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इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye

U • Mythology

नमस्कार श्रोताओं सूत्रधार आपके लिए लेकर आया है, इतिहास पुराण पोडक्स्ट। इस पॉडकास्ट के माध्यम से हम आप सभी को अनेकों पौराणिक कथाओं से  जोड़ने वाले है।  ये कथाएं महाभारत, शिव पुराण, रामायण जैसे अनेकों ग्रंथों से ली गयी हैं।  हमारे इस पॉडकास्ट को आप सुन पाएंगे हर बुधवार वो भी अपने पसंदीदा ऑडियो प्लेटफार्म पर इसी के साथ आप सूत्रधार द्वारा बनाये गए और पोडकास्टस भी सुन सकते हैं।  जैसे की नलदमयंती प्रेम कथा, मिनी टेल्स पॉडकास्ट, श्री राम कथा और वेद व्यास की महाभारत।मिलते हैं बुधवार में हमारे पहले एपिसोड के साथ। 

  • कुबेर की भगवान शिव से मैत्री की कथा
    7 min 53 sec

    कुबेर को धनसंपत्ति के देवता के रूप में सभी जानते हैं, परन्तु उनके पूर्व जन्मों की कथा बहुत कम लोगों को पता होगी। शिव पुराण के इस प्रसंग में सुनिए किस प्रकार मंदिर में चोरी करने वाले एक चोर ने, जानेअनजाने किये गए अपने कर्मों के कारण कुबेर के पद को प्राप्त करने के साथसाथ भगवान शंकर के समीप स्थान भी प्राप्त किया।काम्पिल्य नगर में यज्ञदत्त नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम गुणनिधि था। गुणनिधि अपने नाम के विपरीत बहुत ही दुराचारी और उद्दंड था। उसकी इन्ही हरकतों से परेशान होकर यज्ञदत्त ने उसे त्याग दिया। घर से निकलने के बाद वह कई दिनों तक भूखा भटकता रहा। एक दिन मंदिर से चढ़ावा चुराने के उद्देश्य से वह शिव मंदिर में गया। उसने वहाँ अपने कपड़ों को जलाकर उजाला किया मानो भगवान शंकर को दीप दान कर रहा हो। उसको चोरी के अपराध में पकड़ा गया और मृत्युदंड दिया गया। अपने बुरे कर्मों के कारण उसे यमदूतों ने बांध लिया लेकिन शिव के गणों ने वहाँ आकर उसे छुड़ा लिया। भगवान शंकर के गणों के साथ रहकर उसका मन शुद्ध हुआ। अंत में वह उन्हीं शिवगणों के साथ शिवलोक चला गया। वहाँ सारे दिव्य भोगों का उपभोग करके उमामहेश्वर की सेवा करने से पुनर्जन्म में वह कलिंगराज अरिंदम का पुत्र बना। कलिंगराज ने अपने पुत्र का नाम दम रखा। वह हमेशा शिव की आराधना में लगा रहता था और बालक होने पर भी वह दूसरे बालकों के साथ शिव का भजन किया करता था। युवा अवस्था को प्राप्त होने और पिता के स्वर्गवास के बाद वह कलिंग के सिंहासन पर विराजमान हुआ।राजा दम बड़ी प्रसन्नता के साथ सभी दिशाओं में शिव का प्रचार करने लगे। उन्होंने अपने राज्य के सभी ग्रामों के शिव मंदिरों में दीपदान की प्रथा का प्रचलन किया। उन्होंने सभी ग्राम प्रधानों को निर्देश दिया की उनके गाँव के आसपास जितने भी शिवालय हों वहाँ बिना किसी सोचविचार के सदा दीप जलाना चाहिए। आजीवन इसी धर्म का पालन करने के कारण राजा दम ने बहुत सारी धर्म संपत्ति अर्जित की और मृत्यु के पश्चात् अलकापुरी के स्वामी हुए।ब्रह्मा के मानस पुत्र पुलस्त्य से विश्रवा का जन्म हुआ और विश्रवा के पुत्र वैश्रवण कुबेर हुए। उन्होंने पूर्व जन्म में महादेव की आराधना करके विश्वकर्मा के द्वारा निर्मित इस अलकापुरी का उपभोग किया। जब वह कल्प व्यतीत हुआ और मेघवाहन कल्प आरम्भ हुआ, उस समय वह यज्ञदत्त का पुत्र, जो प्रकाश का दान करने वाला था, कुबेर के रूप में अत्यंत कठिन तपस्या करने लगा। दीपदान मात्र से मिलने वाले शिव के प्रभाव को जानकर वह शिव की नगरी काशी गया और वहाँ ग्यारह रुद्रों का ध्यान करके अनन्य भक्ति और स्नेह के साथ तन्मयता से शिव के ध्यान में मग्न होकर निश्छल भाव से बैठ गया। वर्षों तक ऐसे तपस्या करने के बाद वहाँ भगवान शिव स्वयं देवी पार्वती के साथ प्रकट हुए। भगवान शिव ने प्रसन्न मन से अलकापति कुबेर को देखा और कहा,अलकापति मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूँ और तुम्हें वर देने को तैयार हूँ। तुम अपनी मनोकामना बताओ। यह वाणी सुनकर कुबेर ने जैसे ही अपनी आँखें खोलकर देखा, उनको भगवान शिव सामने खड़े दिखाई दिये। वह प्रातःकाल के सूर्य जैसे हज़ारों सूर्यों से भी ज्यादा तेजवान थे और चन्द्रमा उनके मस्तक पर चाँदनी बिखेर रहे थे। भगवान शंकर के ऐसे तेज से कुबेर के आँखें बंद हो गयीं। कुबेर अपने नेत्र बंद कर अपने मन में विराजमान भगवान शिव से बोले,नाथ मेरे नेत्रों को वह दिव्यदृष्टि दीजिये जिससे मैं आपके दर्शन कर सकूँ। आपके प्रत्यक्ष दर्शन कर सकूँ यही मेरे लिए सबसे बड़ा वर है। मुझे दूसरा कोई वर नहीं चाहिए। कुबेर की यह बात सुनकर उमापति ने अपनी हथेली से उनका मस्तक छूकर उन्हें देखने की शक्ति प्रदान की। दृष्टि की शक्ति मिल जाने पर यज्ञदत्त के उस पुत्र ने आँखें खोली और उनकी नजर देवी पार्वती पर पड़ी। देवी को देखकर वह मन ही मन सोचने लगा,भगवान के समीप यह सर्वसुन्दरी कौन हैं इन्होंने ऐसा कौन सा तप किया है, जो मेरी तपस्या से भी बड़ा है। यह रूप, यह प्रेम, यह सौभाग्य और यह असीम शोभासब कितना अद्भुत है। वह ब्राह्मणकुमार बारबार यही कहकर देवी की तरह घूरघूरकर देखने लगा। इस प्रकार वामा के अवलोकन से उसकी बायीं आँख फूट गयीं। इस पर देवी पार्वती ने महादेव से कहा,प्रभु यह दुष्ट तपस्वी बारबार मेरी तरफ देखकर क्या बकवास कर रहा है देवी की यह बात सुनकर भगवान शिव ने हँसते हुए कहा,उमा यह तुम्हारा पुत्र है और तुम्हें दुष्ट दृष्टि से नहीं देख रहा है, अपितु तुम्हारी अपार तपःसंपत्ति का वर्णन कर रहा है। देवी से ऐसा कहकर भगवान शिव कुबेर से बोले,वत्स मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न होकर तुम्हें वर देता हूँ। तुम निधियों के स्वामी और यक्ष, किन्नरों और राजाओं के भी राजा होकर पुण्यजनों के पालक और सबके लिये धन के दाता बनो। मेरे साथ तुम्हारी मैत्री सदा बनी रहेगी और मैं नित्य ही तुम्हारे निकट निवास करूँगा। मित्र तुम्हारा स्नेह बढ़ाने के लिये मैं अलकापुरी के पास ही रहूँगा। आओ, इन उमादेवी के चरणों में प्रणाम करो, क्योंकि ये तुम्हारी माता हैं। महाभक्त यज्ञदत्तकुमार तुम अत्यंत प्रसन्नचित्त होकर इनके चरणों में गिर जाओ।इस प्रकार वर देकर भगवान शिव ने पार्वती से कहा,देवेश्वरी इस पर कृपा करो। तपस्विनी यह कुबेर तुम्हारा पुत्र है। भगवान शंकर का यह कथन सुनकर जगदम्बा पार्वती ने प्रसन्नचित्त होकर यज्ञदत्तकुमार से कहा,वत्स भगवान शिव में तुम्हारी निर्मल भक्ति सदैव बनी रहे। महादेवजी ने तुम्हें जो वर दिये हैं, वे सब उसी रूप में तुम्हें सुलभ हों। मेरे रूप के प्रति ईर्ष्या करने के कारण तुम कुबेर नाम से प्रसिद्द होंगे। इस प्रकार कुबेर को वर देकर भगवान महेश्वर पार्वती के साथ अपने धाम चले गये। इस प्रकार कुबेर ने भगवान शंकर की मैत्री प्राप्त की और कैलाश पर्वत के पास अलकापुरी उनका निवास स्थान बना। Story of Kuber’s Past Births We all know Kuber as the God of wealth but only few are aware of his past births and the deeds he did that gave him a home close to Mahadeva. This story from Shiva Purana brings light to that and tells us about how deeds of past life made Kuber dear to Bhagwaan Shankar. In the city of Kampilya Nagar lived a brahmin named Yagya Dutt who had a son named Gunanidhi. But the son of Brahmin always behaved contrary to his name and was very vicious and defiant. Yagya Dutt was very disheartened as he failed to discipline him and finally he abandoned him. After leaving the house, Gunanidhi wandered hungry for several days. One day he went to the Shiva temple with the intention of stealing the offerings given to Mahadeva. There he burnt his clothes to get some respite from the dark and cold, this was akin to lighting a lamp in the name of Mahadev. While he was busy satisfying his hunger, he was caught off guard by the people and was sentenced to death for theft. Because of his bad deeds, agents of Yamaraj had come to take him with them however because of lighting a lamp in the name of Mahadev before his death, Shivas ganas came and rescued him from Yama’s agents and took him with them to Shiva’s abode. By staying with Bhagwan Shankars ganas, Gunanidhi’s mind was purified and he became a staunch devotee of ShivaParvati.  He started serving UmaMaheshwar and found devine pleasure in doing so and it is because of these services, he was reborn as the son of Kalingaraja Arindam in his next birth. Kalingaraja named his son Dam and he was always engaged in the worship of Shiva. Even when Prince Dam was a child, he used to worship Shiva along with other children and was crowned the king in his youth after the death of his father. King Dam started preaching about Shiva everywhere in his kingdom with great pleasure. He started the practice of light offering in all Shiva temples of all the villages in his kingdom. He instructed all the village heads to light a lamp in all the temples in and around the villages without any hesitation. Due to following this practice for life, Raja Dam acquired a lot of good karma and after his death became the owner of Alkapuri. From Brahma, was born Pulastya who fathered Vishrava and Vishrava had a son named Vaishravana Kuber. Kuber in his previous birth had become the owner of Alkapuri and when the period of Meghavahana began, at that time the son of Yagya Dutta, who offered the light to Mahadev was now born as Kuber. He started performing intense penance to Maheshwar. He went to Kashi, the city of Shiva, and after meditating on the eleven Rudras and with unparalleled devotion and affection, he sat calmly in the meditation of Shiva. After performing penance for years, Bhagwan Shiva himself appeared there along with Devi Parvati. Bhagwan Shiva looked at Alkapati Kuber with a happy heart and said, Alkapati I am pleased with your tenacity and am ready to give you a boon. Tell me your wish. Hearing this voice, as soon as Kuber opened his eyes, he saw Bhagwan Shiva standing in front of him who was illuminating like a thousand suns, and the moon was shining on his forehead. Kuber could not see Maheshwar due to the shining brilliance that was radiating from Bhagwan Shankar. Kuber closed his eyes and said to Bhagwan Shiva whose image was always in his mind, Nath Give my eyes that divine vision so that I can see you. To see you in front of me with my eyes open will be the biggest boon for me. I dont want any other boon.  Hearing this from Kuber, Umapati touched his head with his palm and gave him the power to see him. On getting the vision, son of Yagya Dutt opened his eyes and his eyes fell on Mata Parvati. Seeing Her, he started thinking in his mind, Who is this beautiful lady near Mahadev What kind of austerity has she performed, which is greater than my penance. This form, this love, this good fortune and this infinite splendor all this is amazing.” Brahmin Kumar said this again and again and started staring at the goddess and was blinded in his left eye for staring at Vama. Devi Parvati said to Mahadev, Bhagwan What nonsense is this ascetic murmuring and why is he staring at me  Hearing this, Bhagwan Shiva laughed and said, Uma This is our son and he is not looking at you with evil eyes, but is describing your immense austerity. Saying this to the goddess, Bhagwan Shiva said to Kuber, Vats I am pleased with your tenacity and give you a boon. You shall be the God of wealth and the king of Gandharvas and Kinnars. You will be the guardian of the virtuous and the giver of wealth to all. This bond of companionship between you and me will stay forever and I will always live near you. My friend I will stay near Alkapuri to strengthen this bond. Come, bow down at the feet of Umadevi, your mother. Mahabhakta Yagya DuttKumar Be immensely happy and bow down at her feet . Thus giving the boon, Bhagwan Shiva said to Parvati, Deveshwari Have mercy on him. Tapaswini Kuber is our son. On hearing this statement of Bhagwan Shankar, Jagadamba Parvati said to Yagya Dutt Kumar, Vats May your pure devotion to Bhagwan Shiva always remain. May all the blessings that Mahadevji has given you be utilised by you in that form. And because of your jealousy towards my form, you will be known by the name Kuber. Thus giving a boon to Kuber, Bhagwan Maheshwar went to his abode with Parvati.  In this way Kuber gained the friendship of Bhagwan Shankar and Mount Kailash near Alkapuri became his abode. 

  • नरकासुर वध | Narkasur
    7 min 20 sec

    भूदेवी का पुत्र नरकासुर अत्यंत पराक्रमी था जिससे देवता भी भयभीत रहते थे। इन्द्र से शत्रुता के चलते वह देवताओं और ऋषियों के प्रतिकूल आचरण करता था और उनके धार्मिक अनुष्ठानों में विघ्न डालता रहता था। भूमिपुत्र होने के कारण भौम नाम से भी जाने जाने वाले उस असुर ने एक बार हाथी का वेश धारण कर त्वष्टा की पुत्री कशेरु का अपहरण कर अपने राज्य प्राग्ज्योतिषपुर ले गया। उसने अनेक देवताओं, मनुष्यों और गन्धर्वों की कन्याओं और रत्नों का अपहरण कर लिया था। इस प्रकार हरण की हुई सोलह हजार एक सौ स्त्रियों को वह मणिपर्वत पर बनायी हुई अलका नगरी में मुर नामक दैत्य के संरक्षण में रखता था। मुर अपने दस पुत्रों और अन्य अनेक राक्षसों के साथ प्राग्ज्योतिष की रक्षा करता था। ब्रह्मदेव की तपस्या कर उसने वर प्राप्त किया कि उसका वध केवल उसकी माता की इच्छा के अनुरूप हो। इस प्रकार वर प्राप्त करने के बाद नरक और भी उन्मत्त हो गया और उसने देवमाता अदिति का भी तिरस्कार किया और उनके दैवी कुण्डल चुरा ले गया। नरकासुर से संतप्त होकर एक दिन देवराज इन्द्र अपने दैवी वाहन ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होकर द्वारकापुरी पधारे और श्रीकृष्ण, बलराम और उग्रसेन से यथोचित सत्कार ग्रहण करने के बाद बोले, “देवकीनंदन नरक नामक एक राक्षस ब्रह्मदेव से वरदान पाकर घमण्ड से भर गया है। उस दैत्य ने देवमाता अदिति के कुण्डल हर लिए हैं और वह प्रतिदिन धर्मात्मा ऋषियों और देवताओं में विरोध में ही लगा रहता है। अतः तुम अवसर देखकर उस पापात्मा से इस लोक का उद्धार करो।“ इन्द्र ने अपने साथ आए विनतानन्दन गरुड़ के गुणगान करते हुए कहा, “आप इन अन्तरिक्षचारी गरुड़ पर आरूढ़ होकर प्राग्ज्योतिष जाएं और उस पापी का संहार करें।“ इस प्रकार देवराज इन्द्र की बात को सुनकर श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध करने की प्रतिज्ञा की और नरकासुर की माता भूदेवी की अवतार देवी सत्यभामा के साथ गरुड़ पर आरूढ़ होकर नरक का वध करने के लिये प्राग्ज्योतिष की ओर चल पड़े।  प्राग्ज्योतिष के द्वार पर पहुँचकर श्रीकृष्ण ने अपने शारंग धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाकर टंकार की। उस ध्वनि को सुनकर क्रोध में भरकर मुर ने उनपर हीरे और स्वर्ण से जड़ित आसुरी शक्ति से प्रहार किया जिसे श्रीकृष्ण के अपने बाण से नष्ट कर दिया। उसके बाद मुर एक गदा हाथ में लेकर श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा। श्रीकृष्ण ने अपने अर्द्धचन्द्र बाण के प्रहार से उस गदा को भी नष्ट कर दिया और फिर एक भाले से उस दैत्य का सर धड़ से अलग कर दिया। मुर को मारने के बाद श्रीकृष्ण आगे बढ़े तो उनका सामना प्राग्ज्योतिष के पहरेदारों निसुन्द और हयग्रीव के साथ अन्य अनेक दैत्यों से हुआ। निसुन्द ने श्रीकृष्ण पर बाणों की झड़ी लगा दी, जिन्हें श्रीकृष्ण ने पार्जन्य नामक दिव्यास्त्र से रोक दिया। उसके बाद निसुन्द ने अपने बाणों से गरुड़ को दसों दिशाओं से घेर लिया तब माधव ने सावित्र नामक दिव्यास्त्र से उन सभी बाणों को काट डाला। उसके बाद श्रीकृष्ण ने अपने बाणों से निसुन्द के रथ को नष्ट कर उसके सारथी और रथ के घोड़ों को मार दिया और फिर एक भाले से उसका भी मस्तक काट दिया। देवताओं से हजारों वर्षों तक युद्ध करने वाले निसुन्द को धराशायी हुआ देखकर हयग्रीव और पंचनद नामक भयानक असुरों के साथ आठ लाख राक्षसों की सेना ने गरुड़ पर आरूढ़ श्रीकृष्ण और देवी सत्यभामा पर आक्रमण कर दिया।  

