्यवंश की स्थापना की, जिसे इक्ष्वाकु वंश नाम से भी जाना जाता है। अंबरीश, सगर, भगीरथ, रघु, दिलीप, दशरथ और श्रीराम जैसे महान राजाओं ने इस महान वंश में जन्म लिया। 

  • मुचुकुन्द की कथा
    1 min 47 sec

     मुचुकुन्द इक्ष्वाकु वंशी राजा मांधाता के पुत्र थे। एक बार देवासुर संग्राम में असुरों द्वारा पराजित होने के बाद देवराज इन्द्र मुचुकुन्द के पास सहायता माँगने के लिए आए। देवराज इन्द्र के अनुरोध पर मुचुकुन्द ने देवताओं का सेनापति बनकर देवासुर संग्राम में उनका नेतृत्व किया और एक लंबे युद्ध के बाद देवताओं को असुरों पर विजय दिलाई। युद्ध के उपरांत जब मुचुकुन्द ने अपने परिजनों के पास पृथ्वीलोक वापस जाने की बात कही तो इन्द्र ने उन्हे बताया की देवलोक में उनके द्वारा व्यतीत एक वर्ष पृथ्वीलोक के हजारों वर्षों के समान है और अब मुचुकुन्द का कोई भी परिजन पृथ्वीलोक में नहीं है। मुचुकुन्द इतने लंबे युद्ध के बाद थक चुके थे और उन्होंने देवराज इन्द्र से व्यवधान रहित निद्रा का वरदान माँगा। इन्द्र ने मुचुकुन्द को वर दिया की जो भी उनकी निद्रा भंग करेगा वह भस्म हो जाएगा। देवराज से ऐसा वरदान प्राप्त कर मुचुकुन्द पृथ्वीलोक में एक गुफा के अंदर गहरी निद्रा में लीन हो गए।

  • नवकलेवर
    2 min 8 sec

    दुनिया के किसी भी हिन्दू मंदिर में की जाने वाली यह शायद सबसे ज्यादा रहस्यमयी विधि है। हर बारह से उन्नीस साल के अंतराल पर भगवान जगन्नाथ तथा बलभद्र एवं देवी सुभद्रा की लकड़ी से बनी मूर्तियों का अंतिम संस्कार किया जाता है। इसके पश्चात नयी बनी मूर्तियों में देवों की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। इस प्रकरण में भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा के भीतर सैकड़ों वर्षों से रहती आ रही श्रीकृष्ण के देहावशेष अथवा ब्रह्मपदार्थ को पुरानी से नयी प्रतिमा के भीतर स्थापित किया जाता है। इस प्रक्रिया को ब्रह्मपरिवर्तन कहा जाता है जिसे कि अंधकार में बेहद ही गोपनीय तरीके से किया जाता है.वहीं भगवान की मूर्तियां भी किसी आम लकड़ी से नहीं बनायी जा सकती। इसके लिये भगवान के सेवक दैतापति, माँ मंगला की शरण में जाते हैं, जो कि उन्हें भगवान के प्रकट होने का स्थान स्वप्न में बताती हैं। इसके बाद देवी के निर्देशित स्थानों पर वो पेड़ मिलते हैं जिसपर भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा वाले पेड़ पर, शंख, चक्र, गदा एवं पद्म और भगवान बलभद्र की प्रतिमा वाले पेड़ पर हल, मूसल और शेषनाग की आकृति आदि चिन्ह बने हुए होते हैं.

  • अणसर
    2 min 1 sec

    अपने जीवंत तथा मानवीय स्वरुप के लिए जाने जाने वाले भगवान जगन्नाथ, किसी साधारण मनुष्य के भांति बीमार भी पड़ते हैं और उनका उपचार भी होता है। प्रतिवर्ष ज्येष्ठ पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र, देवी सुभद्रा एवं सुदर्शनजी को एक सौ आठ घड़ों के पानी से स्नान कराया जाता है, और उनका गजानन भेष में श्रृंगार किया जाता है। इसीलिए ही इस उत्सव को देवस्नान पूर्णिमा भी कहा जाता है। माना जाता है कि इतने ज्यादा पानी से नहाने के उपरांत चारों भगवानों को बुखार हो जाता है और इसीलिए आने वाले पंद्रह दिनों तक राज वैद्यों के द्वारा उनका उपचार किया जाता है। यह पंद्रह दिन भगवानों को अकेले एक गुप्त कमरे रख कर उनकी सेवा की जाती है और आम श्रद्धालुओं के लिए दर्शन बंद कर दिया जाता है। इसी समय को अणसर कहा जाता है।आयुर्वेदिक उपचारों के बाद जब भगवान ठीक होकर बाहर निकलते हैं तब किसी राजा की तरह ही भगवान का दरबार लगता है जहाँ इतने दिनों से आतुर भक्त उनके दर्शन कर पाते हैं। इस दिन को नवयोवन दर्शन कहा जाता है। नवयोवन के दो दिन बाद ही भगवान की विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा का आयोजन किया जाता है।