  • भाई दूज | Bhai Dooj Story
    5 min 17 sec

    एक बार की बात है, एक गाँव में एक माँ अपने बेटे के साथ रहा करती थी। एक बार भाई दूज के दिन बेटे ने अपनी माँ से बहन के घर जाकर उससे टीका लगवाने की बात कही। माँ ने कहा, “ठीक है। चले जाओ।“भाई अपने घर से अपनी बहन से मिलने के लिए निकल पड़ा। रास्ते में उसे नदी मिली। नदी ने उससे कहा, “मैं तुम्हें डुबाऊँगी।“भाई ने नदी से कहा, “आज भाई दूज के दिन मैं अपनी बहन से तिलक कराने जा रहा हूँ। वो मेरी बाट जोह रही होगी। तुम अभी मुझे जाने दो। जब मैं टीका करवाकर वापस इधर से जाऊंगा तब तुम मुझे डुबा देना।“नदी ने उसकी बात मान ली और उसे जाने दिया। थोड़ी देर और आगे जाने पर उसको एक सांप मिला। सांप ने अपना फन उठाते हुए बोला, “मैं तुम्हें डसूँगा।“भाई ने सांप से भी वही बात कही जो उसने नदी से कही थी, “आज भाई दूज के दिन मैं अपनी बहन से तिलक कराने जा रहा हूँ। वो मेरी बाट जोह रही होगी। तुम अभी मुझे जाने दो। जब मैं टीका करवाकर वापस इधर से जाऊंगा तब तुम मुझे डस लेना।“अपनी बहन के घर के रास्ते पर वह थोड़ा और आगे बढ़ा और एक घने जंगल से गुजर रहा था कि दहाड़ते हुए एक शेर ने उसका रास्ता रोक लिया और उससे कहा, “वहीं रुक जाओ। तुम्हारा अंत समय आ गया है। आज मैं तुम्हें खाऊँगा।“उसने शेर से भी बहन के घर जाकर टीका लगवाने की बात कही और बोला, “जब मैं अपनी बहन के घर से टीका लगवाकर वापस आऊँ तब तुम मुझे खा लेना।“शेर ने भी उसे जाने दिया। ऐसे अपनी जान शेर, सांप और नदी के पास गिरवी रखकर किसी तरह वह अभी बहन के घर पहुँचा। उसने बहन के घर के दरवाजे से उसे आवाज लगाई।  

  • शेषनाग की और आस्तिक मुनि की कथा | Story of Sheshnag & Astik Muni
    7 min 33 sec

    गरुड़ का लाया हुआ अमृत पात्र नागों के अमृत पीने से पहले ही इन्द्र ले गए और नाग बिना अमृत के ही रह गए। अब माता के शाप से बचने का कोई और उपाय सोचने लगे। इन सर्पों में एक शेषनाग ने अपने भाइयों के बर्ताव से परेशान होकर उनसे अलग जीवन बिताने की सोची। शेषनाग ने अपना मन ब्रह्मा की आराधना में लगाया और वर्षों तक केवल हवा पीकर कठिन तपस्या की। अंत में ब्रह्मा जी उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उनको दर्शन दिए। ब्रह्मदेव ने शेषनाग से पूछा,शेष तुम्हारी इस कठिन तपस्या का उद्देश्य क्या है क्यों तुम खुद को इतना कष्ट दे रहे हो शेष ने ब्रह्मदेव को उत्तर दिया,भगवन मेरे सारे भाई महामूर्ख हैं और हमेशा आपस में लड़ते रहते हैं। विनता और उसके पुत्रों अरुण और गरुड़ से भी बिना बात का बैर ले रखा है। मैं उनके साथ नहीं रहना चाहता। मेरे इस तप का यही उद्देश्य है कि मैं किसी प्रकार अपने भाइयों से दूर जा सकूँ।ब्रह्माजी ने कहा,शेष तुम्हारे भाइयों की करतूत मुझसे छिपी नहीं है। वो अपने बल के अहंकार में दूसरों को कष्ट देने लगे हैं। उनको कद्रू का दिया गया शाप बिल्कुल भी अनुचित नहीं है। सौभाग्यवश तुम्हारा ध्यान धर्म में अटल है। तुम उनकी चिंता छोड़ो और अपने लिए जो भी वर चाहते हो माँग लो।शेषनाग ने कहा,पितामह मैं यही चाहता हूँ कि मेरी बुद्धि सदा धर्म और तप में अटल रहे और मेरा भाइयों से मेरा कोई सरोकार ना हो।ब्रह्माजी ने कहा,शेष तुम्हारे इन्द्रियों और मन के संयम से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। मेरी आज्ञा से तुम संसार के हित के लिए एक काम करो। यह पृथ्वी पर्वत, सागर, वन, ग्राम इत्यादि के साथ सदा डोलती रहती है। तुम इसे इस प्रकार जकड़ लो कि यह स्थिर हो जाये। इससे तुम्हारे साथसाथ सभी का भला होगा।शेषनाग ने ब्रह्माजी की बात मान ली और पृथ्वी को समुद्र के अंदर से ऐसा जकड़ लिया की पृथ्वी स्थिर हो गयी। इस प्रकार शेषनाग के जीवन को अपने भाइयों से अलग एक उद्देश्य मिला और पृथ्वी को स्थिरता। लेकिन शेषनाग के भाइयों को उनका जीवन बचाने का अभी तक कोई रास्ता नहीं मिला था।  

  • भ्रुशुंडी ऋषि की कथा | Story of Bhrushundi Rishi
    8 min 3 sec

    भ्रुशुंडी गणेश मन्दिर महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में स्थित गणपति के अष्टविनायक मंदिरों में एक है। देखिये किस प्रकार अपने भक्त के नामजप से प्रसन्न होकर गणपति ने उसे साक्षात अपना ही स्वरूप प्रदान कर दिया। दंडकारण्य नाम के एक घने जंगल में नामा नाम का एक मछुआरा और उसका परिवार रहता था। नामा मछुआरा जंगल के रास्ते से गुजरने वाले लोगों को लूट कर उनकी हत्या कर देता था और उसी से अपना और अपने परिवार का पेट पालता था। एक दिन मुद्गल ऋषि एक हाथ में छड़ी और दूसरे हाथ में कमंडल लिए जंगल के उस रास्ते से गुजर रहे थे। नामा मछुआरे ने उन्हे देखा और उन्हे लूटने के लिए आगे बढ़ा। उनको मारने के लिए जैसे ही उसने अपनी कुल्हाड़ी उठाई वह उसके हाथ से फिसलकर गिर गयी। उसने फिर से कुल्हाड़ी उठाई पर वार करने से पहले ही वह उसके हाथ से छूटकर गिर गयी। मछुआरे को कुछ समझ नहीं आ रहा था और वो अचंभित होकर अपनी कुल्हाड़ी को देख रहा था।  उसको इस प्रकार देखकर मुद्गल ऋषी बोले, अरे मारो मुझे। क्या हुआ हाथ से कुल्हाड़ी क्यों फिसल रही है यह सुनकर नामा को और क्रोध आया। एक बार फिर उसने कुल्हाड़ी उठाई। पर वो इस बार भी वार नहीं कर सका। आखिरकार अपनी हार स्वीकार कर वो ऋषि के पैरों पर गिर पड़ा और क्षमा याचना करने लगा, महात्मन मुझ से बड़ी भूल हो गई। मुझे क्षमा करें। ऋषि ने उस से पूछा, तुम ऐसे लोगोंकी हत्या क्यों कर रहे हो। इस पाप से छुटकारा कैसे पाओगे” ऋषि का प्रश्न सुनकर नामा ने उत्तर दिया। ऋषिवर मैं अकेला ही पापी नहीं हूं। मेरे मातापिता, मेरी पत्नी और मेरे बच्चे भी इसके भागीदार हैं। उन्हे पालने के लिए ही तो मैं ये सब करता हूं। उसका ये उत्तर सुनकर ऋषि बोले, सच में तुम्हें ऐसा लगता है जाओ जाकर उनसे एक बार पूँछ कर तो आओ।नामा घर आया और उसने परिवार के लोगों से पूछा कि वो सब उसके पाप में भागीदार बनेंगे। तो सभी ने उसके पाप का भागी होने सें इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा, हमारा पेट पालना तो तुम्हारा कर्तव्य है। वो पूरा करने के लिए तुम क्या करते हो इससे हमारा क्या मतलब। उसकी जिम्मेदारी हम क्यों उठाएँ। तुम तुम्हारा कर्तव्य निभा रहे हो तो उसकी भागीदारी भी तुम्हारी ही हुई। ये बात सुनकर नामा मछुआरे को बड़ा दुःख हुआ। वापस आकर वो मुद्गल ऋषि के चरणों मे गिर पड़ा और बोला, स्वामी इस पाप से मुक्ति पाने का रास्ता दिखाएं। उसने ऐसी विनती की, तो ऋषी ने उसे सामने के कुंड में स्नान कर वापस आने को कहा। नामा के स्नान कर वापस आने के बाद मुद्गल ऋषि ने अपने पास पड़ी एक लकड़ी को जमीन में गाड़ दिया उसे उस लकड़ी के सामने बैठने को कहा। ऋषि ने उसे वहीं बैठकर श्री गणेशाय नमः” मंत्र का जाप करने को कहा और बोले, इस लकड़ी का रूपान्तरण जब हरे भरे वृक्ष में हो जाएगा तब तुम्हारे पापों का नाश होगा। तब तक तुम यहीं बैठकर गणपति मंत्र का जाप करते हुए तपस्या करते रहना। इतना कह कर मुद्गल ऋषि वहां से चले गए। 

  • सुनहरा नेवला | The Golden Mongoose
    6 min 27 sec

    कुरुक्षेत्र का युद्ध जीतने के बाद, युधिष्ठिर हस्तिनापुर के राजा बने और उन्होंने अश्वमेध यज्ञ करने का फ़ैसला किया। यज्ञ अविस्मर्णीय और अत्यन्त ही विशाल पैमाने पर हुआ जिसकी महिमा चारों ओर फैली हुई थी। यज्ञ वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार विद्वान ब्राह्मणों के मार्गदर्शन में किया गया और दान भी उस पैमाने पर दिया गया जो दुनिया ने कभी नहीं देखा था। यज्ञ के अन्त में एक नेवला वहाँ आया। उसके शरीर का आधा हिस्सा सुनहरा था, जबकि बाकी आधा भूरा था। नेवला वहाँ आते ही फर्श पर लुढ़कने लगा और फिर ज़ोरज़ोर से शोर करने लगा। उसने वहाँ उपस्थित सभी ब्राह्मणों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया और साथ ही उसने मानवीय स्वर में बात की। नेवले ने कहा, धर्मराज यह सब दान ग़रीब ब्राह्मण द्वारा दान किए गए एक किलो सत्तू की तुलना में कुछ भी नहीं है।” नेवले की बात सुनकर यज्ञ में मौजूद सभी लोग स्तब्ध रह गए। वहाँ उपस्थित ब्राह्मणों ने नेवले को सम्बोधित करते हुए कहा, “यहाँ आकर इस तरह के साहसिक वक्तव्य देने वाले आप कौन होते हैं आप अवश्य ही एक दिव्य प्राणी दिखाई पड़ते हैं । हम सब आपकी बात सुन रहें है कृपया हमें बताएँ कि आप क्या कहना चाहते हैं।” The Golden MongooseAfter winning the war of Kurukshetra, Yudhishthira became the king of Hastinapur and decided to perform Ashwamedha Yagya. The yagya was done at a scale unseen to everyone in their living memory and the praises of it spread all across. The Yagya was performed as per Vedic Rituals under the guidance of learned Brahmins and donations were given at a scale the world has not witnessed. Towards the end of that yagya a mongoose visited the place. One half of his body was golden, while the remaining half was brown. The mongoose came there and started rolling on the floor then made a loud noise. When all the Brahmins present there had his attention he spoke in a human voice. The mongoose said, “Dharmaraj All this charity is nothing compared to one kilo sattu donated by the poor Brahmin.” Everyone present there was stunned at this proclamation. The Brahmins present there addressed the mongoose, “who are you to come here and make such bold statements You seem like a divine being. Please tell us what you want to say. You have our attention.”  

  • पारिजात हरण | Parijaat Haran - Part 2
    14 min 7 sec

    द्वारका में पारिजात वृक्षइस कहानी के पहले भाग में हमने जाना कि किस तरह नारद मुनि के द्वारका आने पर एक के बाद एक कई घटनाओं का क्रम बँधा, जिस कारण श्रीकृष्ण ने सत्यभामा को अमरावती से पारिजात वृक्ष लाने और उसे सत्यभामा के बाग में लगाने का वचन दिया। श्रीकृष्ण की पारिजात हरण लीला के इस भाग में हम जानेंगे कि श्रीकृष्ण किस तरह अपने वचन का पालन करते हैं। श्रीकृष्ण से विदा लेकर नारद मुनि महादेव की प्रतिष्ठा में इन्द्र द्वारा स्वर्गलोक में आयोजित एक समारोह में गए। नारद मुनि अन्य देवों, गन्धर्वों, अप्सराओं और देवर्षियों के साथ मिलकर उमामहेश्वर की आराधना करने लगे। जब समारोह का अन्त हुआ और सभी अतिथि अपनेअपने लोकों में प्रस्थान कर गए, तब नारद मुनि सिंहासन पर बैठे इन्द्र के पास गए। इन्द्र ने नारद मुनि को प्रणाम किया और अपने समीप एक स्थान पर बैठने का निमंत्रण दिया। हालाँकि नारद मुनि ने खड़े रहकर ही कहा, देवराज आज मैं श्रीकृष्ण का दूत बनकर आपके समक्ष आया हूँ। मैं द्वारकापुरी से आपके लिए उनका एक सन्देश लेकर यहाँ उपस्थित हुआ हूँ।

  • स्यमन्तक मणि की कथा
    9 min 36 sec

     जब भगवान् श्रीकृष्ण पर लगा चोरी का आरोपसूत्रधार की इस कहानी में हम सुनेंगे स्यमन्तक मणि के बारे में। स्यमन्तक मणि एक ऐसी मणि थी जिसमें स्वयं भगवान् सूर्यदेव का तेज समाहित था। वो मणि जिस भी राज्य में रहती उस राज्य में कभी भी धनधान्य की कमी नहीं होती। अब ऐसी मणि को कौन नहीं पाना चाहेगा। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के मन में उस मणि को पाने की इच्छा जागी। बचपन में गोपियों से माखन चुराकर खाने के कारण भगवान् श्रीकृष्ण का एक नाम माखनचोर भी है। लेकिन इस बार जो आरोप भगवान् कृष्ण पर लगा था वो हंसीखेल में करी गयी चोरी का नहीं था। इस बार आरोप लगा था दुनिया की सबसे मूल्यवान वस्तु की चोरी का। आरोप था कि श्रीकृष्ण ने चोरी की थी स्यमन्तक मणि की। क्या था इस आरोप का सच क्या सच में चुराई थी श्रीकृष्ण ने वो मूल्यवान मणि अगर नहीं, तो फिर उन पर ऐसा आरोप क्यों लगा इन्ही प्रश्नों के उत्तर मिलेंगे हमें आज की इस कथा में। भगवान् श्रीकृष्ण की पत्नियों जांबवंती और सत्यभामा के तार भी इसी कथा से जुड़े हुए हैं । तो फिर बिना समय व्यर्थ किये सुनते हैं इस रोचक कथा को और जानते हैं इससे जुड़े हुए सारे प्रश्नों के उत्तर। अंधकवंशी यादवों के राजा सत्राजित भगवान् सूर्यदेव के परम भक्त थे। सत्राजित ने वर्षों तक सूर्यदेव की आराधना की। एक दिन सुबहसुबह सत्राजित रोज की ही तरह सूर्य वंदना कर रहे थे, कि भगवान् सूर्यदेव स्वयं उनके सामने प्रकट हो गए। सत्राजित ने जब भगवान् आदित्य को साक्षात् अपने सामने खड़ा हुआ देखा तो हाथ जोड़कर वंदना करते हुए कहा,प्रभु आप जिस तेज से इस सारे संसार को प्रकाशित करते हैं, मुझे वह तेज देने की कृपा करें। सत्राजित के ऐसा कहने पर भगवान् भास्कर ने उन्हें दिव्य स्यमन्तक मणि दी। यह मणि सूर्य के तेज से प्रकाशित थी और उसको अपने गले में पहनकर जब सत्राजित ने अपने नगर में प्रवेश किया तो सभी को लगा स्वयं सूर्यदेव पधारे हैं।  

  • गणेश जी के गजानन होने का कारण|The reason behind Ganesh ji’s elephant head.
    4 min 39 sec

    गणेश पुराण में, शौनक जी, सूत जी से गणेश जी के गजानन होने की कथा पूछते हैं। सूत जी उन्हें वही कथा सुनाते हैं जो नारायण ने नारद मुनि को सुनाई थी। एक बार देवराज इन्द्र पुष्पभद्रा नदी के शान्त और सुन्दर तट पर थे। उस निर्जन क्षेत्र में कई सुन्दर पुष्प और वृक्ष लगे हुए थे। अभी इन्द्र देव इस मनोहर क्षेत्र को देख ही रहे थे तभी उन्हें घास पर लेटी हुई रम्भा दिखाई दी। रम्भा को देखते ही इन्द्र देव वासना से लिप्त हो गए और रम्भा से उनकी नज़र नहीं हटीं। रम्भा को ऐसा भान हुआ कि कोई उसे देख रहा है तो वह अपनी जगह से खड़ी हुई और उसका ध्यान इन्द्र देव की तरफ़ गया। रम्भा भी इन्द्र देव की तरफ़ आकर्षित हुई और उनकी तरफ़ बढ़ने लगी। जैसे ही रम्भा, इन्द्र देव के निकट पहुँची उन्होंने पूछा, हे मनमोहनी तुम कौन हो तुम कहाँ से आई हो और कहाँ जा रही हो क्या तुम मेरा एक काम करोगी रम्भा इन्द्र की बात सुनकर लजा गई और बोली, देव मैं तो आपकी दासी हूँ। आप जो कहेंगे, मैं वही करूँगी।

  • Shivratri special
    5 min 18 sec

    Hello listeners, This is our Shivratri special episode.

  • श्रीजगन्नाथ धाम की प्राण-प्रतिष्ठा - Part 4
    16 min

    विग्रहों और मंदिर का निर्माण संपन्न हो चुका था। अब केवल उनकी प्रतिष्ठा करनी बाकी थी। लेकिन इसमें भी एक अड़चन थी, जिस भगवान जगन्नाथ की मूर्तियाँ बनाना भी किसी नश्वर के लिए असंभब था, उनकी प्रतिष्ठा भला कोई साधारण ब्राह्मण कैसे कर सकता था। इसके लिए तो शायद देवर्षि नारद अथवा देवगुरु बृहस्पति जैसे दिव्य ऋषियों की आवश्यकता थी। राजा इन्द्रद्युम्न अब तपस्या में बैठ गए। थोड़ी देर बाद किसी के बुलाने पर राजा का ध्यान खुलता है और वह अपने सामने देवर्षि नारद को खड़ा पाते हैं। नारद को प्रणाम कर वह उनसे मंदिर तथा विग्रहों की स्थापना के बारे में मार्गदर्शन मांगते हैं।नारायण, नारायण। यह बात आपकी सत्य है राजन। जिस स्वरूप को बनाने हेतु देवशिल्पी विश्वकर्मा को आना पड़ा, उस स्वरूप की प्राण प्रतिष्ठा केवल वही कर सकता है जो तीनोलोकों में सवश्रेष्ठ वेदज्ञ हो। देवर्षि नारद ने राजा से कहा। क्षमा करें देवर्षि, परंतु आप और देवगुरु बृहस्पति के अतिरिक्त और ऐसा कौन है जो इतना उत्कृष्ट ब्राह्मण व पारंगत विद्वान हो राजा ने पुनः पूछा।मैं उनकी बात कर रहा हूँ राजन, जिनके श्रीमुख से समस्त वेदों की उत्पत्ति हुई है। केवल और केवल मेरे पिता, ब्रह्मदेव के हाथों ही भगवान श्रीहरि का यह कार्य संपादित हो सकता है।अहोभाग्य मेरे, देवर्षि। यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं अभी आपके साथ ब्रह्मलोक जाकर प्रजापिता को निमंत्रण देना चाहता हूँ, भगवन। इन्द्रद्युम्न ने प्रसन्न होकर कहा। अवश्य राजन। देवर्षि उन्हें अपने साथ स्वदेह ब्रह्मलोक ले जाने के लिए तैयार हो गए।इन्द्रद्युम्न ने विद्यापति, विश्वावसु तथा रानी गुंडिचा से विदा ली और जल्द लौटने का वादा कर देवर्षि के साथ ब्रह्मलोक की यात्रा पर निकल गए। जब वह ब्रह्मलोक पहुंचे तो ब्रह्मा जी ध्यानमग्न थे। राजा इंद्रद्युम्न ने उनका ध्यान खत्म होने तक प्रतीक्षा करना ही उचित समझा।कुछ समय बाद जब ब्रह्माजी तप से जागे तो राजा इंद्रद्युम्न ने उन्हें प्रणाम कर मंदिर की प्रतिष्ठा करने हेतु निमंत्रण दिया जिसे प्रजापिता ने सहर्ष स्वीकार किया। ब्रह्मा की स्वीकृति देते ही राजा का मन अब अत्यंत प्रसन्न हो उठा। वह जल्द से जल्द रानी गुंडिचा के साथ ब्रह्माजी के आने की खुशखबरी बांटने के लिए व्याकुल थे। अतएव अब वह  ब्रह्मलोक से पृथ्वीलोक पर  वापस आ गये।वापस नीलांचल में पहुंच कर राजा को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। अब शंख क्षेत्र नामक कोई जगह समुद्र तट पर नहीं थी। राजा का महल, वह भव्य मंदिर तथा राजा की बसाई हुई पूरी की पूरी नगरी का कोई नामोनिशान नहीं था। चारों तरफ बस मीलों तक रेत ही रेत थी जैसा कि किसी भी सागर तट पर होता है। राजा को लगा कि वह अवश्य ही सपना देख रहे हैं, क्योंकि ऐसा भला कैसे हो सकता है कि कुछ ही घंटों पहले उन्होंने यहीं रानी गुंडिचा से बात की थी, और अब वहां कुछ भी नहीं था। रानी, विद्यापति, विश्वावसु, उनका मंत्री परिषद, प्रजा, सारे कारीगर यहां तक के हाथी घोड़े भी वहां से अदृश्य हो चुके थे।  राजा बहुत देर तक रानी गुंडिचा और विद्यापति का नाम पुकार पुकार कर उन्हें बुलाते रहे। अंत में दुख से व्याकुल, चिंतित होकर वहीं समुद्र किनारे रेत पर बैठ गए। अब फिर कौन सी परीक्षा ले रहे हो प्रभु, अब फिर कौन सी... यही एक वाक्य वह बार बार जप रहे थे।शाम हुई तो उन्हें कुछ लोग नज़र आये। इंद्रद्युम्न उनके पास जाकर उस जगह के बारे में पूछने लगे। सामने वाले आदमी ने जो कहा वह सुनकर राजा के पैरों तले की भूमि खिसक गई। उस आदमी ने कहा कि, लगता है आप विदेशी हो मान्यवर, यह जगह उत्कल देश है और यहां पिछले चौदह पीढियों से प्रवल प्रतापी राजा गाल माधव का परिवार साशन करता आ रहा है। चौदह पीढ़ियों से यह असंभव है। मैंने तो सुना था कि यहाँ राजा इंद्रद्युम्न का शासन है राजा ने कहा। मैंने किसी इन्द्रद्युम्न का नाम कभी नहीं सुना । क्षमा कीजियेगा, लोग गलत पते पर आते हैं, मगर आप तो शायद गलत राज्य में ही आ गये हैं मान्यवर। यह कहकर वह आदमी हंसने लगा।राजा का दुःख अब किसी अनजान आशंका में बदल रहा था। लेकिन वह उस आदमी को पागल समझ कर आगे चलने लगे। कुछ दूर चलने के बाद उन्हें अखिरकर एक मंदिर की ध्वजा दिखाई दी।अवश्य ही मेरा मंदिर है। निश्चित ही विद्यापति तथा बाकी के लोग यहां मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे यह कहकर इन्द्रद्युम्न भागते हुए मंदिर के सामने पहुंचते हैं। यद्यपि उन्हीं के द्वारा भगवान जगन्नाथ के लिए बनाया गया यह वही मंदिर था, लेकिन उसके अतिरिक्त कोई भी वस्तु ऐसी नहीं थी जिसे वह पहचानते हों। सत्य जानने के लिये व्याकुल राजा मंदिर के बाहर बैठे एक ब्राह्मण के पास पहुंचे। अब फिर से अचंभित होने की बारी इंद्रद्युम्न की ही थी।ब्राह्मण ने कहा, यह राजा गाल माधव के कुल देवता भगवान विष्णु का मंदिर हैं। बहुत सालों पहले राजा के पूर्वजों को यह विशाल मंदिर पूरी तरह मिट्टी और रेत में दबा हुआ मिला था।राजा को आश्चर्यचकित देख ब्राह्मण ने आगे कहा,“हे विदेशी, तुम्हारी जिज्ञासा समझ सकता हूँ मैं। भला इतना विशाल मंदिर मिट्टी में कैसे दबा हुआ था यह जानने की उत्सुकता है ना तुम्हारे भीतरराजा अपनी सुध पूरी तरह से खो चुके थे और केवल सर हिला कर ब्राह्मण को हाँ में उत्तर दिया।तो सुनो, मंदिर को लेकर के एक लोककथा प्रचलित है। मैंने अपने पितामह से सुना था, उन्होंने अपने पितामह से। लगभग एक हज़ार वर्ष पहले, यहां इन्द्रद्युम्न नामक एक राजा का साशन था। हमारे महाराज की तरह ही वह भी प्रचंड विष्णु भक्त था। उसी ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। परंतु प्रतिष्ठा करने से पूर्व, एक दिन शायद ब्रह्मा जी  को निमंत्रण देने ब्रह्मलोक चला गया। बस उस दिन के बाद से उसे किसी ने नही देखा। इन्द्रद्युम्न को यह सब सुनकर अपने कानों पर विश्वास नही हो रहा था।उसकी प्रजा, उसकी रानी, मंत्री परिषद सब उसकी प्रतीक्षा करते करते मृत्यु को प्राप्त हो गए, परंतु वह नहीं आया। ऐसे ही कई पीढ़ियों के बाद धीरे धीरे उसका बसाया हुआ राज्य काल की गर्भ में लीन हो गया। उसका बनाया यह मंदिर भी पूरी तरह रेत में गड़ा हुआ था, एक दिन राजा के घोड़े की नाल किसी वस्तु से टकराई और राजा भूमि पर गिर पड़े। मिट्टी हटाई तो पता चला कि किसी मंदिर का शिखर है। बहुत दिन तक खुदाई करने के पश्चात तब जाकर कहीं इस भव्य मंदिर का ढांचा सामने आया। चूँकि मंदिर खाली था, तो राजा ने इसमें अपने आराध्य भगवान विष्णु की स्थापना की। बस तभी से यहाँ बैष्णव पूजन की परंपरा का प्रारंभ हुआ है। ब्राह्मण यह कहानी सुनाकर राजा इन्द्रद्युम्न को देख रहा था जो कि किसी बच्चे की तरह रोने लग गए थे।अरे क्या हुआ मान्यवर आप उसी इंद्रद्युम्न के वंशज हैं क्या ब्राह्मण ने रोते हुए राजा से पूछा।नहीं ब्राह्मण श्रेष्ठ, मैं कोई वंशज नहीं बल्कि स्वयं वही अभागा इन्द्रद्युम्न हूँ।  यह उत्तर सुनकर ब्राह्मण कोई प्रतिक्रिया दे पाता उससे पहले ही राजा रोते बिलखते चिल्लाते हुए मंदिर की ओर भागने लगे। उनके मन में अब कोई संदेह नहीं था। जिस ब्रह्मलोक में एक दिन गुज़र जाने पर मृत्युलोक में पूरा एक मन्वंतर निकल जाता है, वहाँ उनके बिताए गए कुछ समय का ही भुगतान था यह एक सहस्र वर्ष। राजा को समझ आ गया था कि, जिनको वह यहां छोड़ कर गए थे, उन सभी को मृत्यु को प्राप्त किये सैकड़ों वर्ष बीत चुके हैं।इतना बड़ा अन्याय क्यों किया मेरे साथ कालचक्र के इस पहिये के नीचे मेरा सब कुछ कुचल गया भगवन। हे नीलमाधव, यह कैसी लीला है आपकी इसका उत्तर आपको देना होगा, देना होगा इसका उत्तर.... रोष व अभिमान भरे कंठ से चींखते हुए राजा अब मंदिर के मुख्य द्वार की ओर बढ़ रहे थे। यह सब देख वहां उपस्थित सैनिकों ने राजा को पागल समझ कर बंदी बना लिया और गाल माधव के दरबार में लेकर चले गए।दरबार में पूछे जाने पर राजा इन्द्रद्युम्न ने गाल माधब को सारा वृत्तांत बताया। परन्तु शायद ही कोई उनकी बात मानता। इसके विपरीत, वह इन्द्रद्युम्न हैं ऐसा कहने पर राजसभा में उपस्थित समस्त पार्षदों ने उनका तीव्र उपहास किया। किसी किसी ने तो इन्द्रद्युम्न के ऊपर शत्रु देश का गुप्तचर होने का भी लांछन लगाया।वृद्धावस्था के चलते मतिभ्रम हो गया है तुम्हारा, जाओ जाओ, तुम्हारी हालत पर दया करते हुए मैं तुम्हें कोई दंड नहीं दे रहा हूँ। यदि दोबारा ऐसा प्रलाप करते दिखाई दिए तो कठोर दंड मिलेगा। गाल माधव ने अपमानित कर इन्द्रद्युम्न को राजसभा से निकाल दिया।दिन भर का राजकार्य सम्पात कर जब गाल माधव निद्रा लेने गए तो देर रात उनके सपने में भगवान विष्णु आये। अरे मूर्ख, तेरे अहंकार ने तुझे अंधा कर दिया है। जिसका तूने आज तिरस्कार किया वह मेरा सबसे बड़ा भक्त इन्द्रद्युम्न है। उसी ने मेरे आदेश अनुसार इस मंदिर का निर्माण किया है। यह मंदिर मेरे पुरुषोत्तम जगन्नाथ स्वरूप को समर्पित है जो आज भी अपने परम भक्त के हाथों ही प्रतिष्ठित होने की प्रतीक्षा किये रेत में दबी पड़ी है। जा, जाकर सम्मान के साथ इन्द्रद्युम्न को ले आ और विधिपूर्वक मेरे तथा इस मंदिर की स्थापना करवा। श्रीहरि विष्णु का यह आदेश सुन गाल माधव उसी समय आधी रात में ही राजा इन्द्रद्युम्न को खोजने निकल गए। बहुत ढूंढने के बाद समुद्र के किनारे सिर को झुकाए अत्यंत दुखी बैठे राजा इन्द्रद्युम्न उन्हें मिल गये। इन्द्रद्युम्न को देखते ही गाल माधव उनके पैरों पर गिर गए और अपनी मूर्खता के लिए उसने क्षमा माँगी। तत्पश्चात वह पूरे राजकीय सम्मान के साथ राजा इन्द्रद्युम्न को अपने महल ले आये। अगले दिन सुबह राजा इन्द्रद्युम्न और गाल माधव साथ ही मंदिर गए और भगवान विष्णु से वर्षों से दबी हुई त्रिमूर्तियों का संधान देने हेतु प्रार्थना करने लगे।  जैसे ही वे मंदिर से बाहर आये तो एक बहुत तेज आंधी चलने लगी। तूफ़ान के प्रकोप से थोड़ी ही दूरी पर स्थिति एक विशाल टीले पर से रेत छंटने लगी। रेत के छंटते के साथ ही प्राचीन मूर्तिशाला का आकार बाहर आने लगा।यह दृश्य देख राजा इन्द्रद्युम्न की आंखे भर आयी। पूरी मिट्टी हट जाने के बाद मूर्तिशाला के द्वार स्वयं ही खुल गए और अंदर से आने वाले दिव्य प्रकाश से सबकी आंखे चौंधियाने लगी। इतने साल दबे हुए होने के बाद भी त्रिमूर्तियों का तेज जरा सा भी कम नहीं हुआ था। जीवन में पहली बार विष्णु के इस अनोखे रूप का दर्शन करने वाले गाल माधव की आँखों से भी अब किसी अविरल झरने की तरह अश्रु बहने लगे।उपयुक्त घड़ी आने पर देवराज इंद्र व देवर्षि नारद सहित प्रजापति ब्रह्मा वहां उपस्थित हुए। ब्रह्माजी के संरक्षण में वेद मंत्रोचारण के बीच त्रिमूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा हुई। द्वापर काल में ज़ारा व अर्जुन द्वारा समुद्र में बहाया गया श्रीकृष्ण का अवशेष अब एक शक्तिपुंज बन कर भगवान श्रीजगन्नाथ के विग्रह में प्रवेश कर गया। यह अलौकिक दृश्य देख समस्त देवगण स्वर्ग से पुष्पवृष्टि करने लगे। भगवान जगन्नाथ की प्रतिष्ठा कर अपने अंतिम कर्तव्य का पालन करके राजा इन्द्रद्युम्न ने अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया और वैकुंठ लोक में विश्वावसु के पास अपना स्थान ग्रहण किया।आज भी पूरे विश्व में भगवान जगन्नाथ एकमात्र ऐसे देवता हैं जिनकी प्रतिमा जीवित है। श्रीकृष्ण का वह देह अवशेष आज भी भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा के अंदर वास करता है, जिसे ब्रह्म पदार्थ कहा जाता है। हर बारह वर्षों के बाद त्रिमूर्तियों का किसी जीवित मनुष्य के भांति ही अंतिम संस्कार किया जाता है और उस समय नई बनी प्रतिमा में प्राण स्वरूप श्री कृष्ण के अवशेष को स्थापित कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया को नवकलेवर कहा जाता है। भगवान नीलमाधव के कहे अनुसार आज भी विश्वावसु के वंशज ही प्रभु श्री जगन्नाथ के आद्य सेवक हैं, जिन्हें दैतापति कहा जाता है.