  • बल्लालेश्वर विनायक - रायगढ़
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    महाराष्ट्र के रायगढ़ जिला में स्थित बल्लालेश्वरजी को अष्टविनायकों में तृतीय माना जाता है। इस मंदिर का आकार “श्री” के आकार का है, जिसके दोनों ओर बड़ेबड़े तालाब हैं।    पौराणिक कथाओं के अनुसार पाली गांव में कल्याण और इंदुमति नाम के एक सेठ दंपति रहते थे। उनका बल्लाल नाम का इकलौता पुत्र श्रीगणेश का परमभक्त था। उसकी भक्ति से सेठ खुश नहीं थे, क्योंकि भक्ति में मग्न उनका बेटा व्यवसाय में कोई विशेष रुचि नहीं लेता था। एक बार कल्याण सेठ गुस्से में बल्लाल को ढूंढने निकले तो वह जंगल में गणेश जी की आराधना करते हुए मिला। उन्होंने उसे खूब पीटा और गणेशजी की प्रतिमा खंडित करते हुए दूर फेंक दिया। इसके बाद उसे वहीं जंगल में एक वृक्ष से बांध कर ये कह कर छोड़ गए की भूखे प्यासे रह कर उसकी अक्ल ठिकाने आ जायेगी। सेठ के जाने के बाद बल्लाल की भक्ति से प्रसन्न श्री गणेश उसके समक्ष एक ब्राह्मण के वेश में प्रकट हुए और उसे बंधन मुक्त कर के वरदान मांगने को कहा। इस पर बल्लाल ने उनसे अपने क्षेत्र में स्थापित होने का अनुरोध किया। श्री गणेश ने उनकी इच्छा पूरी करते हुए स्वयं को एक पाषाण प्रतिमा में स्थापित कर लिया और तब उस स्थान पर बल्लाल विनायक मंदिर बनाया गया। 

  • श्री गिरजात्मज विनायक, लेनयादरी
    1 min 31 sec

    श्री गिरजात्मज विनायक, लेनयादरीअष्टविनायक में छठे गणेश हैं गिरजात्मज गणपति जो कि लेनयादरी पर्वत पर विराजमान हैं। गिरजात्मज का अर्थ है, गिरिजा यानी माता पार्वती के पुत्र गणेश। यह माना जाता है कि यहाँ जिस जगह गणेशजी विराजमान हैं वहाँ पार्वतीजी ने तपस्या की थी इसीलिये इस गणेश का नाम गिरजा का पार्वती का आत्मज पुत्र यानि की गिरजात्मज है। लेनयादरी पहाड़ पर 18 गुफाओं में से 8वीं गुफा में गिरजात्मज विनायक मंदिर है। इन गुफाओं को गणेश गुफा कहा जाता है।

  • भगवान परशुराम के शिष्य – द्रोणाचार्य
    1 min 18 sec

    भगवान परशुराम के शिष्य – द्रोणाचार्य कई पीढ़ियों तक क्षत्रियों का संहार करने के बाद जब भगवान परशुराम ने अपने दादा रिचीक मुनि के कहने पर महेंद्र पर्वत पर जाकर तप करने का निश्चय किया तो उन्होंने अपने द्वारा जीती हुई समस्त संपत्ति को दान करने का निश्चय किया। जब द्रोण ऋषि को यह बात पता चली तो वो भी भगवान परशुराम के पास दान ग्रहण करने के लिए गए। भगवान परशुराम तब तक अपना सब कुछ दान कर चुके थे, उनके पास केवल उनका ज्ञान ही शेष था। भगवान परशुराम ने द्रोण ऋषि को सभी दैवी अस्त्रशस्त्रों और युद्धकला का ज्ञान दान में दिया और उस ज्ञान को प्राप्त कर द्रोण एक महान योद्धा बने और उन्होंने युद्धकला सिखाने के लिए अपने गुरुकुल का निर्माण किया। इसी गुरुकुल में सभी कौरव और पांडव भाइयों ने युद्धकला की शिक्षा प्राप्त की।  