  • सरस्वती नदी के नन्दा नाम की कथा
    10 min 42 sec

    प्राचीन काल में पृथ्वी लोक में प्रभंजन नामक एक प्रसिद्ध महाबली राजा हुआ करते थे। एक बार वो जंगल में शिकार के उद्देश्य से गए हुए थे। जंगल में घूमते हुए अचानक उनकी दृष्टि झाड़ी के पीछे एक हिरणी पर पड़ी। हिरणी को देखते ही राजा ने उस पर बाण चला दिया। बाण के प्रहार से आहत हुई हिरणी ने जब हाथ में धनुषबाण लिए राजा प्रभंजन को देखा तो बोली, “अरे मूढ़ यह तूने क्या किया मैं यहाँ सर नीचे किए हुए, निर्भयता से अपने बालक को दूध पिला रही थी और ऐसी अवस्था में इस वन में आकर तूने मुझ निरपराध हिरणी को अपने बाणों का निशाना बनाया है। तूने यह पाप कर्म किया है। मैं तुझे श्राप देती हूँ की तू इस वन में कच्चा मांस खाने वाले जीव के रूप में जीवन व्यतीत करे।“ 

  • ईला और बुध
    9 min 56 sec

    वैवस्वत मनु और महारानी श्रद्धा दीर्घ काल तक निःसंतान रहे। पुत्रहीनता के कष्ट को कम करने हेतु महर्षि वशिष्ठ के परामर्श अनुसार, मनु और श्रद्धा ने भगवान मित्र और वरुण की उपासना करने का निर्णय लिया। वशिष्ठ ऋषि के संरक्षण में ही मनु ने पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन करवाया। भगवान मित्रवरुण से मनु ने अपने वंश को आगे चलाने हेतु एक पुत्र की कामना की थी, परंतु विधि का विधान कुछ और ही था।

  • उर्वशी और पुरुरवा की प्रेमकथा
    11 min 56 sec

    इला व बुध से जो पुत्र हुआ उनका नाम पुरुरवा था। पुरुरवा ने अपने पितामह चंद्र के नाम पर चंद्र वंश की स्थापना की और इला के बाद  वह राजा बने। पुरुरवा में देवसुलभ गुणों का समाहार था और वह प्रचंड बलशाली और प्रतापी राजा थे। पुरुरवा ने एक सौ अश्वमेध यज्ञ करवाकर स्वयं को देवों के समान यशोबल धारी बना दिया था। तीनों लोकों में पुरुरवा  की वीरता की गाथाएं कही जाने लगीं। इससे प्रभावित हो कर देवराज इंद्र ने भी पुरुरवा  से मित्रता स्थापित की और असुरों के विरुद्ध युद्ध में कईबार उनका समर्थन भी प्राप्त  किया।इंद्रलोक की सबसे सुंदरी अप्सरा उर्वशी के कानों में भी पुरुरवा  के वीरता और यश की गाथाएं पड़ी। किसी मानव का इस तरह देवसुलभ बलशाली होना साधारण बात नहीं थी। इसीलिए उर्वशी का मन भी एक बार पुरुरवा  से मिलने को हुआ। बहरहाल उर्वशी को यह अवसर जल्द ही मिलने वाला था।अपनी सखी चित्रलेखा के साथ उर्वशी एक बार धरा लोक की सुंदरता  का आनंद लेने आई हुई थी, तभी उनका सामना केशी नामक एक दैत्य से हो जाता है। केशी के हृदय में उर्वशी जैसी अपूर्व सुंदरी स्त्री के लिए काम भावना जाग्रत होती है और वह बल पूर्वक उर्वशी का अपहरण करने की चेष्टा करने लगता है।

  • कावड़ यात्रा की पौराणिक कथा
    5 min 16 sec

     कावड़ यात्रा वेद पुराणों में शिवजी का अन्य नाम आशुतोष बताया गया है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार महादेव को यह नाम इसीलिए मिला क्योंकि वह भक्तों और साधकों की निष्काम तथा कठोर साधना से तुरन्त प्रसन्न हो जाया करते हैं। इसी कारण के चलते प्राचीन काल से देवता, गन्धर्व, असुर तथा साधारण मानव आदि भोले की आराधना कर अनेक शक्तिशाली एवं असाधारण वर प्राप्त किया करते थे। आजके समय में शैव उपासना की इस अनन्य परम्परा का एक रूप प्रसिद्ध कावड़ यात्रा के रूप में देखने को मिलता है। जहाँ लाखों श्रद्धालु कठोर नियमों का पालन करते हुए सैकड़ों किलोमीटर नंगे पैर चलकर भगवान भोलेनाथ को जल अर्पित करते हैं। हिन्दू धर्म में श्रावण के महीने को अत्यन्त पवित्र माना जाता है। इसी श्रावण में कावड़ यात्रा निकलती है। मुख्यतः उत्तर और पूर्वी भारत में कावड़ यात्रा विशेष रूप से मनाई जाती है, जिसमें असंख्य शिवभक्त गेरुआ वस्त्र का परिधान किए हाथों में एक डंडी पर दो घड़े लटकाए हुए शिवजी का जलाभिषेक करने निकलते हैं। इन दो घड़ों में नदी का पवित्र जल होता है जिसे वे कावड़ नामक उस डंडी पर लटकाए अपने कंधों पर उठाए शिवालय पहुँचते हैं। इन भक्तों को कावड़िया कहा जाता है जो कि सकड़ों किलोमीटर का मार्ग पैदल की पार करते हुए भोले की शरण में पहुँचते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कावड़ यात्रा की शुरुआत शिवजी को शीतल जल से अभिषेक करने की प्रथा से शुरू हुई है। विष्णु पुराण एवं भागवत पुराण के अनुसार समुद्र मंथन के उपरान्त जब हलाहल विष की उत्पति हुई तो समग्र सृष्टि इसके प्रभाव में आकर नष्ट होने वाली थी। सृष्टि को इस विष के प्रलय से बचाने हेतु शिवजी ने हलाहल का पान कर लिया जिसके दुष्प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया। इसी वजह से शिवजी का एक और नाम नीलकंठ भी पड़ा। इसके पश्चात् शिवजी को विष की ज्वाला से शान्ति प्रदान करने हेतु माता पार्वती एवं अन्य देवताओं ने शीतल जल से उनका अभिषेक किया। तभी से भोलेनाथ के जलाभिषेक की परम्परा प्रचलन में आई। यूं तो पूरे वर्ष भक्त शिवालयों में जाकर शिवजी का अभिषेक करते हैं, लेकिन मान्यताओं के अनुसार कावड़ यात्रा के समय ऐसा करने से श्रद्धालुओं को विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। 

  • जरासन्ध वध
    6 min 44 sec

    श्रीकृष्ण और अर्जुन ने अग्नि देव की सहायता से खाण्डवप्रस्थ के जंगलों में लगी आग को बुझा लिया और उस आग से अपनी जान बचाए जाने के कारण मायासुर राक्षस ने पाण्डवों को इन्द्रप्रस्थ में अपनी राजधानी और एक शानदार महल बनाने में मदद की। मयासुर रावण का ससुर और एक बहुत ही कुशल वास्तुकार था। सभी देवता, गन्धर्व, राजा और ऋषि इस शानदार महल को देखने के लिए आए और युधिष्ठिर ने उनका सत्कार किया। देवर्षि नारद जी की उपस्थिति में युधिष्ठिर के मन में राजसूय यज्ञ करने का विचार आया। युधिष्ठिर ने अपने भाइयों और मंत्रियों से इस विषय में बात की और सभी मान गए लेकिन युधिष्ठिर श्रीकृष्ण से इस बात की सहमति चाहते थे। जैसे ही श्रीकृष्ण आए युधिष्ठिर ने उन्हें यज्ञ के विषय में बताया। तब श्रीकृष्ण बोले, तुम्हारे भीतर इस यज्ञ को करने की सभी योग्यताएँ हैं लेकिन इससे पहले तुम्हें मगध के राजा जरासन्ध को ख़त्म करना होगा। वह पूरी पृथ्वी का शासक बनने हेतु महादेव को प्रसन्न करने के लिए एक यज्ञ करने जा रहा है। उसने बलि के लिए सैकड़ों राजाओं को बन्दी बनाकर रखा है। उसके जीवित रहते हुए तुम ये यज्ञ नहीं कर सकते क्योंकि वो कोई न कोई व्यवधान अवश्य उत्पन्न करेगा। बुराई के रास्ते पर चलने वाले जरासन्ध का अन्त होना अब आवश्यक हो चुका है। इसके बाद श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर और बाक़ी पाण्डवों से कहा, हम उसे युद्ध के लिए नहीं ललकार सकते क्योंकि उसके पास विशाल सेना है। हम उसके पास ब्राह्मण का वेश धारण करके जाएँगे क्योंकि वो अभी भी ब्राह्मणों का सम्मान करता है। इस उद्देश्य के लिए अर्जुन और भीम तुम दोनों मेरे साथ आओगे।

  • स्यमन्तक मणि की कथा
    9 min 36 sec

    स्यमन्तक मणि की कथा जब भगवान् श्रीकृष्ण पर लगा चोरी का आरोपसूत्रधार की इस कहानी में हम सुनेंगे स्यमन्तक मणि के बारे में। स्यमन्तक मणि एक ऐसी मणि थी जिसमें स्वयं भगवान् सूर्यदेव का तेज समाहित था। वो मणि जिस भी राज्य में रहती उस राज्य में कभी भी धनधान्य की कमी नहीं होती। अब ऐसी मणि को कौन नहीं पाना चाहेगा। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के मन में उस मणि को पाने की इच्छा जागी। बचपन में गोपियों से माखन चुराकर खाने के कारण भगवान् श्रीकृष्ण का एक नाम माखनचोर भी है। लेकिन इस बार जो आरोप भगवान् कृष्ण पर लगा था वो हंसीखेल में करी गयी चोरी का नहीं था। इस बार आरोप लगा था दुनिया की सबसे मूल्यवान वस्तु की चोरी का। आरोप था कि श्रीकृष्ण ने चोरी की थी स्यमन्तक मणि की। क्या था इस आरोप का सच क्या सच में चुराई थी श्रीकृष्ण ने वो मूल्यवान मणि अगर नहीं, तो फिर उन पर ऐसा आरोप क्यों लगा इन्ही प्रश्नों के उत्तर मिलेंगे हमें आज की इस कथा में। भगवान् श्रीकृष्ण की पत्नियों जांबवंती और सत्यभामा के तार भी इसी कथा से जुड़े हुए हैं । तो फिर बिना समय व्यर्थ किये सुनते हैं इस रोचक कथा को और जानते हैं इससे जुड़े हुए सारे प्रश्नों के उत्तर। अंधकवंशी यादवों के राजा सत्राजित भगवान् सूर्यदेव के परम भक्त थे। सत्राजित ने वर्षों तक सूर्यदेव की आराधना की। एक दिन सुबहसुबह सत्राजित रोज की ही तरह सूर्य वंदना कर रहे थे, कि भगवान् सूर्यदेव स्वयं उनके सामने प्रकट हो गए। सत्राजित ने जब भगवान् आदित्य को साक्षात् अपने सामने खड़ा हुआ देखा तो हाथ जोड़कर वंदना करते हुए कहा,प्रभु आप जिस तेज से इस सारे संसार को प्रकाशित करते हैं, मुझे वह तेज देने की कृपा करें। सत्राजित के ऐसा कहने पर भगवान् भास्कर ने उन्हें दिव्य स्यमन्तक मणि दी। यह मणि सूर्य के तेज से प्रकाशित थी और उसको अपने गले में पहनकर जब सत्राजित ने अपने नगर में प्रवेश किया तो सभी को लगा स्वयं सूर्यदेव पधारे हैं।  सत्राजित ने वह मणि अपने प्रिय छोटे भाई प्रसेनजित को दे दी। वह मणि अंधकवंशी यादवों के घर में समृद्धि लाती रही। वह मणि जहाँ भी रहती उसके आसपास के क्षेत्रों में समय पर वर्षा होती और लोग सभी रोगों से मुक्त रहते। जब भगवान् श्रीकृष्ण को उस मणि के बारे में पता चला तो उन्होंने प्रसेन से मणि पाने की इच्छा व्यक्त की, परन्तु प्रसेन ने उनको मणि देने से मना कर दिया।  एक दिन प्रसेन उस मणि को अपने गले में पहनकर शिकार खेलने के लिए गए। वहाँ प्रसेन एक शेर के हाथों मारे गए और वह शेर उनकी मणि अपने मुँह में दबाकर भाग गया। महाबली ऋक्षराज जांबवान ने जब शेर को अपने मुँह में मणि दबाये भागते हुए देखा तो उन्होंने शेर का वध कर, मणि लेकर अपनी गुफा में चले गए। अगर आप लोग सोच रहे हैं कि क्या ये जांबवान वही हैं तो आप सही सोच रहे हैं। ये वही ऋक्षराज जांबवान हैं जिन्होंने सीतामाता की खोज में भगवान् राम की मदद की थी। इधर जब कई दिनों तक प्रसेन का कोई पता नहीं चला तो अंधकवंश के लोग संदेह करने लगे कि होनहो इसमें श्रीकृष्ण का ही हाथ है। उन्होंने पहले भी प्रसेन से मणि माँगी थी और प्रसेन ने उन्हें मणि नहीं दी इसलिए उन्होंने मणि चुराने के उद्देश्य से प्रसेन को या तो बंदी बना लिया है, या उसका वध कर दिया है। सत्राजित ने द्वारका आकर भरी सभा में सबके सामने श्रीकृष्ण पर आरोप लगाते हुए कहा,माखन चुरातेचुराते रत्नों की चोरी कबसे करने लगे, यशोदानन्दन मेरे प्रिय भाई को तुमने जहाँ भी छुपाकर रखा है, उसे मणि समेत वापस कर दो। भगवान् श्रीकृष्ण ने मणि नहीं चुराई थी, फिर भी उन पर मणि चुराने का आरोप लग रहा था और लोग तरहतरह की बातें कर रहे थे। इस कलंक से मुक्त होने के लिए श्रीकृष्ण ने मणि को ढूंढने का निश्चय किया और जंगल में चले गए। जंगल में प्रसेन के घोड़े के पैरों के निशानों का पीछा करते हुए श्रीकृष्ण को प्रसेन की और उसके घोड़े की लाशें मिली, लेकिन वहाँ मणि का कोई निशान नहीं था। थोड़ी दूर पर ऋक्षराज के द्वारा मारा गया सिंह भी पड़ा मिला। ऋक्ष के पैरों के निशान का पीछा करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण जांबवान की गुफा तक पहुँच गए। 

  • अजगरोपाख्यान - नहुष उद्धार
    14 min 13 sec

    अपने अहंकार के कारण अगस्त्य ऋषि के शाप का भागी बने नहुष ने वर्षों पृथ्वी पर एक अजगर के रूप में व्यतीत किए। नहुष की कथा के इस भाग में हम देखेंगे अंततः कैसे हुआ नहुष का उद्धार। एक समय इंद्र रह चुके नहुष का सर्प बनकर धरा लोक पर पतन हुए हजारों वर्ष बीत चुके थे। महर्षि अगस्त्य के श्राप के कारण इतने वर्षों के उपरांत भी नहुष को सब कुछ पूरी तरह से याद था। वह जानते थे कि वह चन्द्रवंशी सम्राट आयु के पुत्र तथा अपने अहंकार का ही शिकार बने एक अभागे मनुष्य हैं जिन्होंने अपने अहंकार के वशीभूत होकर इन्द्र के पद को पाकर भी खो दिया। हर समय अपने द्वारा की गयी भूल को याद करते हुए सर्प रूपी नहुष पश्चाताप करते व अपनी मुक्ति की प्रतीक्षा करते। हिमालय के तलहटी पर सरस्वती नदी के किनारे वन में एक विशाल सर्प के रूप में वास करने वाले नहुष जीव जंतु तथा अपने समीप आने वाले मनुष्यों का भक्षण कर अपनी क्षुधा का निवारण करते। ऐसे ही अपना जीवन व्यतीत करते नहुष अब द्वापर युग में पहुंच चुके थे। वनवास काल के समय पांडव विचरण करते हुए इसी वन में आये जहाँ नहुष का वास था। एक बार  अपने लिए खाना ढूंढ़ते ढूंढ़ते भीम गलती से नहुष के पास पहुंच जाते हैं। बहुत दिनों से भूखे नहुष ने  अब भीम को देख कर उन्हें अपना भोजन बनाने का निश्चय किया। सर्प रूपी नहुष की विशाल काया से अचंभित भीम भी एक क्षण के लिए इतने बड़े सांप को देख कर तटस्थ हो गए थे। अब नहुष आगे बढे और अपनी जीभ लहलहाते हुए भीम की ओर अग्रसर हुए। हर समय अपने बल को लेकर अहंकार करने वाले भीम को आज कोई सर्प अपनी कुंडली में जकड़ रहा था और बहुत कोशिशें करने  के बाद भी महाबली भीम असहाय थे। भीम बस नहुष का भोजन बनने ही वाले थे कि वहां पर धर्मराज युधिष्ठिर का आगमन होता है। चूंकि बहुत देर से भीम वापस नहीं आये थे तो उन्हें खोजते खोजते युधिष्ठिर वहां पहुंच जाते हैं। अपने महा बलशाली भ्राता को एक सांप के चंगुल में इस तरह असहाय फंसा हुआ देख युधिष्ठिर समझ जाते हैं कि  यह कोई साधारण सर्प नहीं हो सकता। “हे सर्प, मैं युधिष्ठिर हूँ। तुमने जिसे अपना भोजन बनाने का निश्चय किया है,वह मेरा अनुज है। कृपा करके तुम उसे जाने दो, मैं तुम्हे इसके बदले कोई और उत्कृष्ट भोजन देने का वचन देता हूँ।” भीम को बचाने के लिए युधिष्ठिर ने सर्प से कहा।”“हे कुंती पुत्र, मैं भली भांति जानता हूँ तुम कौन हो. और तुम्हारे अनुज को भी जानता हूँ। लेकिन मैं भूख की ज्वाला से विवश हूँ, भीम जैसे हट्टे कट्टे मनुष्य का भोजन कर मैं कई दिनों तक क्षुधा की ज्वाला से स्वयं की रक्षा कर सकता हूँ। तुम वापस लौट जाओ, मेरा भीम को खाना निश्चित हैं।” भूख से तिलमिलाते नहुष ने उत्तर दिया।

  • भगवान जगन्नाथ : श्रीकृष्ण का वैकुंठ गमन (Part 1)
    6 min 1 sec

    द्वापर युग का अंतिम समय आ चुका था, महाभारत युद्ध को हुए छत्तीस  वर्ष  बीत चुके थे। गांधारी के श्राप के अनुसार सात्यकि और कृतवर्मा की लड़ाई से शुरू हुआ कलह अब पुरे यादव वंश को समाप्त कर चुका था। शेष बचे बलराम के स्वधाम लौटने के बाद अब पूरी तरह से अकेले हो चुके थे भगवान श्रीकृष्ण। अब अपना बाकी का जीवन वह वन में ही बिताने लगे. एक दिन वनवासी जारा शिकार की तलाश में जंगल में घूम रहा था। जारा को झाड़ियों के बीच खड़े एक हिरण का आभास हुआ, उसने अपने धनुश को तैयार किया और निशाना साध दिया। जारा का निशाना अभेद्य था, गहरे लाल रंग के रक्त के प्रवाह के  साथ जारा को अपनी विजय का एहसास हो चुका था। तभी हृदय को चीरने वाली एक दर्द भरी चीख ने उसे एक समय  के लिए झकझोर कर रख दिया, उसका तीर गलती से मृग को नहीं बल्कि एक ,मनुष्य को लग चुका था। जारा ने अपने सामने जो दृश्य देखा उसके बाद उसे खुद पर बहुत क्रोध आया और वह पश्चाताप की आग में जलने लगा। क्योंकि जारा का बाण वहीं झाड़ियों के बीच विश्राम कर रहे एक मनुष्य के पैर में लग चुका था जिसे जारा ने गलती से हिरण समझ लिया था। वह मनुष्य कोई और नहीं, द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण थे। बहरहाल जारा ने भगवान से अपने इस किये गए पाप के दंड स्वरुप स्वयं के लिए भी मृत्यु मांग ली।जारा को इस तरह रोते बिलखते अपने भाग्य को कोसते हुए देख भगवान श्रीकृष्ण थोड़ा मुस्कुराये। जिन्होंने अधर्म को समाप्त करने हेतु महाभारत की रचना की, उन्हें भला स्वयं की मृत्यु की  पूर्व निर्धारित विधि कैसे न पता रहती। जारा की व्याकुलता को देख कर श्रीकृष्ण ने उसे यह कहकर सांत्वना दी कि यह सब पहले से तय था, जारा द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण की हत्या का कारण नहीं बल्कि उनके पार्थिव शरीर से मुक्ति का कारक बना है। भगवान ने जारा की उत्सुकता को देख उसे अपने और उसके पूर्व जन्म की कहानी सुनाई, कि कैसे उसी के ही हाथों उनका, मृत्यु को प्राप्त करना विधि निर्देशित था। पूर्व जन्म यानी त्रेता युग में भगवान राम के अवतार ने महापराक्रमी वानर राज बाली का वध किया था, यद्यपि यह धर्म की स्थापना हेतु ज़रूरी था, लेकिन युद्ध के नियमों के विरुद्ध था। भगवान राम ने बाली की हत्या करने हेतु छल का सहारा लिया था, और बाली पर तीर उन्होंने एक झाड़ी के पीछे रहकर, छुपकर चलाया था।जारा अभी तक कुछ समझने की स्थिति तक नहीं पहुंच पाया था, वह समझ नहीं पा रहा था कि उसको यह सब कहानी क्यों सुनाई जा रही है, उसका इससे क्या लेना देना है। खैर उसका यह संदेह ज्यादा देर तक नहीं टिक पाया जब श्रीकृष्ण ने उसे बताया कि वह त्रेता युग में वानर राज बाली था। देवराज इंद्र का  पुत्र वही वानर महावीर जिसके पराक्रम से असुर तो असुर, देवता भी कांपते थे। जारा को यह सब किसी अविश्वसनीय सपने जैसा लग रहा था, लेकिन वह भी मानने को विवश था। भगवान श्रीकृष्ण के ऊपर बाण चलाकर उसने अपने प्रतिशोध के ऋण को ही चुकाया था। श्रीराम से सच्ची भक्ति, प्रेम और  समर्पण ही वही कारक थे जिनके चलते स्वयं भगवान को भी उसे यह अवसर देना ही पड़ा। अपनी हत्या  का प्रतिशोध जारा रूपी बाली ले चुका था, बिना जाने, बिना समझे, बिना उसकी इच्छा के। बेहरहाल, अर्जुन के साथ मिलके जारा ने भगवान श्रीकृष्ण का अंतिम संस्कार किया और उनके कहे अनुसार द्वारका नगरी का सम्पूर्ण विनाश भी अपनी आँखों से देखा। श्रीकृष्ण का पार्थिव शरीर अग्नि में लीन होने के बाद भी उनका हृदय जैसे का वैसा था। आग उसे जला नहीं पाई थी, और तो और वह तब भी धड़क रहा था। अर्जुन और जारा  ने श्रीकृष्ण के शेष बचे उस अंश  को समुद्र में विसर्जित कर दिया। उसी पल से द्वापर युग की समाप्ति और कलयुग का आरंभ हुआ। एक और मान्यता के अनुसार जारा,  वानर राज बाली नहीं बल्कि उनके पुत्र अंगद का पुनर्जन्म था। 

  • भगवान जगन्नाथ रथयात्रा
    12 min 55 sec

    विश्व में कई धर्म, पन्थ तथा सम्प्रदायों के मानने वाले वास करते हैं। इन सबके द्वारा अपनी अपनी परम्पराएँ , पूजा पद्धति और तरह तरह के अनोखे त्योहार मनाए जाते हैं। इसी तर्ज पर भारत में वैष्णव धर्म के मानने वालों के द्वारा भगवान श्रीहरि विष्णु और उनके दशावतारों की उपासना किए जाने की विधि प्रचलित है। दशावतारों में भगवान श्रीकृष्ण का आधुनिक भारतीय समाज एवं हिन्दू दर्शन पर गहरा प्रभाव दिखाई पड़ता है। जिसके चलते केवल वैष्णव नहीं अपितु प्रत्येक पन्थ के सनातनियों में कृष्ण उपासना की प्रथा प्रचलित है। इसी सन्दर्भ में भगवान श्रीकृष्ण के कलियुग के अवतार पुरुषोत्तम जगन्नाथ की गरिमा सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रतिष्ठित है। चारों धामों में एक माने जाने वाले श्री जगन्नाथ के निवासस्थल नीलान्चल पूरी में हर साल मनाई जाने वाली रथयात्रा हिन्दू संकृति के महान् तम पर्वों में से एक है , जो कि केवल भारत ही नही बल्कि पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है।प्रतिवर्ष आषाढ़ शुल्क द्वितीया को भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, देवी सुभद्रा तथा सुदर्शन को तीन विशाल सुसज्जित रथों पर विराजमान कर श्रीमन्दिर से गुंडीचा मन्दिर की ओर लिया जाता है। इस भक्तिमय परिवेश में सराबोर होने हेतु लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। बिना किसी जातपात, धर्म, मत आदि का प्रभेद किए भगवान अपनी इस अनूठी लीला में समग्र संसार हो दर्शन देने हेतु स्वयं मन्दिर से बाहर निकलते हैं। मान्यताओं के अनुसार रथ पर विराजमान भगवान श्रीकृष्ण की इस अनोखे रूप का दर्शन करने वाले को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति मिलती है। साथ ही साथ ऐसा माना जाता है कि पुराणों में वर्णित सभी आठ चिरंजीवी रथयात्रा के दिन भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने हेतु छद्म वेश धारण कर पूरी पधारते हैं  

  • महाराज परीक्षित और कलियुग
    10 min 42 sec

    पांडवों के महाप्रयाण के बाद अर्जुन के पौत्र और अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित हस्तिनापुर के महाराज बने। स्वयं पाण्डव भाइयों के द्वारा शिक्षा प्राप्त परीक्षित सर्वगुण संपन्न महाप्रतापी राजा थे। परीक्षित गुरु कृपाचार्य और युयुत्सु के संरक्षण में भली भांति राजधर्म का पालन करते थे। परीक्षित का विवाह राजा उत्तर की पुत्री इरावती से हुआ और उनको जनमेजय, भीमसेन, श्रुतसेन और उग्रसेन नाम के चार पुत्र हुए। कुलगुरु कृपाचार्य के सुझाव पर परीक्षित ने गंगा नदी के तट पर तीन अश्वमेध यज्ञ किए और समस्त विश्व में अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए दिग्विजय पर निकल गए। अपनी दिग्विजय यात्रा के दौरान एक जगह महाराज परीक्षित की भेंट एक गाय, एक बैल और एक ग्वाले से हुई। गाय बहुत ही दुर्बल थी और बैल केवल एक ही पैर पर खड़ा था तथा ग्वाला दोनों को मार रहा था।  

  • गणपति के जन्म की कथा
    13 min 3 sec

    श्रीगणेश पुराण के अनुसार गणेश जी के जन्म और उनके हाथी के सर की कथा कुछ इस प्रकार है। देवी पार्वती की दो सखियाँ थीं – जया और विजया। दोनों अत्यंत सदाचारिणी और विवेकमयी थीं, और देवी पार्वती उनका बहुत आदर करती थीं। एक दिन उन सखियों ने पार्वती जी से कहा, “सखी शिवजी के इतने सारे गण हैं और आपका एक भी नहीं। आपका कम से कम एक गण तो होना चाहिये।“ उमा ने आश्चर्यपूर्वक कहा, “क्या कह रही हो सखियों हमारे पास करोड़ों गण हैं, जो सदा हमारी आज्ञा का पालन करने के लिये तत्पर रहते हैं। फिर किसी अन्य गण की क्या आवश्यकता है”सखियों ने कहा, “सभी गण महादेव के हैं। उनकी ही आज्ञा उनके लिए प्रमुख है। नंदी, भृंगी आदि सभी गण आपकी आज्ञा मानते तो हैं पर आशुतोष भगवान की आज्ञा ही उनके लिये सर्वोपरि है। यदि आप कोई आदेश दें और शिवजी उसकी उपेक्षा करें तो कोई भी गण आपका आदेश नहीं मानेगा। आप पूछेंगी को अवश्य ही कोई बहाना बना दिया जाएगा।“देवी पार्वती ने अपनी सखियों भी बात सुनी पर समय के साथ भूल गयीं। एक दिन पार्वती जी स्नान करने जा रही थीं, और उन्होंने नंदी को आदेश दिया कि वो द्वार पर खड़े होकर किसी को भी अंदर न आने दें। नंदी द्वार पर खड़े हो गए। उसी समय शंकर जी वहाँ आ पधारे और अंदर जाने लगे। नदीश्वर ने उनको रोकते हुए कहा, “स्वामी माता अभी स्नान कर रही हैं, इसलिए आप यहीं ठहरने की कृपा करें।“शिवजी नंदी की बात को अनसुना करके अंदर चले गए। भगवान आशुतोष को इस प्रकार अंदर आया देखकर देवी पार्वती को अपनी सखियों की बात याद आ गई। उनको समझ में आ गया की सभी गण शिवजी के सेवक हैं और उनकी आज्ञा ही उनके लिए सर्वोपरि है। नंदी ने आज मेरी इच्छा की उपेक्षा की है। यदि मेरा कोई गण होता तो उसके लिए मेरी इच्छा सर्वोपरि होती। 

  • अहिल्या
    6 min 49 sec

    गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥देवी अहिल्या का नाम वैदिक भारत की असीम सुंदरियों में लिया जाता है। सृष्टि के रचयिता ब्रह्मदेव की मानस पुत्री अहिल्या को उनके पति गौतम महर्षि ने जड़ हो जाने का श्राप दे दिया था। अपने पति के श्राप के कारण वर्षों तक अहिल्या एक पत्थर की मूर्ति बनकर रहीं और अंततः त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने अपने स्पर्श से उनका उद्धार किया। क्यों दिया गौतम ऋषि ने अपनी पत्नी को पत्थर बन जाने का श्राप सुनिए रामायण के पन्नों से देवी अहिल्या की यह कथा। रामायण में यह कथा ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम और लक्ष्मण जी को सुनाई थी। ब्रह्मा की मानस पुत्री अहिल्या की सुंदरता असीमित थी। रूप और गुण में कोई भी स्त्री उनके समान नहीं थी। ब्रह्मदेव के आशीर्वाद से देवी अहिल्या का विवाह महर्षि गौतम के साथ हुआ और दोनों मिथिला नगरी के समीप आश्रम में रहने लगे। एक बार देवराज इन्द्र गौतम आश्रम के पास से निकल रहे थे कि उनकी दृष्टि सुंदरी अहिल्या पर पड़ी। देवी अहिल्या की सुंदरता देखकर इन्द्र अपनी वासना पर नियंत्रण नहीं रख सके और उन्होंने किसी प्रकार अहिल्या को पाने के सोची। एक दिन इन्द्र ने प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त के पहले ही एक मुर्गे की आवाज निकालकर गौतम ऋषि को भ्रमित कर दिया। महर्षि को लगा कि ब्रह्ममुहूर्त हो गया है और वो नदी में स्नान के लिए निकल गए। अहिल्या आश्रम में अकेली थी। देवराज इन्द्र, जो कि ऐसे ही अवसर की ताक में थे, गौतम ऋषि का वेश धारण कर आश्रम पहुँच गए। पहले तो देवी अहिल्या को लगा की उनके पति ही स्नान कर वापस लौट आए हैं और उन्होंने गौतम ऋषि के वेश में इन्द्र को अपने पास आने से नहीं रोका। दोनों काम वासना से भरे हुए एकदूसरे के समीप आना चाह रहे थे। ऐसा कामुक व्यवहार गौतम ऋषि से अपेक्षित नहीं था, इसीलिए अहिल्या को संदेह हुआ कि यह उनके पति के रूप में कोई और ही है परंतु अपनी कामुकता के मद में अहिल्या ने इन्द्र को नहीं रोक और उनके साथ संभोग किया।  