  • भगवान परशुराम के शिष्य – कर्ण
    1 min 14 sec

    भगवान परशुराम के शिष्य – कर्ण कर्ण का पालन पोषण महाराज धृतराष्ट्र के सारथी ने किया और वो भी युद्धकला की शिक्षा के लिए गुरु द्रोण के गुरुकुल गए। वहाँ अर्जुन से ईर्ष्यावश उन्होंने द्रोणाचार्य से ब्रह्मास्त्र की शिक्षा देने के लिए कहा। जब गुरु द्रोण ने इसका कारण पूछा तो कर्ण ने अर्जुन को हराकर खुद को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनने की इच्छा के बारे में बता दिया। गुरु को ईर्ष्या से ग्रसित यह कारण सही नहीं लगा और उन्होंने कर्ण को ब्रह्मास्त्र का ज्ञान देने से मना कर दिया। इस प्रकार गुरु द्रोण से निराश होकर कर्ण भगवान परशुराम की शरण में गए और उनसे कहा कि वो एक भार्गव ब्राह्मण हैं और उनसे ब्रह्मास्त्र की शिक्षा लेना चाहते हैं। भगवान परशुराम ने कर्ण को ब्रह्मास्त्र की शिक्षा दी परंतु जब उन्हें पता चला कि कर्ण एक क्षत्रिय और उन्होंने झूठ बोलकर शिक्षा प्राप्त की है तो उन्होंने कर्ण को श्राप दे दिया कि जब कर्ण को अपने इस ज्ञान की सबसे ज्यादा आवश्यकता होगी तब वो अपना ज्ञान भूल जायेंगे।  

  • भगवान परशुराम के गुरु – महादेव

    भगवान परशुराम के गुरु – महादेव जब भगवान परशुराम ने युद्धकला और अस्त्रशस्त्रों की शिक्षा लेने की सोची तो उन्होंने स्वयं महादेव को अपना गुरु बनाने की सोची और उनको मनाने के लिए कठिन तपस्या की। परशुराम जी की तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने उनको सभी दैवी अस्त्रशस्त्रों और युद्धकला की शिक्षा दी और उनको अपना धनुष और फरसा दिया। इसी फरसे को लेकर चलने के कारण उनका नाम परशुराम पड़ा। शिवजी का धनुष भगवान परशुराम ने राजा जनक को दे दिया, जिसे भगवान राम ने सीता स्वयंवर के समय तोड़ दिया।  

  • ऋषि अगस्त्य दक्षिण भारत क्यों गए?

    भगवान शंकर के पर्वतराज हिमालय की पुत्री देवी पार्वती से विवाह के समय, सभी देवता और ऋषिगण हिमालय पर गए हुए थे, इस कारण पृथ्वी पर शक्तियों का संतुलन बिगड़ गया। भुदेवी ने महादेव से इस समस्या का समाधान माँगा। महादेव ने अपने परम भक्त अगस्त्य ऋषि को दक्षिण भारत जाने को कहा, जिससे उनके दक्षिण में रहने से उनकी शक्तियों से उत्तर और दक्षिण में शक्तियों का संतुलन बना रहे।  

  • सगर – जिन्होंने इक्ष्वाकु वंश को पुनर्जीवन दिया (Sagar)
    1 min 17 sec

    सगर – जिन्होंने इक्ष्वाकु वंश को पुनर्जीवन दिया राजा हरिश्चन्द्र की पीढ़ी में आगे चलकर बाहुक नामक राजा हुए। शत्रुओं ने उनसे उनका राज्य छीन लिया, जिसके कारण वह वन में ऋषि और्व के आश्रम में रहने लगे। कुछ समय बाद वन में ही बाहुक की मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी पत्नी ने उनके साथ सती होने की सोची तब और्व ऋषि ने उनको रोक लिया, क्योंकि वह उस गर्भवती थीं। जब शत्रुओं को इस बात का पता चला तो उन्होंने भोजन के साथ गर, यानी कि विष देकर गर्भ में पल रहे सूर्यवंश के उत्तराधिकारी को मारना चाहा। गर का रानी के गर्भ में पल रहे बालक पर कोई असर नहीं हुआ और वो गर को साथ में लेकर पैदा हुए, इसीलिए उनका नाम सगर पड़ा। महाराज सगर ने अपने शत्रुओं को पराजित कर सूर्यवंश की पुनर्स्थापना की। Sagar – Who revived the Ikshwaku DynastyIn the lineage of Harishchandra, there was a king named Bahuk. Bahuk lost his kingdom to his enemies and started living in the jungle at the hermitage of rishi Aurva. Bahuk died of old age and weakness. After Bahuk’s death, his wife decided to burn herself but was stopped by Aurva rishi, for the queen was pregnant with the heir to the dynasty. When enemies of the dynasty found out about the queen’s pregnancy, they tried to cause miscarriage by feeding her poison, GAR.The boy survived and was born with the GAR, hence was called Sagar. Sagar grew up to become an illustrious ruler who defeated all his enemies and revived the rule of the great solar dynasty