  • समुद्र मंथन | Samudra Manthan
    10 min 19 sec

    भगवान् विष्णु के दस प्रमुख अवतारों में दूसरा अवतार था कूर्म या कच्छप अवतार। इसके पहले विष्णु भगवान् ने एक मछली के रूप में अवतरित होकर इस सृष्टि को प्रलय से बचाया था। आज की इस कथा में देखिये क्यों भगवान को एक कछुए के रूप में अवतरित होना पड़ा।  एक बार भगवान् शिव के क्रोध से जन्मे दुर्वासा ऋषि पृथ्वी लोक में भ्रमण कर रहे थे। घूमतेघूमते उन्होंने एक विद्याधरी के हाथों में सुगन्धित पुष्पों की एक माला देखी। उस माला की सुगंध से पूरा वातावरण मोहित हो रहा था। विद्याधरी ने मुनिवर के मन की इच्छा जानकर वह माला उनको भेंट कर दी।  ऋषिश्रेष्ठ वह माला अपने गले में डालकर विचरण करने लगे। उसी समय उन्होंने ऐरावत पर विराजमान देवराज इन्द्र को अन्य देवताओं के साथ आते हुए देखा। उन्हें देखकर दुर्वासा ऋषि ने वह माला अपने गले से उतारकर इन्द्र के ऊपर डाल दी। इन्द्र ने वह माला अपने ऊपर से उतारकर ऐरावत के मस्तक पर डाल दी। उस मदोन्मत्त हाथी ने अपनी सूंड से उठाकर वह माला जमीन में फेंक दी। यह देखकर अपने क्रोध के लिए तीनों लोकों में प्रसिद्द दुर्वासा ऋषि क्रोधित हो गए और बोले,अरे ऐश्वर्य के मद में चूर इन्द्र तू बड़ा ही ढीठ है। तूने मेरी दी हुई माला का कुछ भी आदर नहीं किया। तूने ना ही आदर के साथ प्रणाम कर आभार व्यक्त किया और ना ही उसे अपने सर पर धारण किया। तूने तो उसे निरादर के साथ जमीन पर फेंक दिया। हे देवराज जिसके क्रोध से पूरा संसार भयभीत रहता है, तूने उस दुर्वासा का अपमान किया है। जिस वैभव के गर्व से तूने यह घोर अनर्थ किया है, वह वैभव तुझसे छिन जायेगा। दुर्वासा के शाप को सुनते ही इन्द्र ऐरावत से उतरकर मुनि के चरणों में प्रणाम कर अनुनयविनय करने लगे। इस प्रकार इन्द्र के पश्चाताप करने पर दुर्वासा ऋषि का क्रोध थोड़ा शांत हुआ तो वो कहने लगे,इन्द्र मैं दुर्वासा हूँ। अन्य ऋषियों की तरह क्षमाशील नहीं हूँ। मेरा दिया हुआ शाप तो सिद्ध होकर रहेगा।  ऐसा कहकर दुर्वासा ऋषि वहाँ से चले गए और इन्द्र ने भी अलकापुरी को प्रस्थान किया। शाप के प्रभाव से धीरेधीरे इन्द्र का वैभव घटने लगा। लोगों ने धर्मकर्म करने बंद कर दिए और लक्ष्मी संसार को छोड़कर विलुप्त हो गयीं। इस प्रकार त्रिलोकी के श्रीहीन होने के कारण देवताओं की शक्ति क्षीण हो गयी। ऐसे में दैत्यों और दानवों ने देवताओं पर आक्रमण कर दिया और उनको हराकर अलकापुरी से भगा दिया।  तब इंद्रदेव के साथ समस्त देवगण पितामह ब्रह्मा के पास गए। उनसे सब कुछ सुनने के बाद ब्रह्मदेव ने उनको भगवान् विष्णु की शरण में जाने को कहा। इस प्रकार भगवान् विष्णु से सहायता की इच्छा से समस्त देवगण पितामह ब्रह्मा के साथ क्षीर सागर पहुँचे और नारायण के दर्शन पाकर उनसे बोले,हे देव दुर्वासा ऋषि के शाप से संसार के श्रीहीन हो जाने के कारण दैत्यों ने हमें हराकर अलकापुरी से निष्कासित कर दिया है। अब हम आपकी शरण में आये हैं। आप अपनी शक्ति से हमारे खोये हुए तेज को वापस पाने में हमारी सहायता करें। देवताओं के इस प्रकार विनती करने पर श्रीहरि बोले,हे देवगण आप सब लोग मेरी शरण में आये हैं तो मैं आप लोगों की सहायता अवश्य करूँगा। तुम्हारा सारा वैभव दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण इसी क्षीरसागर में समाहित हो गया है। अब तुम लोग उन्हें वापस पाने के लिए इसका मंथन करो। इस प्रक्रिया के अंत में अमृत निकलेगा जिसे पीकर तुम सब अमर हो जाओगे। परंतु इस महान कार्य को दैत्यों और दानवों को साथ मिलकर करना पड़ेगा। यह बात सुनकर देवताओं को चिंतित देखकर भगवान् विष्णु बोले,आप लोग चिंता मत करिये, मैं ऐसी युक्ति करूँगा की अमृत देवताओं को ही मिले। भगवान् विष्णु की आज्ञा मानकर देवताओं ने दैत्यों और दानवों को समुद्र मंथन के काम में शामिल कर लिया। शेषनाग की सहायता से मंदराचल पर्वत को मथानी बनाने के लिए लाया गया। वासुकि नाग की नेती बनायी गयी। वासुकि के मुख की ओर दैत्य और दानव तथा पूँछ की ओर देवगण लग गए। इस प्रकार जब मंथन की प्रक्रिया शुरू की गयी तो मंदराचल पर्वत बारबार ऊपरनीचे होने लगा। इस प्रकार तो समुद्र मंथन का कार्य संभव नहीं था। उस समय नारायण ने एक कछुए के रूप में प्रकट होकर मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया और स्वयं अपने दैवी रूप से पर्वत के ऊपर बैठ गए। इस प्रकार दोनों ओर से मंदराचल की मथानी को सहारा देकर नारायण ने क्षीर सागर के मंथन का कार्य प्रारम्भ करवाया। Samudra Manthan Earlier Shrihari had appeared in the form of a fish to save the earth from deluge caused by cosmic sleep of Brahmadev. This time he appeared to protect the Gods and restore their lost glory.Once Durvasa rishi was roaming around and he noticed a beautiful girl playing with a garland of beautiful flowers in a garden. Entire surrounding was filled with the scent of those beautiful flowers. The girl offered the garland to Durvasa rishi, who accepted it with pleasure. The great sage proudly wore the garland around his neck and started roaming around. Around the same time, he noticed the king of Gods Indra passing by riding his divine elephant Eiravat. When they crossed path Durvasa rishi offered the garland to Indra. Indra took off the garland from his neck and put it on Eiravat’s head. Intoxicated with the beautiful scent of the flowers, Eiravat picked up the garland from his head and threw it on the ground.        

  • Govardhan Pooja | गोवर्धन पूजा
    12 min 53 sec

    एक बार, कृष्ण और बलराम जंगल में कुछ मजेदार समय बिताने के बाद पुनः बृज आए। बृज पहुँचते ही उन्होंने देखा इन्द्रोत्सव को लेकर सभी गोप बहुत हर्षित और उत्साहित थे। यह देखकर कृष्ण को उत्सुकता हुई और उन्होंने पूछा, यह उत्सव किस बारे में है कृष्ण की बात सुन एक वृद्ध गोप ने कहा, “इन्द्रदेव बादलों के स्वामी है, वह पूरे विश्व के रक्षक है। उनके कारण ही बारिश आती है। बारिश के कारण, हमारी सभी फसलें हरीभरी हैं, हमारे मवेशियों के पास चरने के लिए पर्याप्त घास है और इन्द्र देव के प्रसन्न रहने से पानी की कभी कमी नहीं रहती, इन्द्र के आदेश से ही मेघ इकठ्ठा होते हैं और बरसते हैं। कृष्णा बारिश इस धरती पर जीवन लाती है और देवराज इन्द्र ही हैं जिनके प्रसन्न रहने से बारिश होती है। इसलिए वर्षा ऋतु में इन्द्र देव की पूजा की जाती है। सभी राजा इन्द्र देव की पूजा बड़े आनन्द से करते हैं इसलिए हम सभी भी वही कर रहे हैं।’  कृष्ण ने गोपों की बात बहुत ध्यान से सुनी और फिर कहा, आर्य हम सभी जँगल में रहने वाले गोप हैं और हमारी आजीविका गोधन पर निर्भर करती है इसलिए गाय, जंगल और पहाड़ हमारे देवता होने चाहिए। किसान की रोजीरोटी खेती है, उसी तरह हमारी आजीविका का साधन गायों का पालन पोषण करना है । जंगल हमें सब कुछ प्रदान करते हैं और पहाड़ हमारी रक्षा करते हैं। हम इन सब पर निर्भर हैं और इसलिए मेरा विचार है कि हमें गिरियाच ना करना चाहिए। हमें सभी गायों को पेड़ों या पहाड़ के पास इकट्ठा करना चाहिए, पूजा करनी चाहिए और सारे दूध को किसी शुभ मंदिर में इकट्ठा करना चाहिए। गायों को मोर पंख के मुकुट से अलंकृत करना चाहिए और फिर फूलों से उनकी पूजा करनी चाहिए। देवता देवराज इन्द्र की पूजा करें और हम गिरिराज गोवर्धन की पूजा करेंगे।” 

  • चित्रकेतु के वृत्रासुर बनने की कथा | Chitraketu
    16 min 22 sec

    जो भी ऋषि दधीचि की कथा से परिचित है उसे पता है कि किस प्रकार असुर वृत्त्र किसी भी धातु से बने हुए अस्त्र से अवध्य था और उसका संहार करने के लिए ऋषि दधीचि ने अपने प्राणों का परित्याग कर अपनी अस्थियाँ देवराज इन्द्र को दान कर दी थीं। यह कहा उसी वृत्त्र के पूर्व जन्म की है। शूरसेन देश में चित्रकेतु नामक एक राजा हुए जिन्होंने पूरी पृथ्वी पर विजय प्राप्त की। राजा की शक्ति इतनी थी कि उनके राज्य में रहने वालों के लिए समस्त खाने की चीज़ें स्वयं ही उत्पन्न होती थीं। राज्य में सुखसमृद्धि ऐसी थी कि प्रजा, राजा को दूसरा ईश्वर मानती थी। धनदौलत, ऐश्वर्य, चित्रकेतु को किसी भी वैभव की कमी नहीं थी। अपने पराक्रम और शौर्य से उन्होंने कई सुंदर स्त्रियों का ह्रदय भी जीता था। कुलमिलाकर चित्रकेतु की एक करोड़ रानियाँ थीं। परंतु इतने सब ऐश्वर्य के बाद भी वह निःसंतान थे। इसलिए सदैव उनका मन चिंतित रहता था। एक दिन तीनों लोकों का भ्रमण करने हेतु निकले प्रजापति अंगिरा ऋषि ने चित्रकेतु के महल में आतिथ्य स्वीकार किया। राजा के पास सब कुछ होने के बाद भी उनका उदास चेहरा देख ब्रह्मर्षि ने उनसे इसका कारण पूछा। चित्रकेतु ने उत्तर देते हुए कहा, हे भगवन समग्र सृष्टि के सारे सुगंधित फूल मिलकर भी जैसे किसी भूखे मनुष्य की भूख नहीं मिटा सकते, वैसे ही यह समस्त ऐश्वर्य मिलकर भी एक निःसंतान पिता का दुःख दूर नहीं कर सकते। भूखे मनुष्य को जिस तरह खाद्य की आवश्यकता है ठीक उसी तरह, हे भगवन, मुझे एक पुत्र प्रदान कर मेरी इस पीड़ा को हर लें। त्रिकालदर्शी ऋषि अंगिरा को यह भलीभांति पता था कि चित्रकेतु के भाग्य में संतान सुख नहीं है, परंतु उनके हठ के आगे ब्रह्मर्षि भी विवश हो गए। अतएव यज्ञ का आयोजन कर उससे उत्पन्न चरु को उन्होंने राजा की पटरानी कृतद्युति को दिया। समय आने पर कृतद्युति ने एक अत्यंत सुंदर पुत्र को जन्म दिया। एक करोड़ रानियाँ होने के बाद भी निःसंतान रहने वाले चित्रकेतु के लिए पहली संतान का सुख स्वर्ग लोक पर विजय प्राप्त करने से भी अधिक आनंददायी था। राजकुमार के आ जाने से पूरे राज्य में मानो उत्सव का माहौल बन गया था। परंतु यह खुशियाँ अधिक दिनों तक टिकने नहीं वाली थीं। चूँकि रानी कृतद्युति ने राजकुमार को जन्म दिया था, तो राजा स्वयं ही अपनी पटरानी की ओर अपना समस्त ध्यान देने लगे। यह देख बाकी की रानियों में ईर्ष्या भाव उत्पन्न होने लगा। उनका द्वेष इतना बढ़ गया कि वह राजा से उनकी तरफ विमुखता के लिए नवजात शिशु को ही दोषी समझने लगीं। यह घृणा इतनी बढ़ गई कि, एक दिन क्रोध में आकर उन्होंने नन्हे राजकुमार को विष दे दिया। जब तक कृतद्युति को यह पता चलता तब तक बहुत देर हो चुकी थी, राजकुमार के प्राणों ने उनके नश्वर शरीर को त्याग दिया था। अपने बेटे के मृत शरीर को देख हर मातापिता की जो अवस्था होती है वही राजा चित्रकेतु और रानी कृतद्युति की भी हुई। दोनों अपने भाग्य को कोसते हुए छाती पीट पीट कर रोने लगे। थोड़ी देर में चित्रकेतु संज्ञाहीन होकर नीचे गिर पड़े। राजा की यह हालत देख कर स्वर्ग से अंगिरा ऋषि और देवर्षि नारद स्वयं चित्रकेतु के पास आये और उन्हें समझाने लगे।  

  • सूर्यदेव के सारथी - अरुण | Suryadev's charioteer - Arun
    5 min 55 sec

    सतयुग के प्रारम्भ में ब्रह्माजी के आशीर्वाद से दक्ष प्रजापति की तेरह पुत्रियों का विवाह प्रजापति मरीचि के पुत्र कश्यप ऋषि के साथ हुआ। कश्यप ऋषि और उनकी पत्नियों से संसार में अनेक प्रजातियों और वनस्पतियों की उत्पत्ति हुई। यह प्रसंग इन्हीं में से दो पत्नियों कद्रू और विनता के बारे में है। कद्रू के गर्भ से नागों और विनता से पक्षीराज गरुड़ और सूर्यदेव के सारथी अरुण का जन्म हुआ। क्या है इनके जन्म की कथा क्यों है गरुड़ देव का नागों से बैर इन प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए सुनिए कद्रू और विनता की यह कथा।  कश्यप ऋषि ने एक दिन अपनी पत्नियों से अपनी इच्छानुसार कोई भी वर माँगने को कहा। कद्रू ने एक हज़ार तेजस्वी पुत्रों की कामना की। विनता ने कहा,मुझे कद्रू के एक हज़ार पुत्रों से भी तेजस्वी दो पुत्र हों। कश्यप ऋषि उनकी इच्छा पूरी होने का वरदान देकर तप में लीन हो गए।  समय आने पर कद्रू ने एक हज़ार और विनता ने दो अंडे दिए। उन्होंने अपने अण्डों को गरम बर्तनों में रख दिया। कई वर्षों बाद कद्रू के अण्डों से एक हज़ार नागों ने जन्म लिया परन्तु विनता के दिए हुए अंडे अभी भी नहीं फूटे। विनता ने जल्दबाजी दिखते हुए अपने एक अंडे को अपने हाथों से फोड़ दिया। अंडे से जिस शिशु का जन्म हुआ उसका शरीर पूरा विकसित नहीं हो पाया था। शिशु का ऊपरी हिस्सा तो हृष्टपुष्ट था लेकिन नीचे का हिस्सा पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाया था। उस नवजात शिशु को अपनी माता के इस उतावलेपन पर बहुत क्रोध आया और उसने उसे शाप दे दिया,माँ तूने जिससे ईर्ष्यावश मेरे अधूरे शरीर को ही अंडे से निकाल दिया, तुझे उसी की दासी बनकर रहना होगा। इस शाप से तुम्हे तुम्हारा दूसरा पुत्र ही मुक्त कराएगा अगर तुमने उसको भी अंडे से बहार निकलने का उतावलापन नहीं दिखाया तो। अगर तू चाहती है की मेरा भाई अत्यंत बलवान बने और तुझे इस शाप से मुक्त करे तो धैर्य से काम ले और उसके जन्म होने की प्रतीक्षा करो। ऐसा कहकर वह बालक आकाश में उड़ गया और भगवान् सूर्य का सारथी अरुण बना। सुबह सूर्योदय के समय दिखने वाली लालिमा उसी अरुण की झलक है, इसीलिए उस झलक को अरुणिमा भी कहते हैं। 

  • च्यवन ऋषि (Chyavan Rishi)
    8 min

    ब्रह्मदेव के मानस पुत्र भृगु ऋषि के पुत्र च्यवन ऋषि की कथा अत्यंत रोचक है। उनकी गर्भवती माता का अपहरण करने वाला राक्षस उनके जन्म लेते ही उनके तेज से भस्म हो गया। सदा हरिभक्ति में लीन रहने वाले ऋषि च्यवन का विवाह एक राजकुमारी से हुआ और उनके पतिव्रत के कारण ऋषि को सुंदर काया प्राप्त हुई। देवताओं के चिकित्सक और सूर्यदेव के पुत्रों अश्विनी कुमारों को देवराज इन्द्र के विरोध के बाद भी देवत्व प्रदान करने वाले भी ऋषि च्यवन ही थे। सूत्रधार की इस प्रस्तुति में हम देखेंगे भार्गव च्यवन के जीवन की कथा। ब्रह्मदेव के मानस पुत्र ब्रह्मर्षि भृगु अपनी गर्भवती पत्नी पुलोमा को अग्निदेव के संरक्षण में छोड़कर तपस्या करने गए हुए थे। उसी समय पुलोमन नामक एक राक्षस ने आश्रम से पुलोमा का अपहरण कर लिया। जब वह राक्षस पुलोमा को बल पूर्वक अपने साथ ले जा रहा था, उसी समय देवी पुलोमा का गर्भ से एक बालक का जन्म हुआ। वह बालक इतना तेजस्वी था कि उनके जन्म लेते ही, उनके तेज से राक्षस पुलोमन वहीं भस्म हो गया। इस प्रकार जन्म के समय माता के गर्भ से गिरने के कारण उस बालक का नाम च्यवन हुआ। जन्म से ही तेजस्वी च्यवन ऋषि अपना सारा समय तप में व्यतीत करते थे। एक बार वर्षों तक तप में लीन होने के कारण उनके ऊपर चींटियों ने बाँबी बना ली थी। उस बाँबी ने ऋषि का सारा शरीर ढक दिया था। एक दिन महाराज शर्याति अपने परिवार और सैन्यबल के साथ वन में विहार करने गए हुए थे। राजकुमारी सुकन्या अपनी सखियों के साथ च्यवन ऋषि के आश्रम में क्रीड़ा कर रही थीं, कि उनकी दृष्टि उस विशाल बाँबी पर पड़ी। पास जाकर देखने पर उनको उसके अंदर से दो चमकते हुए रत्न दिखाई दिए। राजकुमारी ने कौतूहलवश एक नुकीली सींक से उन रत्नों को कुरेदने का प्रयास किया। उनके ऐसा करने पर उनसे रक्त की धारा बहने लगी। वो रत्न ऋषि च्यवन के दो नेत्र थे, जिन्हें राजकुमारी ने अपने कौतूहल वश फोड़ दिया था। बाँबी से रक्त की धार बहते देखकर राजकुमारी और उनकी सखियाँ घबराकर वहाँ से भागकर अपने पिता के पास चली गयीं।

  • सत्यवती का विवाह | Satyavati Ka Vivah
    8 min 33 sec

    एक दिन महाराज शान्तनु गंगा नदी के समीप विचरण कर रहे थे और उन्होंने देखा कि एक किशोर आयु के बालक ने अपनी धनुर्विद्या से गंगा नदी के प्रवाह को रोक दिया था। महाराज शान्तनु उसकी ऐसी निपुणता को देखकर आश्चर्यचकित हुए और उससे उसका परिचय पूछा। उस समय देवी गंगा ने वहाँ प्रकट होकर महाराज शान्तनु को उस बालक का परिचय देते हुए कहा, “महाराज आज मैं आपका पुत्र देवव्रत आपको सौंपती हूँ। इसने ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के मार्गदर्शन में वेदों का अध्ययन किया है और धनुर्विद्या की शिक्षा स्वयं भगवान परशुराम से प्राप्त की है। यह आपका पुत्र आपके कुरुवंश का उत्तराधिकारी बनने के लिए सर्वथा योग्य है।” ऐसा कहकर देवी गंगा नदी में विलीन हो गईं और महाराज शान्तनु अपने पुत्र को अपने साथ राजमहल ले आए।  देवव्रत सभी प्रकार की विद्याओं में निपुण थे और महाराज शान्तनु को अपने पुत्र पर बड़ा गर्व था। देवव्रत से प्रभावित होकर महाराज शान्तनु ने उसे अपना उत्तराधिकारी बनाकर राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। युद्धकला में पारंगत देवव्रत ने अपने पिता के यज्ञ के लिए विश्व विजय का अभियान किया और सभी राजाओं को हस्तिनापुर के अधीन कर दिग्विजय का महान कार्य सम्पन्न किया। महाराज शान्तनु युवराज देवव्रत को पाकर स्वयं को धन्य समझते थे और उसे राज्य का समस्त कार्यभार सौंपने का निर्णय कर चुके थे।  एक दिन महाराज शान्तनु यमुना नदी के समीप विचरण कर रहे थे कि उनका ध्यान एक मानमोहिनी गन्ध की ओर आकृष्ट हुआ। उस गन्ध के स्रोत को खोजते हुए उनकी भेंट मछुआरे की कन्या सत्यवती से हुई। सत्यवती की दैवी सुन्दरता को देखकर महाराज शान्तनु का मन मोहित हो गया और वो उसके पास जाकर बोले, “देवी कौन हो तुम तुम्हारे रूप को देखकर तो लगता है कि तुम स्वर्ग की कोई अप्सरा हो और तुम्हारे शरीर से आने वाली यह मोहक गन्ध भी इस लोक से परे है।”  

  • गरुड़ की जन्मकथा | Story of Garuda's Birth
    6 min 19 sec

    अपने नाग पुत्रों की सहायता से कद्रू ने छलपूर्वक विनता से बाजी जीत ली और विनता उसकी दासी बनकर रहने लगी। अपने पहले पुत्र अरुण के शाप के कारण दासत्व का जीवन व्यतीत करती हुई विनता उस शाप से मुक्ति पाने के लिए अपने दूसरे पुत्र के जन्म की प्रतीक्षा करने लगी। समय आने पर विनता के दूसरे अंडे से महाशक्तिशाली गरुड़ पैदा हुए। उनकी शक्ति, गति, दीप्ति और वृद्धि विलक्षण थीं। आँखे बिजली की तरह पीली और शरीर अग्नि के समान तेजस्वी था। जब वो अपने विशालकाय पंख फड़फड़ाकर आकाश में उड़ते तो लगता स्वयं अग्निदेव आ रहे हैं। जब गरुड़ ने अपनी माता को नागमाता की दासी के रूप में देखा तो उनसे इसका कारण पूछा। विनता ने गरुड़ को कद्रू के साथ लगी बाजी के विषय में बता दिया।  गरुड़ ने अपनी माता को इस शाप से मुक्त कराने की ठान ली और नागों के पास जाकर बोले,मेरी माता को दासत्व से मुक्त करने के बदले में तुम्हे क्या चाहिए नागों ने बहुत सोच विचार करने के बाद गरुड़ से कहा,हमारी माता के शाप के कारण हम जनमेजय के यज्ञ कुंड में भस्म हो जायेंगे। इससे हमे बचाने के लिए तुम हमारे लिए देवलोक से अमृत लेकर आ जाओ। अगर तुम देवलोक से अमृत लाने में सफल हो गए तो तुम्हारी माता दासत्व से मुक्त हो जाएँगी। गरुड़ देव ने नागों की बात मान ली और अमृत लेने के लिए स्वर्गलोक की और निकल पड़े। इन्द्र और अन्य देवताओं को जब इस बात का पता चला की गरुड़ अमृत लेने के लिए आ रहे हैं तो उन्होंने अमृत की रक्षा करने के लिए गरुड़ का सामना करने का निश्चय किया परन्तु परम प्रतापी गरुड़ के सामने उनकी एक ना चली। गरुड़ ने अपने प्रहारों से इन्द्र समेत सभी देवताओं को मूर्छित कर दिया और अमृत तक पहुँच गए।  गरुड़ जब अमृत पात्र लेकर आसमान में उड़े जा रहे थे तब भगवान् विष्णु ने उन्हें दर्शन दिए और उनको पूछा,हे महाप्रतापी गरुड़ तुमको अमृत पीना है तो इस पात्र से अमृत पी लो, पूरा पात्र लेकर जाने की क्या आवश्यकता है गरुड़ ने भगवान् विष्णु को उत्तर दिया,मुझे ये अमृत स्वयं के लिए नहीं चाहिए अपितु मेरी माता को शाप से मुक्ति दिलाने के लिए चाहिए। गरुड़ के मन में अमृत के लिए कोई भी लालच ना देखकर भगवान् विष्णु अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने गरुड़ से एक वर माँगने को कहा। गरुड़ ने कहा,भगवान् आप मुझे बिना अमृत पान के ही अमर कर दीजिये और मेरे प्रतिबिम्ब को अपनी ध्वजा में स्थान दीजिये। भगवान् ने तथास्तु कहकर गरुड़ की इच्छा पूरी कर दी।  

  • वाल्मीकि जी को श्रीरामकथा सुनाने की प्रेरणा
    8 min

    रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि को आदिकवि अर्थात प्रथम कवि भी कहते हैं और उनके द्वारा रचित श्रीरामकथा को प्रथम महाकाव्य। देखिए कैसे मिली वाल्मीकि जी को रामायण की रचना करने की प्रेरणा। एक बार तपस्वी वाल्मीकि ऋषि की भेंट तीनों लोकों में भ्रमण करने वाले त्रिलोकज्ञाता देवर्षि नारद ने हुई। वाल्मीकि जी ने नारद मुनि से पूछा, “देवर्षि इस समय विश्व में गुणवान, वीर्यवान, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवादी, धर्मानुसार आचरण करने वाले, प्राणिमात्र के हितैषी, विद्वान, समर्थ, धैर्यवान, क्रोध को वश में करने वाले, तेजस्वी, ईर्ष्या से शून्य और युद्ध में देवताओं को भी भयभीत करने वाले कौन हैं। हे महर्षि क्या आप किसी ऐसे पुरुष को जानते हैं कृपा कर मुझे उनके विषय में बतायें।“वाल्मीकि जी की बात सुनकर त्रिकालदर्शी नारद मुनि प्रसन्न हुए और बोले, “हे मुनिवर आपने जिन गुणों की बात कही है, वो सभी एक पुरुष में मिलन अत्यंत दुर्लभ है। किन्तु मैं आपको ऐसे एक गुणवान पुरुष के विषय में बताता हूँ। ध्यान से सुनिए।“ऐसा कहकर नारद मुनि ने ऋषि वाल्मीकि को इक्ष्वाकु वंश में जन्मे श्रीरामचन्द्र का परिचय देते हुए हुए उनके जीवन की कथा संछिप्त में सुनाई। उन्होंने बताया किस प्रकार श्रीराम का जन्म अयोध्या में महाराज दशरथ के पुत्र के रूप में हुआ, कैसे उन्होंने ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के यज्ञ में उनकी सहायता की, किस प्रकार उनका विवाह मिथिला नरेश महाराज जनक की पुत्री जानकी से हुआ और कैसे उनको अपनी सौतेली माता कैकेयी के कारण वनवास में जाना पड़ा। नारद मुनि ने वाल्मीकि जी को रावण द्वारा सीता जी के अपहरण, सीता जी की खोज में श्रीराम और लक्ष्मण जी की हनुमान जी से भेंट, उनकी सुग्रीव से मित्रता और सुग्रीव की सहायता से सीता जी की खोज, नल द्वारा समुद्र पर पुल बंधे जाने और उसके पश्चात लंका पर आक्रमण कर दसग्रीव रावण का वध करने की कथा सुनाई। देवर्षि नारद से यह वृत्तान्त सुनने के पश्चात वाल्मीकि जी ने अपने शिष्य भारद्वाज के साथ उनका पूजन किया। उसके बाद नारद मुनि विदा लेकर अकाशमार्ग में चले गए। नारद मुनि को विदा करने के बाद वाल्मीकि ऋषि अपने शिष्य के साथ गंगा नदी से थोड़ी दूर पर स्थित तमसा नदी के तट पर पहुँचे, और नदी के शीतल जल में स्नान कर वहाँ विचरण करने लगे। उसी समय वाल्मीकि जी ने वन में विहार करते हुए मधुर ध्वनि करने वाले क्रौंच पक्षी का एक जोड़ा देखा। इतने में एक बहेलिये ने उनमें से नर पक्षी को मार दिया। जिसे देखकर मादा पक्षी करुण स्वर में विलाप करने लगी। इस प्रकार विलाप करती हुई क्रौंची को देखकर वाल्मीकि जी के मुख से अनायास ही यह शब्द निकले – 

  • नारदमुनि के नाम की कथा ( How Narad Muni Got His Name? )
    5 min 28 sec

    एक बार नारदमुनि मनु के पुत्र प्रियव्रत से मिलने गए। प्रियव्रत ने नारद जैसे ज्ञानी ऋषि का स्वागत पूरे सम्मान और आतिथ्य के साथ किया जिसके पश्चात प्रियव्रत ने नारदमुनि से कई प्रश्न किए।परन्तु ज्ञान की प्यास लगातार बढ़ती चली गई और प्रियव्रत ने पूछा, मुनिवर जब भी कुछ घटित होने वाला होता है, देवों को पूर्वानुमान हो जाता है लेकिन मैं किसी ऐसी घटना के विषय में जानना चाहता हूँ जो विचित्र और अद्भुत हो। जिसके पश्चात नारदमुनि ने प्रसन्नता पूर्वक अपनी एक विचित्र और अद्भुत कथा सुनाई जिसमें वो माँ सावित्री को पहचान नहीं पाए थे। नारदमुनि श्वेतद्वीप नामक क्षेत्र में थे। यह स्थान यहाँ की सुन्दर झील के कारण प्रसिद्ध था और नारदमुनि उसकी सुन्दरता देखने के लिए लालायित थे। नारद जी उस स्त्री के पास जाकर बोले, हे सुन्दरी तुम कौन हो उस स्त्री ने नारदमुनि को दुःखी होकर देखा और अदृश्य हो गई। जहाँ वह स्त्री अदृश्य हुई वहाँ आभामयी लड़कियाँ दिखने लगीं। How Narad Muni Got His Name Narad muni once visited Priyavrata प्रियव्रत, the son of Manu. He welcomed the learned sage with due respect and hospitality. Priyavrata asked many questions to Narad Muni. Once his thirst was quenched, he asked “Munivar When an event is about to happen, the divine beings somehow know the consequences but I want to know about an event that was strange yet wonderful.”  Narad Muni was happy to share his strange yet wonderful experience where once he could not recognise Maa Savitri.  Narad Muni was in the region known as Shvetadvipa श्वेतद्वीप. This place had a lovely lake and Narad ji was eager to see its beauty. Upon arriving, he discovered that the lake was filled with blooming lotuses and an enticing lady stood there motionless. Narad Muni was in awe of her elegance and beauty. She was glowing and was radiant. Narad ji approached her and asked “Who are you, O beautiful one”       

  • कौआ चला हंस की चाल | Kauwa Chala Hans Ki Chal
    6 min 29 sec

    द्रोणाचार्य की मृत्यु के बाद दुर्योधन ने कर्ण को कौरव सेना का सेनापति नियुक्त किया। कर्ण ने दुर्योधन से वादा किया कि वह अर्जुन का वध करेगा और युद्ध में दुर्योधन की जीत सुनिश्चित करेगा। उसने दुर्योधन को बताया कि कैसे वह हर पहलू में अर्जुन से बेहतर है सिवाय एक को छोड़कर। कर्ण ने कहा कि अर्जुन के पास सारथी के रूप में श्रीकृष्ण हैं। उसने प्रस्ताव दिया कि यदि दुर्योधन शल्य को उसका सारथी बनने के लिए मना सकता है, तो वह अर्जुन के बराबर हो जाएगा। दुर्योधन ने शल्य के घोड़ा चलाने के कौशल की प्रशंसा की, साथ ही यह भी कहा कि वह वास्तव में इस पहलू में श्रीकृष्ण के बराबर है। और शल्य को कर्ण का सारथी बनाने के लिए आश्वस्त किया। कर्ण का रथ चलाते समय शल्य ने उसे एक कहानी सुनाई। 