  • दन्तवक्र (Dantavakra)
    1 min 31 sec

    सनकादिक मुनियों के श्राप के कारण वैकुंठ के द्वारपाल जय और विजय द्वापर युग में श्रीकृष्ण के परम शत्रु शिशुपाल और दन्तवक्र के रूप में पैदा हुए। श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव जी की बहन श्रुतदेवी करुष राज्य के राजा वृद्धशर्मन की पत्नी थीं। उनका पुत्र था दन्तवक्र। दन्तवक्र और शिशुपाल जरासंध के साथी थे और श्रीकृष्ण के विरुद्ध युद्ध में उन्होंने जरासंध का बारम्बार साथ दिया। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय सहदेव ने दन्तवक्र को पराजित कर युधिष्ठिर का आधिपत्य स्वीकार करवाया था। राजसूय यज्ञ सभा में शिशुपाल के साथ दन्तवक्र भी उपस्थित था। राजसूय यज्ञ के बाद जब श्रीकृष्ण द्वारका वापस जा रहे थे तब अपने मौसेरे भाई शिशुपाल के वध का बदला लेने के लिए दन्तवक्र ने शाल्व के साथ मिलकर श्रीकृष्ण पर आक्रमण कर दिया। श्रीकृष्ण ने अपनी गदा से दन्तवक्र का वध कर उसका उद्धार किया और सनकादिक ऋषियों का श्राप पूरा हुने के कारण पुनः वैकुंठलोक भेज दिया।DantavakraDue to the curse of the four Kumars, the gatekeepers of Vaikuntha Jay and Vijay were born as Shrikrishna’s sworn enemies Shishupal and Dantvakra in Dwapar Yuga.Shrikrishna’s father Vasudev’s sister Shrutadevi was married to king Vriddhasharman of Karusha kingdom. Their son was Dantavakra. Dantavatra, like his cousin Shishupal was also an ally of Jarasandh and an enemy of Shrikrishna. During Yudhishthir’s Rajsuya yagya, he was defeated by Sahadev and he was present in the assembly when Shrikrishna killed Shishupal. After the yagya when Shrikrishna was on his way back to Dwarka, Dantavakra along with his friend Salva attacked Shrikrishna to avenge the killing of Shishupal. Shrikrishna killed Dantavakra with his mace and relieved him from the curse, sending him back to Vaikuntha.

  • मित्रविन्दा  (Mitravinda)
    1 min 1 sec

    मित्रविन्दा अवन्ती की राजकुमारी थीं। उनके भाई विन्द और अनुविन्द उनका विवाह दुर्योधन के साथ करना चाहते थे और वो श्रीकृष्ण के शत्रु थे। इसलिए जब मित्रविन्दा के स्वयंवर का आयोजन हुआ तब श्रीकृष्ण को आमंत्रित नहीं किया गया। बलराम ने श्रीकृष्ण से कहा कि मित्रविन्दा उनसे प्रेम करती है और उनको स्वयंवर में जाकर उनसे विवाह करना चाहिए। श्रीकृष्ण से अभी बहन सुभद्रा को भेजकर मित्रविन्दा के मन की बात जान ली। उसके बाद श्रीकृष्ण और बलराम बिना बुलाए ही स्वयंवर में पहुँच गए और मित्रविन्दा ने श्रीकृष्ण का वरण किया। श्रीकृष्ण और बलराम ने मित्रविन्दा के भाइयों और दुर्योधन तथा अन्य राजाओं को हराकर मित्रविन्दा से विवाह किया। MitravindaMitravinda was princess of Avanti. Her brother Vinda and Anuvinda were Duryodhan’s friends and wanted her to marry him in order to strengthen their friendship with Hastinapur crown. However, Mitravinda wanted to marry Shrikrishna. When Vinda and Anuvinda organized her sister’s swayamvar, they deliberately did not invite Shrikrishna. Balaram told Shrikrishna that Mitravinda is in love with him and he should gate crash the swayamvar and marry her. Shrikrishna sent his sister Subhadra to get a sense of Mitravinda’s heart. Once certain, Shrikrishna and Balaram crashed the swayamvar, where Mitravinda chose Shrikrishna as her husband. Shrikrishna and Balaram defeated Mintravinda’s brothers and Duryodhan along with other suitors and married Mitravinda.

  • पाराशर ऋषि और मत्स्यगंधा | Parashara rishi and Matsyagandha
    1 min 25 sec

    एक बार यमुना नदी के तट पर विचरण करते हुए पाराशर ऋषि की भेंट मछुआरे की पुत्री मत्स्यगंधा से हुई। पाराशर ऋषि मत्स्यगंधा के रूप पर मोहित हो गए और उनके साथ संभोग की इच्छा व्यक्त की। मत्स्यगंधा ने नदी के किनारे खड़े लोगों को दिखाते हुए लज्जा की बात कही तो पाराशर मुनि ने यमुना के बीच में एक द्वीप बनाकर उसे कोहरे से ढंक दिया। उन्होंने मत्स्यगंधा का कौमार्य भंग न होने के साथ साथ उनके शरीर से आने वाली मछली की गंध को सुंदर कस्तूरी की गंध में बदलने की भी बात कही। अंततः ऋषि ने मत्स्यगंधा के संभोग किया और मत्स्यगंधा ने पाराशर ऋषि के पुत्र को जन्म दिया। एक द्वीप मे जन्म लेने और श्याम वर्ण का होने के कारण उनका नाम कृष्ण द्वैपायन पड़ा।मत्स्यगंधा कोई और नहीं, सत्यवती थीं जिन्होंने बाद में महाराज शान्तनु से विवाह किया। सत्यवती और पाराशर ऋषि के पुत्र कोई और नहीं बल्कि वेद व्यास थे।  Once Parashara rishi was travelling along the bank of river Yamuna, he met Matsyagandha, the beautiful daughter of a fisherman, Matsyagandha. Parashara rishi was infatuated by her beauty and wanted to be intimate with her.  Matsyagandha pointed towards the people standing at the bank of river Yamuna and felt shame. Parashara rishi created an island in the middle of the river and covered it with fog. He also promised that her virginity would be restored. Lastly he converted the unpleasant fish smell into a beautiful flowery smell, making her Yojangandha.  Eventually they became intimate. Satyavati gave birth to Parashara muni’s son on that island, who came to be known as Krishna Dwaipayana, because of being born into an island and his dark skin. Matsyagandha was none other than Satyavati, who later married Hastinapur king Shantanu and was the grandmother of Dhritarashra and Pandu. The child of Satyavati and Parashara rishi was none other than Ved Vyas

  • हनुमान जी और अर्जुन (Hanuman ji Vs Arjuna)
    1 min 22 sec

    जब अर्जुन को अपनी धनुर्विद्या पर अभिमान हो गया तब हनुमान जी ने प्रकट होकर उनको विनम्रता का पाठ पढ़ाया। अर्जुन अपनी तीर्थयात्रा के समय रामेश्वरम पहुँचे और श्रीराम सेतु को देखकर सोचने लगे कि श्रीराम इतने प्रतिभाशाली धनुर्धर थे, उनको इस सेतु को बनाने के लिए वानरों की सहायता क्यों लेनी पड़ी। अर्जुन के अभिमान का अनुमान लगने पर बजरंगबली एक वानर के रूप में प्रकट हुए और अर्जुन से अपनी धनुर्विद्या के द्वारा समुद्र पर सेतु बनाने को कहा। अर्जुन ने अनेक प्रयास किये और हर बार जब वानर अर्जुन के बनाये सेतु पर चार डग चलता सेतु टूट जाता। इस प्रकार अनेक असफल प्रयासों के बाद अर्जुन को अपनी प्रतिभा पर अभिमान चला गया, तब हनुमान जी ने प्रकट होकर आशीर्वाद दिया।Hanuman ji Vs ArjunaWhen Arjuna became overconfident about his archery skills, Hanuman ji appeared again. During Arjunas tirthayatra, he visited Rameshwaram and observed the Shriram Setu. He thought why a person of the ability of Shriram needed the Vanar sena to build the bridge. Sensing Arjunas arrogance Bajrangbali appeared as a monkey and challenged Arjuna to build the bridge using all his archery skills. Arjuna tried multiple times to create a bridge of arrows but every time the monkey would try to walk on it, it would collapse.  After multiple failed attempts Arjuna gave up. Hanuman ji then revealed himself and taught Arjuna a lesson in humility.

Language

English

Genre

Fiction, Kids & Family, Religion & Spirituality

Seasons

1