  • पारिजात हरण | Parijaat Haran - Part 1
    12 min 30 sec

    द्वारका में नारद मुनि  एक बार श्रीकृष्ण अपनी पत्नी रुक्मणि के साथ रैवतक पर्वत पर गए। वहाँ देवी रुक्मणि ने एक समारोह का आयोजन किया और श्रीकृष्ण स्वयं अतिथि सत्कार में लग गए। वो अतिथि सत्कार में कोई भी कमी नहीं रखना चाहते थे। इस समारोह में श्रीकृष्ण की पटरानियाँ और उनकी दासियाँ भी शामिल हुईं।  जब श्रीकृष्ण, देवी रुक्मणि के साथ बैठे थे, तभी वहाँ नारद मुनि आए। श्रीकृष्ण और रुक्मणि ने नारद मुनि का अभिवादन किया और उन्हें अपने समीप स्थान पर बिठा दिया। आतिथ्य स्वीकार करने के पश्चात नारद मुनि ने श्रीकृष्ण को दैवीय पारिजात वृक्ष का पुष्प अर्पित किया। श्रीकृष्ण ने वह पुष्प नारद मुनि से लेकर अपने पास बैठी देवी रुक्मणि को दे दिया। देवी रुक्मणि ने पुष्प लेकर अपने बालों में सजा लिया। यह देखकर नारद मुनि ने प्रशंसा करते हुए कहा, देवी यह पुष्प तो आपके लिए ही बना प्रतीत होता है। पारिजात वृक्ष का यह पुष्प अत्यन्त ही दैवीय है। यह एक वर्ष तक ऐसे ही खिला रहेगा और यह आपकी इच्छा के अनुरूप ही सुगन्ध प्रदान करेगा। यह पुष्प सौभाग्य लाता है और इसे धारण करने वाला निरोगी रहता है। एक वर्ष की समाप्ति के बाद यह अपने दैवीय वृक्ष पर वापस लौट जाएगा। यह पुष्प मरणशील प्राणियों की पहुँच से बाहर है और यह देवताओं तथा गन्धर्वों को अत्यन्त प्रिय है। देवी पार्वती प्रतिदिन इन पुष्पों को धारण करती हैं और देवी शची को भी यह इतने प्रिय हैं कि वे प्रतिदिन इनकी उपासना करती हैं।

  • Trailer

    सूत्रधार आपके लिए लेकर आया है, इतिहास पुराण की कथाएँ । इस पॉडकास्ट के माध्यम से हम आप सभी को अनेकों पौराणिक कथाओं से  जोड़ने वाले है।  ये कथाएं महाभारत, शिव पुराण, रामायण जैसे अनेकों ग्रंथों से ली गयी हैं।  हमारे इस पॉडकास्ट को आप सुन पाएंगे हर बुधवार वो भी अपने पसंदीदा ऑडियो प्लेटफार्म पर। 

  • Moraya Gosavi
    7 min 28 sec

    मोरया गोसावी महाराज चौदहवीं शताब्दी के गाणपत्य संप्रदाय के संत थे। मोरगांव में जन्म लेने वाले गोसावी जी गणपति की प्रेरणा से पुणे के पास चिंचवड़ में आ बसे। चिंचवड़ में उन्होंने भव्य गणेश मन्दिर का निर्माण किया और यहीं उन्होंने समाधि ली। सूत्रधार की यह प्रस्तुति गणेशभक्त मोरया गोसावी को समर्पित है।   कर्नाटक राज्य में, बीदर नाम्क जिले में शाली नाम का एक गांव है। उसी गाँव में वामनभट्ट शालिग्राम और उनकी सुविद्य पत्नी पार्वतीबाई रहा करते थे। वामनभट्ट, श्रुति, स्मृति पुराणों में बताये हुए नियमों का पालन कर अपनी गृहस्थी सुचारु रूप से चला रहे थे। आधी आयु बीत जाने पर भी जब दोनों को कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने घर छोड़कर कहीं और जाने का निश्चय किया . 

  • King Mandhata | राजा मांधाता
    9 min 35 sec

    मांधाता, जिसे यौवनश्विन के नाम से भी जाना जाता है, जिसका अर्थ है युवनाश्व का पुत्र, एक महान राजा था जिसकी महाभारत में प्रशंसा की गई है। मांधाता के जन्म की कहानी किसी चमत्कार से कम नहीं है। सौर वंश में युवनाश्व नाम का एक राजा था। उनका राज्य समृद्ध था, सेना मजबूत थी और यहां तक ​​कि उनकी प्रजा भी समर्पित थी। सफलता के बावजूद, राजा युवनाश्व असंतुष्ट थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में सैकड़ों अश्वमेध यज्ञ किए थे लेकिन राजा निःसंतान रहे।

  • भगवान जगन्नाथ का आगमन (Part - 3)
    12 min

    नील कन्दर से वापस लौटे अब कई दिन बीत चुके थे। सबर नगरी में विश्वावसू और अवंति में राजा इन्द्रद्युम्न अपने आराध्य के पुनः दर्शन पाने हेतु व्याकुल हो रहे थे। एक रात सोते समय इन्द्रद्युम्न के सपने में भगवान नीलमाधव आते हैं। पहली बार अपने भगवान की नीलवर्णी प्रतिमा तथा अलौकिक तेज को देखकर राजा भी भक्ति भाव से सराबोर हो उठते हैं।नीलमाधव अब राजा को सही समय आने की सूचना देते हैं और कहते हैं कि, हे मेरे परम भक्त इन्द्रद्युम्न, तुम पुनः उत्कल राज्य में जाओ। वहाँ तुन्हें समुद्र के किनारे पानी में तैरता हुआ लकड़ी का एक लट्ठा मिलेगा। उस लट्ठे से तुम मेरी, भैया बलराम तथा बहन सुभद्रा की त्रिमूर्तियों का निर्माण करोगे और उसी समुद्र के किनारे एक भव्य मंदिर बनवाकर विधि पूर्वक उसकी प्रतिष्ठा करोगे। कलियुग के अंत तथा कल्कि अवतार होने तक यही नील समुद्र का किनारा, नीलांचल ही मेरा स्थान होगा। यह कार्य तुम्हे, मेरे आद्य सेवक विश्वावसु को अपने साथ लेकर संपादित करना होगा।

  • कार्तिकेय का जन्म
    10 min 6 sec

    सतयुग के युग में, तारक तारक नामक एक असुर का वास था, जिसने 100 वर्षों तक अत्यधिक तप किया था। हर 100 साल में वह अपनी तपस्या को और कठिन बना देता था। पहले 100 वर्षों तक वह पानी पर जीवित रहा और बाद में, वह केवल हवा में ही जीवित रहा।अत्यधिक तपस्या से प्रभावित होकर, भगवान ब्रह्मा तारकासुर तारकासुर को आशीर्वाद देने के लिए उनके सामने प्रकट हुए। मैं तुम्हारी भक्ति और तप से प्रसन्न हूँ, तुम क्या वरदान चाहते हो मुझे बताओ और तुम्हें दिया जाएगा ”निर्माता ने कहा। 

  • जरासन्ध का जन्म और कंस से उसका रिश्ता
    7 min 48 sec

    जरासन्ध मगध का शासक था और श्रीकृष्ण के जीवन से उसका गहरा सम्बन्ध था। इस कहानी में हम जरासन्ध के बारे में जानेंगे और पता लगाएँगे कि उसका श्रीकृष्ण से क्या रिश्ता था।मगध पर जब राजा बृहद्रथ का राज्य था तब उसकी प्रजा बहुत खुश थी। बृहद्रथ का विवाह काशी की जुड़वा राजकुमारियों से हुआ और वो एक आनंदमय गृहस्थ जीवन में बँध गया। जैसेजैसे समय बीतता गया राजा के मन में पुत्र प्राप्ति की कामना तीव्र होती गई।अन्ततः बृहद्रथ ने निर्णय लेकर अपनी पत्नियों को इस बारे में बताने के लिए बुलाया। वो बोला, प्रियाओं मेरी बात ध्यान से सुनो। हमारी सन्तान की कामना पूर्ण करने के लिए मैंने वनगमन करने का निर्णय लिया है। बृहद्रथ की बात सुनकर रानियों को काफ़ी धक्का लगा किन्तु उन्होंने बृहद्रथ की बात मान ली।राजा ने पैदल ही अपना राज्य छोड़ दिया और वनगमन का पथ अपनाकर ऋषि चण्डकौशिक की शरण में गया। राजा ने सच्चे मन से ऋषि की सेवा प्रारम्भ की और अपने कर्तव्य पूरी निष्ठा से निभाए। ऋषि इस समर्पण से काफी प्रसन्न हुए और राजा से वर माँगने को कहा, हे राजन मैं तुम्हारे समर्पण से बहुत प्रसन्न हुआ। तुमने एक राजा होकर भी निम्नतम कार्यों को भी पूरी लगन के साथ किया। मैं  तुम्हें एक वरदान देना चाहता हूँ। बताओ तुम्हारी क्या इच्छा हैराजा बृहद्रथ ने ऋषि चण्डकौशिक की चरण वन्दना करते हुए कहा, हे ऋषिवर मैं एक सन्तानहीन राजा हूँ। मुझे सिर्फ़ एक सन्तान की चाह है, जो मेरे राज्य का वारिस बने। मैं बस इतनी ही इच्छा रखता हूँ। मैं एक पिता बनना चाहता हूँ। हे ऋषिश्रेष्ठ मुझे सन्तान प्राप्ति का वरदान दीजिए।  ऋषि ने राजा पर दयाभाव दिखाते हुए उसे एक फल दिया और कहा कि ये फल अपनी किसी भी एक पत्नी को दे देना। राजा उस दैवीय फल को लेकर वन से वापस अपने महल आ गया। राजा अपनी दोनों पत्नियों को खुश देखना चाहता था इसलिए उसने उस फल को दो भागों में बराबर बाँटकर अपनी पत्नियों को दे दिया। जिसके बाद उन दोनों के यहाँ आधीआधी मृत सन्तानों ने जन्म लिया।

  • जरासन्ध का मथुरा पर हमला
    7 min 45 sec

    श्री कृष्ण के हाथों कंस की हत्या का बदला लेने के लिए क्रोध में अंधे होकर जरासन्ध ने मथुरा पर हमला करने का निर्णय लिया।  जरासन्ध ने अपनी सेना के साथ मथुरा को घेर लिया और श्रीकृष्ण तथा बलराम को युद्ध के लिए ललकारा। मथुरा की जनता ने श्रीकृष्ण और बलराम का पराक्रम पहले भी देखा था इसलिए वो सभी निश्चिन्त थे। श्रीकृष्ण और बलराम ने अपनी यदु सेना को जरासन्ध की सेना के समक्ष लाकर खड़ा कर दिया। इतनी बड़ी संख्या में होने के बावजूद भी मगध की सेना के पास श्रीकृष्ण और बलराम जैसा युद्ध कौशल नहीं था। जैसे ही जरासन्ध और बलराम का आमनासामना हुआ तो जरासन्ध को बलराम एक ऐसे नौजवान लड़के की तरह लगे जिनका उसके सामने कोई मुक़ाबला नहीं था। इसीकारण जरासन्ध ने बलराम को द्वन्द्व युद्ध की चुनौती दी। बलराम को जरासन्ध से द्वन्द्व युद्ध के लिए उतावला देखकर श्रीकृष्ण के चेहरे पर मुस्कान आ गई। दोनों योद्धा लड़ने लगे और कुछ ही समय में बलराम ने जरासन्ध को परास्त कर दिया। जैसे ही बलराम, जरासन्ध को ज़मीन पर पटककर अपनी गदा से उसपर हमला करने वाले थे, तभी उन्होंने एक आवाज़ सुनी, रुकिए दाऊ 

  • नहुष - जन्म और देवी अशोकसुंदरी से विवाह
    7 min 34 sec

    वैवस्वत मनु की प्रथम संतान इला और चन्द्रपुत्र बुध के पुत्र पुरुरवा ने चन्द्रवंश की स्थापना की और वर्षों धर्मपूर्वक प्रजापालन किया। महाराज पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी के पुत्र आयु ने उनके बाद चन्द्रवंश की बागडोर सम्हाली। आयु अपने पिता के अनुरूप ही राजधर्म का पालन करने वाले प्रतापी व प्रजावत्सल राजा थे। इतना ऐश्वर्य और वैभव पाने के बाद भी आयु का मन हमेशा निसंतान होने के दुःख में डूबा रहता था। उनके पश्चात चन्द्रवंश के अस्तित्व का क्या होगा, इसी चिंता में वह सदैव उलझे रहते। मन में एक उत्तराधिकारी की कामना लिए राजा आयु ने महारानी प्रभा के साथ भगवान दत्तात्रेय की शरण में जाने का निर्णय लिया। दोनों ने सौ वर्षों तक भगवान दत्तात्रेय के आश्रम में रहकर उनकी सेवा की। उनकी सेवा व भक्ति से संतुष्ट होकर त्रिदेवों के अवतार भगवान दत्तात्रेय ने उन्हें एक चक्रवर्ती पुत्र का वरदान दिया। इस प्रकार संतान प्राप्ति का वरदान पाकर महाराज आयु और महारानी प्रभा राजमहल में लौट आए और पुत्र जन्म की प्रतीक्षा करने लगे।  दूसरी ओर एक दिन देवी पार्वती व महादेव अलकापुरी के सुंदर नंदनवन में विचरण करते हुए इच्छापूर्ति करने वाले कल्पवृक्ष के समीप रुके। महादेव ने देवी पार्वती से कल्पवृक्ष से अपनी कोई भी इच्छा प्रकट करने को कहा। महादेव के सदा योग साधना में लीन होने का कारण कभीकभी देवी पार्वती का मन उदास हो जाता था, इसलिए उन्होंने कल्पवृक्ष से अपने एकाकीपन को दूर करने के लिए एक पुत्री की इच्छा व्यक्त की। कल्पवृक्ष ने देवी की मनोकामना पूर्ण करते हुए उन्हे एक सुंदर कन्या प्रदान की। अपने अकेलेपन के शोक को हरने के लिए जन्मी इस कन्या का नाम देवी ने अशोकसुन्दरी रखा।  

  • देवराज नहुष
    13 min 12 sec

    पृथ्वीलोक पर वर्षों तक धर्मपूर्वक राज्य करने और शौर्य और वैभव अर्जित करने के बाद, ऐसा क्या हुआ कि महाराज नहुष को देवराज बनाना पड़ा। देखिये कैसा रहा देवराज नहुष का कार्यकाल युगों तक स्वर्गलोक पर शासन करने के बाद इंद्र को ऐश्वर्य का मोह लग चुका था और उनके मन में इस बात को लेकर के घमंड जाग गया। एक बार की बात है, इंद्रलोक में हमेशा की तरह ही उत्सव का माहौल था, देवी शची के साथ अपने आसन पर बैठे इंद्र नृत्य और गायन का आनंद ले रहे थे.देवता, ऋषि मुनि, मरुद गण, दिगपाल, गन्धर्व, नाग तथा अप्सराएं चारों ओर से देवराज इंद्र की वंदना करने में लगी हुई थी. पहले से ही अहंकार में चूर इंद्र इस जय जय कार से और फूले नहीं समा रहे थे। उस समय देवगुरु बृहस्पति जी का इंद्रलोक में आगमन हुआ, देवगुरु को आता हुआ देख कर भी न तो इंद्र ने उठ कर उनका अभिवादन किया और न ही बृहस्पति जी को आसन ग्रहण करने का न्योता दिया।  बृहस्पति जी को इस बात से अत्यंत बुरा लगा और उन्होंने उसी वक़्त इंद्रसभा परित्याग करने का निर्णय लिया। बृहस्पतिजी के जाने के बाद इंद्र को अपनी भूल का एहसास हुआ और वह अपने गुरु से माफ़ी मांगने के लिए उनके निवास पर पहुंचे। लेकिन इंद्र ने वहां पहुंचने में देरी कर दी, देवराज के बर्ताव से रुष्ट होकर बृहस्पति जी कहीं जा चुके थे. अतएव दुखी मन से इंद्र वापस अपने महल लौट आये। असीम तपोबल के धनी बृहस्पति जी के इस तरह चले जाने से देवताओं की शक्ति लगभग आधी हो चुकी थी और हर बीतते समय के साथ वह और घटती जा रही थी। जैसे ही असुरों को इस बात का पता चला तो उन्होंने इस अवसर का फायदा लेते हुए स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया।

Language

Hindi

Genre

Mythology

Seasons

1